ओ३म्
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मनुष्य जीवन को उत्तम व श्रेष्ठ बनाने के लिये आत्मा को ज्ञान से युक्त करने सहित श्रेष्ठ कर्मों व आचरणों का धारण व पालन करना होता है। मनुष्य जब संसार में आता है तो वह एक अबोध शिशु होता है। माता, पिता तथा परिवार के लोगों की बातें सुनकर वह बोलना सीखता है। माता, पिता ही उसके मुख्य आदि गुरु होते हैं। माता, पिता से जो ज्ञान मिलता है वह महत्वपूर्ण होता है परन्तु उतने ज्ञान से मनुष्य का समग्र जीवन नहीं चलता। उसे भाषा सहित अनेक विषयों का उच्च स्तरीय ज्ञान प्राप्त करना होता है जो उसे अपने विद्यालयों के आचार्यों सहित सत्यज्ञान से युक्त पुस्तक व ग्रन्थों का अध्ययन कर प्राप्त होता है। मनुष्य भाषा को सीख कर जिस विषय के ग्रन्थ का अध्ययन करता है उसको उस ग्रन्थ में वर्णित बातों का ज्ञान हो जाता है। अब यदि वह ग्रन्थ सत्य ज्ञान-विज्ञान की बातों से युक्त होता है तो उसकी आत्मा, मन व बुद्धि की उन्नति होती है। यदि उसके द्वारा पढी पुस्तकों में ज्ञान की न्यूनता, अल्पता या ज्ञान विरुद्ध अंधविश्वासों से युक्त बातें होंगी तो उस अध्ययन करने वाले मनुष्य का ज्ञान भी उस पुस्तक के समान आधा, अधूरा, विपरीत व अलाभकारी हो सकता है।
मनुष्य के लिये अपनी आत्मा व इस संसार को बनाने व चलाने वाली शक्ति को जानना आवश्यक है। आत्मा और परमात्मा का पूरा ज्ञान न तो माता, पिता आदि कराते हैं और न ही यह ज्ञान विद्यालयों में अध्यापक-अध्यापिकाओं व आचार्यों द्वारा ही दिया जाता है। इस कारण से संसार में अज्ञान व अन्धविश्वास फैलें हैं। इनका निवारण सत्य ज्ञान-विज्ञान से युक्त, आत्मा व परमात्मा का सत्य ज्ञान प्रदान करने वाली पुस्तकों का अध्ययन करने से होता है। हमें ज्ञात होना चाहिये कि ऐसी पुस्तकें कौन सी हैं जिनमें ईश्वर व जीवात्मा सहित इस सृष्टि व मनुष्य के सभी कर्तव्य व अकर्तव्यों का सत्य, यथार्थ, लाभकारी, अज्ञान व अन्धविश्वासों से सर्वथा रहित ज्ञान उपलब्ध है। ऐसी पुस्तकों में शीर्ष स्थान पर ईश्वर प्रदत्त ज्ञान चार वेद की संहितायें वा पुस्तकें आती हैं। इन वेदों को इनके प्रमाणिक मन्त्रार्थों व भावार्थों का अध्ययन कर ही जाना जा सकता है। अनुभव की बात है कि वेदों पर प्रामाणिक भाष्य ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी आर्य व वैदिक विद्वानों का ही प्राप्त होता है। वेदों पर सत्य वेदार्थ के विपरीत अनेक पुस्तकें व व्याख्यायें भी प्रचारित हैं। ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ एवं समाधि सिद्ध संन्यासी एवं विद्वान थे। उन्होंने चार वेदों पर अपने भूमिका ग्रन्थ ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में अपने पूर्ववर्ती सायण, महीधर आदि वेदभाष्यकारों के भाष्यों में वेदार्थ में न्यूनताओं, त्रुटियों, कमियों व उनके मिथ्या अर्थों पर प्रकाश डाला है। ऐसे भाष्य पढ़कर मनुष्य का आत्मा ज्ञानयुक्त व निभ्र्रान्त नहीं होता अपितु इससे अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न होते हैं।
ऋषि दयानन्द ने वेदों का जो भाष्य किया है वह प्राचीन ऋषि परम्परा, अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति सहित तर्क एवं युक्तियों से युक्त है। उनके भाष्य में असम्भव, अविश्वसनीय बातें तथा काल्पनिक कहानी किस्से उपलब्ध नहीं होते। उन्होंने वेद मन्त्रों के सभी पदों के अर्थ प्राचीन वेदार्थ परम्परा निरुक्त-निघण्टु व धातुकोष आदि के आधार पर दिये हैं। अतः ऋषि दयानन्द का भाष्य ही स्वाध्याय हेतु उत्तम है। इसका महत्व इसका अध्ययन कर ही जाना जा सकता है और इसके साथ अन्य विद्वानों के किये हुए वेदार्थ को देखकर तुलना कर किसका उचित व किसका अनुचित व कम महत्वपूर्ण है, इसका ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है। अतः ईश्वर, आत्मा तथा सृष्टि सहित मनुष्य को अपने सभी कर्तव्य व अकर्तव्यों के ज्ञान तथा विविध विषयों के ज्ञान के लिये ऋषि व वैदिक विद्वानों के वेदभाष्यों का आश्रय लेकर उनका प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य की सम्पूर्ण अविद्या दूर होकर विद्या का प्रकाश होता है और वह ईश्वर के सत्यस्वरूप, उसके गुण, कर्म व स्वभाव के प्रति निःशंक व निर्भरान्त हो जाता है।
वेद से इतर कुछ अन्य ग्रन्थ भी हैं जिसमें हमें वेद विषयक सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों में11 उपनिषद, 6 दर्शन, शुद्ध मनुस्मृति सहित ऋषि दयानन्द लिखित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थों का स्थान है। इन्हें पढ़कर भी मनुष्य को वेदों के सत्य तात्पर्य व ईश्वर व आत्मा आदि विषयों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। अतः सभी को इन ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपने ज्ञान को पढ़ाना चाहिये। ऐसा करके ही हमारी आत्मा सहित आत्मा के सहयोगी मन, बुद्धि आदि करणों की उन्नति होती है और मनुष्य अविद्या व अन्धविश्वासों से छूटता तथा ज्ञान को प्राप्त होकर भ्रान्तियों से रहित होता है। ऐसा ही देश व समाज के सभी मनुष्यों को होना चाहिये। ऐसे लोगों से ही देश व समाज की वास्तविक उन्नति होती है। सत्य व यथार्थ धर्म व संस्कृति उन्नति को प्राप्त होकर संसार में सुख बढ़ता है तथा मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य सुख व मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हैं। वेदाध्ययन से मनुष्य के लिये प्राप्तव्य धर्माचरण, अर्थ प्राप्ति व संचय सहित कामनाओं का शुद्ध होना व उन्हें प्राप्त करना तथा जीवन की समाप्ति पर मोक्ष को प्राप्त होना होता है। इन लक्ष्यों को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के नाम से जाना जाता है। इन्हें जानकर, इनका आचरण कर व प्राप्त कर ही मनुष्य का जीवन सफल होता है।
स्वाध्याय करने के सम्बन्ध में योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि ने भी बल दिया है। स्वाध्याय को पांच नियमों में सम्मिलित किया गया है। यह नियम हैं शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान। इन नियमों का सेवन करना योग सिद्धि व समाधि को प्राप्त करने के लिये आवश्यक होता है। समाधि में ही मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार होता है। शौच, सन्तोष तथा तप तो हम अपने माता, पिता व आचार्यों से सीख सकते हैं परन्तु स्वाध्याय तो हमें स्वाध्याय योग्य सत्य ग्रन्थों का संग्रह कर उसे नियमित रूप से करने से होता है। स्वाध्याय भी एक तप है। स्वाध्याय रूपी तप से स्वर्ग प्राप्ति होना कहा जाता है। जिन लोगों ने इस तप को किया है वह लोग जीवन में ऊपर उठे हैं। ऋषि दयानन्द के जीवन का हम जब अध्ययन करते हैं तो उसमें उनकी सफलता व सिद्धि का प्रमुख कारण उनका सत्यान्वेषण के लिये किया गया तप तथा प्राप्त ग्रन्थों का अध्ययन व उनके सत्यासत्य की परीक्षा कर सत्य का ग्रहण करने सहित अपने अधिकांश समय को ईश्वर के ध्यान, चिन्तन व समाधि में लगाना ही प्रतीत होता है। हमारे सभी महापुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा योगेश्वर कृष्ण सहित आचार्य चाणक्य आदि भी वेदाध्ययन सहित ईश्वर का ध्यान व चिन्तन करते थे। ऋषियों का सेवन, दर्शन व उनकी संगति करते थे और उनसे सत्योपदेश ग्रहण कर उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे। ऐसा