वेद को विश्व ने सर्वमान्य आधार पर सबसे प्राचीनतम ग्रंथ एवं ज्ञान विज्ञान का आदि स्रोत के रूप में स्वीकार किया है और वास्तव में यह ऋत् सत्य है, क्योंकि संसार में जितने भी अन्य पन्थों के ग्रंथ है उनमें कुछ प्रसंग वेद से मिलते भी हैं, कुछ बातें धर्म संस्कृति की भी मिलती हैं। परंतु यह भी ऋत् सत्य है कि कुरान, बाईबिल, अवेस्ता, ईंजील आदि अनेकानेक और भी पुस्तकों को देखने पर पता लगता है कि उनमें किसी भी प्रकार का विज्ञान संबंधी लेख नहीं मिलता है जैसा कि बीज रूप में ज्ञान विज्ञान की सब बातें वेद में उल्लेखित है यथा पदार्थ विद्या, रसायन, खगोल, भूगर्भ, वायुयान निर्माण ,अंतरिक्ष, अग्नि , सूर्य , जल , चिकित्सा, पर्यावरण, यांत्रिकी , तकनीकी आदि समस्त विद्याओं का भंडार वेद में अभिमंत्रित है।
इसी आधार पर नव वर्ष के प्रसंग में भी उल्लेख मिलता है कि सृष्टि का उद्भव चैत्र शुक्ल प्रतिपदा शुभवासरे रविवार है। धार्मिक अनुष्ठान कराने वाले पुरोहित भी चाहे वह पौराणिक हो या सनातनी आर्य समाजी हो या अन्य सभी सृष्टि के प्रथम दिन से आज तक मौखिक रूप से अपनी वाणी द्वारा संकल्प पाठ उच्चारित करते आ रहे हैं। इसी श्रृंखला में सृष्टि संवत एक अरब सतानवें करोड़ उनतीस लाख उनपचास हजार एक सौ बाईस वर्ष ३ अप्रैल २०२१ को पूर्ण होने जा रहे हैं
२
यदि एक अरब छियानवें करोड़……… पर भी सहमत हो तब भी सभी विद्वान चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ही नववर्ष स्वीकारते हैं। विक्रम संवत भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही प्रारंभ है। मानें भी क्यों नहीं, सब कुछ नयापन इस मधुमास में ही दिखाई देता है। सृष्टि में एक विशेष उल्लास त्यौहार में बदल जाता है। नयी कोंपलें, नयी पत्तियां, पुष्पित कलियां फल फूल आने लगते हैं। वासंती नवसंस्येष्टि पर्व पर रवि की फसल भी लहलाती हुई पक कर धरतीपुत्र किसान के साथ सभी को प्रसन्न करती है। इसीलिए इस मास को यजुर्वेद में मधुमास कहा जाता है यथा- मधुवे स्वाहा माधवाय स्वाहा शुक्राय स्वाहा शुचसे स्वाहा,नभसे स्वाहा नभस्याय स्वाहेशाय स्वाहोर्जाय स्वाहा सहसे स्वाहा सहस्याय स्वाहा तपसे स्वाहा तपस्याय स्वाहा अंहसस्पतये स्वाहा। यहां मधु,माधव (चैत्र,बैसाख), शुक्र, शुची (ज्येष्ठ, आषाढ़), नभ, नभस्य (श्रावण, भाद्रपद), इष, ऊर्ज (अश्विन, कार्तिक), सहस, सहस्य (मार्गशीष,पौष), तप, तपस्य (माघ, फाल्गुन) को इंगित करते हैं।
३:-
गीता के अध्याय ८ श्लोक २४ में उत्तरायण के छ: महीनों को अग्नि या ज्योति प्रधान अवधि के रूप में कहा गया है जो कि उत्तरायण की अति वैज्ञानिक और खगोलीय परिभाषा बनती है। उत्तरायण में प्रकाश की क्रमागत वृद्धि उसको अग्नि या ज्योति प्रधान बनाती है अस्तु, किसी को भी योगीराज श्रीकृष्ण की इस वाणी में शङ्का नहीं रहनी चाहिए कि उत्तरायण तपस् (माघ) सङ्क्रान्ति से शुरू होकर कर्क सङ्क्रान्ति से पूर्व तक की अवधि का नाम है।
