आप को कोई जानलेवा रोग होता है तो आप उसके बारे में जितनी जानकारी मिलती है उतनी हासिल कर लेते हैं। उससे क्या होगा, कब होगा, सब कुछ आप को पता चल जाता है।
लेकिन क्या यह जानकारी ही रोग से बचाव है? रोग तो हो गया है तो ठीक होने के लिए उससे लड़ना ही होगा। ट्रीटमेंट तो करनी ही होगी, ऑपरेशन भी जरूरी होगा तो करना होगा। बिना यह सब किए, जो भी पीड़ा और कष्ट होगे उनको झेले, आप की ज़िंदगी बचेगी नहीं।
लेकिन अक्सर मनुष्य इन सब से बचाने के लिए खुद को झूठे दिलासे देता रहता है। कुछ भी दिलासे दे सकता है, सोच भी नहीं सकते। कहीं कोई ठग की बात मानेगा जो खुद को पता नहीं क्या बताएगा। यह भी मान सकता है कि उसने सब का अच्छा ही किया है, सब के आशीर्वाद उसके साथ है तो उसके इष्ट उसे उस रोग से उबार लेंगे। मानसिकता कुछ ऐसी हो जाती है कि टोकने पर झुँझलाकर क्या कुछ कह देंगे, कह नहीं सकते। यही लोग अगर दूसरे किसी का ऐसा बर्ताव देखें तो मज़ाक उड़ाएंगे या उससे लगाव है तो दुखी भी होंगे, लेकिन अपने पर आती है तो उससे भी खराब साबित होंगे।
अब अपने लाइन पर लौटते हैं। *आजकल कई सारे लोग किताब पढ़ने लगे हैं। उससे ले कर कई सारी पुस्तकें पढ़ रहे हैं, विडियो देख रहे हैं, पता नहीं क्या क्या, लेकिन ऊपर लिखे हुए रोगी की ही तरह बर्ताव कर रहे हैं।*
फ्री में कुछ नहीं मिलता, और सुरक्षा तो सब से मूल्यवान होती है। *यह न भूलें कि गंभीर रोगो के मामले में कठोर इलाज का कोई विकल्प नहीं होता। रोग चाहे देह का हो, या देश का।*
साभार : आर ए एम देव
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