करके ही वह महान बने थे। यदि उन्होंने वेदाध्ययन व स्वाध्याय न किया होता तो जो यश व कीर्ति उन्होंने अर्जित की है, सम्भवतः वह उन्हें प्राप्त न हुई होती। आधुनिक काल में भी हम स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. जयदेव विद्यालंकार, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी, प. तुलसीराम स्वामी, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार, महात्मा नारायण स्वामी, पं0 गंगा प्रसाद उपाध्याय, पं. चमूपति, पं. गणपति शर्मा आदि को देखते हैं जिन्होंने गहन स्वाध्याय किया और उससे प्रेरणा प्राप्त कर वेदभाष्य व समाज सुधार के महान कार्य किये। यह सभी विद्वान शास्त्रीय ज्ञान से सम्पन्न थे। इनको यह यश व लाभ स्वाध्याय व वैदिक साहित्य के अध्ययन से ही प्राप्त हुआ था। अतः अपने महापुरुषों का अध्ययन कर हमें शास्त्रीय आज्ञा के अनुसार प्रतिदिन प्रातः व सायं पर्याप्त अवधि तक स्वाध्याय व अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके हम अपने जीवन में अपने ज्ञान को सामान्य से कहीं अधिक बढ़ा सकते हैं और ज्ञान प्राप्ति से होने वाले सुख लाभ सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को भी कर सकते हैं।
स्वाध्याय करने से मनुष्य का ज्ञान तो बढ़ता ही है इस ज्ञान का लाभ हम अपने शरीर की उन्नति अर्थात् शरीर को स्वस्थ रखने के लिये भी करते हैं। यदि हम स्वाध्याय नहीं करेंगे तो हमें स्वास्थ्य रक्षा संबंधी बहुत से नियमों का ज्ञान नहीं होगा। स्वास्थ्य रक्षा भी एक विशद महत्वपूर्ण विषय है। इसके लिये हमें स्वास्थ्य संबंधी आयुर्वेद, चिकित्सा तथा योगासनों व प्राणायाम आदि से संबंधित ग्रन्थों का अध्ययन नियमित रूप से करना चाहिये। देश में चिकित्सा विज्ञान में होने वाले नये नये अनुसंधानों पर भी दृष्टि डालनी चाहिये। इस प्रवृत्ति व अध्ययन वृत्ति से हम अधिक स्वस्थ एवं बलवान होकर दीर्घायु को प्राप्त हो सकते हैं। स्वास्थ्य का आधार प्रातः ब्रह्ममुहुर्त में जागना, प्रथम ईश्वर का ध्यान व चिन्तन तथा ईश्वर की स्तुति के मन्त्रों का गान करना होता है। उसके बाद वायु सेवन वा भ्रमण, शौच आदि से निवृत्त होकर व्यायाम आदि करके ईश्वर की उपासना व देवयज्ञ करना भी जीवन में आवश्यक कर्तव्यों में सम्मिलित हैं। हमें स्वास्थ्य के लिए हितकर व अल्प मात्रा में भोजन करना होता है। हमारा भोजन पूर्णतया शाकाहारी होना चाहिये। शाकाहार दीर्घ एवं स्वस्थ जीवन का आधार होता है। शाकाहार करन पुण्य एवं मांसाहार पाप कर्म होता है। सायंकाल के समय भी मनुष्य को आसन व प्राणायाम सहित देवयज्ञ, सन्ध्या व स्वाध्याय आदि करना चाहिये। इसके साथ अपने सभी व्यवसायिक एवं गृहस्थ के कार्यों को भी करना चाहिये। जीवन में सन्तुलन बनाकर सभी कायों को ज्ञान व विवेक पूर्वक करने से मनुष्य को होने वाले दुःखों की मात्रा में कमी आकर सुखों में वृद्धि होती है।
स्वाध्याय हेतु आजकल सभी उपयोगी विषयों के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। जब हम स्वाध्याय की आदत डालेंगे तो हम छेाटे ग्रन्थों को कुछ घंटों में तथा वृहद ग्रन्थों को कुछ दिनों व महीनों में समाप्त कर लेंगे। इससे हमारा ज्ञान निरन्तर बढ़ेगा और हम कुछ वर्षों में अपने ज्ञान को पर्याप्त मात्रा में बढ़ाकर आत्म सन्तोष सहित समाज में भी प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त कर सकते हैं। अतः हमें अपने जीवन में स्वाध्याय पर मुख्य रूप से ध्यान देना चाहिये और स्वाध्याय से जो बातें स्वयं को स्वस्थ एवं सुखी रखने के लिये आवश्यक व हितकारी हों, उन उचित बातों का सेवन करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य