गुरुवर महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने शिशिर ऋतु के सन्दर्भ मन्त्र यजुर्वेद १५/५७ पर व्याख्या देते हुए शिशिर ऋतु के २ महीनों के रूप में तपस् और तपस्य (माघ व फाल्गुन) को स्पष्ट किया है। इसी प्रकार से हेमन्त ऋतु के २ महीनों को सहस्- सहस्य (अगहन और पौष) स्पष्ट किया है।
सूर्य सिद्धान्त मानाध्याय के श्लोक ९ (भानोर्मकरसङ्क्रान्ते:षण्मासा उत्तरायणम् ……) में माघ मास से क्रमश: ६ महीनों को उत्तरायण और श्रावण मास से क्रमश: ६ महीनों को महीनों को दक्षिणायन कहा गया है। और
विष्णु पुराण अध्याय ८ अंश २ श्लोक ६८ ‘……..उत्तरायणमप्युक्तं मकरस्थे दिवाकरे’ और श्लोक ८१ तपस्तपस्यौ मधु माधवौ च शुक्र: शुचिश्चाचयनमुत्तरं स्यात्।….. के साथ तपस् और तपस्यादि छह महीनों को ही उत्तरायण के महीने कहा गया है।
और यही सब कहा गया है वेदाङ्ग ज्योतिष श्लोक ६ और पञ्चसिद्धान्तिका अध्याय ३ में।
४:-
जिस नववर्ष की बात पिछले 1857 की क्रांति के बाद स्वीकार करने लगे हैं उससे पूर्व तक हमारे यहां सब कार्य सृष्टि संवत, विक्रम संवत से ही होते थे। यह नववर्ष तो हमने कभी भी स्वीकार नहीं किया। हां यह अवश्य है कि जिन लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत की चाटुकारिता की और आज भी कर रहे हैं वे ही झूठी शान शौकत में एक जनवरी को नववर्ष स्वीकारते हैं। उन्हें अपने धर्म ग्रंथ वेद एवं इतिहास की कोई निकष परख नहीं है, वही इस घुड़दौड़ में गधों की तरह पीछे पीछे चलते हुए बड़प्पन मान रहे हैं। नव वर्ष का संबंध ऋतु परिवर्तन एवं नूतनता से है।
देश में स्वराज्य की मांग जोर पकड़ रही थी अंग्रेज भी भयभीत थे। सन् १९३० में भारतवर्ष में प्रत्येक सामाजिक और धार्मिक संगठन को नववर्ष मनाने का अंग्रेजो ने आदेश पारित किया साथ ही धमकी दी गई कि जो संस्था यह नववर्ष नहीं मनाएगी उसके सदस्यों को जेल में भेज दिया जाएगा। गाजियाबाद में और अन्य स्थानों पर भी नया साल सभी संगठनों ने मनाया। लेकिन आर्य समाज ने न केवल अंग्रेजों के नववर्ष का बहिष्कार किया वरन् आजादी की मांग करते हुए एक स्वतंत्रता ज्योति भी आर्य समाज ने निकाली।
५:-
उसका दंड सभी आर्य समाजियों को ६-६ महीने की सख्त सजा और पचास पचास रुपये जुर्माने के रूप में प्रत्येक आर्य समाजी को भुगतना पड़ा। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि सन् १९२९-१९३० की वैश्विक महामंदी में एक रुपये का पचास- साठ सेर (किलो) अनाज बिकता था। अर्थशास्त्र की परास्नातक कक्षाओं में आज भी पढ़ाया जाता है।
यहां चित्र संलग्न करना है।
उक्त चित्र में अंतिम पंक्ति में पांचवें नंबर पर आर्य समाज का एक मामूली कार्यकर्ता अंग्रेजों के नववर्ष का बहिष्कार करने वाला व्यक्ति किसानों का देवदूत, धरतीपुत्र सत्यनिष्ठ चौ॰ चरण सिंह इस राष्ट्र का प्रधानमंत्री बना। वह लिखते हैं कि मैंने कभी दैनिक संध्या , हवन नहीं छोड़ा। गांव, कस्बे यहां तक कि विदेश यात्रा पर भी हवन कुंड साथ लेकर जाता हूं। यह तो नया साल अंग्रेजों के द्वारा थोपा गया है आज इसके बहिष्कार की और अधिक महती आवश्यकता है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की भी पंक्ति प्रेरणास्पद है -“यह नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं है अपना त्यौहार नहीं……।”
