आशीष कुमार
इस चैनल की रिपोर्टिंग को लेकर जितनी शिकायतें की जाती रही हैं, ताजा प्रकरण के बाद क्या उन सबको पत्रकारीय विवेक की स्वतंत्रता का हवाला देकर दरकिनार किया जा सकेगा?
मुंबई पुलिस द्वारा उजागर किया गया टीआरपी घोटाला शुरू में सीमित महत्व का ही माना जा रहा था, लेकिन ब्यौरे उजागर होने के साथ यह विस्फोटक रूप लेता जा रहा है। बीते सप्ताह मुंबई पुलिस की ओर से फाइल की गई सप्लीमेंट्री चार्जशीट में बतौर सबूत शामिल किए गए वॉट्सऐप चैट सामने आने से इस प्रकरण के साजिश वाले पहलू अचानक बेहद गंभीर हो गए। हालांकि अभी इस मामले में जांच चल ही रही है। पुलिस द्वारा जुटाए गए तमाम सबूतों का अदालत में परीक्षण होना बाकी है लेकिन जो साक्ष्य अब तक सामने आए हैं वे इतना तो बताते ही हैं कि इस मामले को महज बीएआरसी (ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल) के स्तर पर होने वाली गड़बड़ी के रूप में नहीं समझा जा सकता।
साफ लगता है कि एक खास चैनल की तरफ से उसको फायदा पहुंचाने के लिए बीएआरसी में अहम पदों पर बैठे कुछ लोगों का इस्तेमाल किया गया। इतना ही नहीं, इसमें अति संवेदनशील मुद्दे पर अग्रिम जानकारी साझा की गई है, जो स्वयं में एक स्वतंत्र जांच का मुद्दा होना चाहिए। कोई चैनल या पत्रकार खुद को नंबर वन दिखाने के लिए सत्ता में अपनी पहुंच का कैसा इस्तेमाल कर सकता है, यह तो इससे साफ होता ही है, साथ ही यह सवाल भी उठने लगता है कि सत्ता में अपनी पहुंच बनाए रखने के लिए वह खबरों के साथ कैसा खिलवाड़ करता होगा। पत्रकार और मीडिया के साथ प्रामाणिकता की जो शर्त जु़ड़ी हुई है, उसकी अगर एक मामले में धज्जियां उड़ाते आप दिख जाते हैं तो स्वाभाविक रूप से आपके सारे काम संदेह के घेरे में आ जाते हैं।
ये वॉट्सऐप चैट अगर सही हैं तो कहना ही होगा कि मामले का मुख्य आरोपी या कथित मास्टरमाइंड बीएआरसी में बैठा शख्स नहीं बल्कि चैनल के ऑफिस से उसे निर्देशित करने वाला व्यक्ति है। बीएआरसी के संबंधित अधिकारी पर अधिक से अधिक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए पद के दुरुपयोग का मामला बनता है, लेकिन चैनल संचालकों पर न केवल विज्ञापनदाताओं के साथ बेईमानी और बाकी चैनलों के साथ धोखाधड़ी करने का बल्कि दर्शकों के साथ विश्वासघात करने का भी आरोप चस्पां होता है। इसके अलावा सत्ता से नजदीकी के गलत इस्तेमाल का सवाल अपनी जगह है।
इस चैनल की रिपोर्टिंग को लेकर जितनी शिकायतें की जाती रही हैं, ताजा प्रकरण के बाद क्या उन सबको पत्रकारीय विवेक की स्वतंत्रता का हवाला देकर दरकिनार किया जा सकेगा? बात जहां तक कानूनी प्रक्रिया की है तो उसे अपने तय रास्ते से ही आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन साथ में यह भी देखा जाना चाहिए कि इस रास्ते में किसी तरह की रुकावट न आए और किसी संदेह या अविश्वास के लिए कोई गुंजाइश न छोड़ी जाए। मीडिया के आत्म अनुशासन का रास्ता भी ऐसे विचलनों के खिलाफ सख्ती बरतते हुए ही तैयार हो पाएगा, इनकी अनदेखी करके नहीं।