तब चैत्र शुक्ल की प्रतिपदाको नववर्ष मनाया जाएगा ।आर्यावर्त की पुण्य भूमि परजब जय गान सुनाया जाएगा।
युवित्त प्रमाण से स्वयं सिद्धनववर्ष हमारा हो प्रसिद्ध।
आर्यों की कीर्ति सदा सदानववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।।
६:-
ऐसा एक कवि या लेखक साहित्यकार का विचार नहीं है राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, ऋतु कवि सेनापति (कबीर के समकालीन), आचार्य चतुरसेन, पंत, निराला आदि अनेकानेक विद्वानों ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही प्रमाणिक माना है।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने मनुस्मृति, सत्यार्थ प्रकाश एवं ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में सृष्टि संवत को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ही नव वर्ष के रूप में स्वीकार किया है।
लोकाचार में भी संकल्प पाठ ओउ्म् तत्सत् श्री ब्राह्मणों द्वितीय पराद्धे श्री श्वेतवाराह कल्पे वैवस्वत मन्वंतरे आष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे।एक वृन्द: ………………….. सूर्य उत्तरायणे……..विक्रमाब्दे वसंततौ मासानां मासान्तम् मधु मासे चैत्र शुक्ल प्रतिपदा………. जम्बू दीपे भारतवर्ष भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गते पुण्य भूमौ प्रतिदिन अनवरत उच्चारित हो रहा है। इससे अधिक और क्या प्रमाणिक हो सकता है?
जो लोग जनवरी को नयावर्ष मानकर प्रमाणिकता देते हैं उन्हें इस प्रमाणिकता का कोई बोध नहीं है। क्योंकि ब्रिटेन में ८६८ ई॰ से पूर्व कोई भी विद्यालय नहीं था पर प्रथम विद्यालय ८६८ ई॰ में खुला। उस समय भारतवर्ष में ७ लाख ३२ हजार गुरुकुल महाविद्यालय एवं तक्षशिला ,नालंदा , विक्रमशिला जैसे अनेकानेक विश्वविद्यालय स्थापित थे। एक-एक विश्वविद्यालय में तत्कालीन विद्यार्थियों की संख्या १० से १५ हजार होती थी। महर्षि चाणक्य के समय भी तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय में विदेशों के छात्र पढ़ने के लिए और शोध करने के लिए आते थे। हमसे प्राचीनतम ज्ञान-विज्ञान किसी के पास नहीं था।
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हां यह अवश्य है कि अंग्रेजों के दो फरिश्ते जुलियस सीजर और आगस्टा से पूर्व वर्ष में १० माह होते थे इसका प्रमाण है कि अंग्रेजी भाषा में सितंबर सातवां अक्टूबर आठवां नवंबर नवां और दिसंबर दसवां बोला जाता है।Septa,Octa,Novem,Decem के उक्त ही अर्थ हैं। जूलियस एवं आगस्टा समकालीन गणितज्ञों ने एक वर्ष में बारह मास स्वीकार किए हैं। जुगाड़ विधि से एक मास दिन का और एक माह इकत्तीस दिन का लिया है। जब अगस्त के माह को तीस दिन का किया जा रहा था तो आगस्टा ने कहां कि “आई एम नॉट जूनियर देन जूलियस”। इसी श्रृंखला में जुलाई-अगस्त माह 31 दिन के घोषित किए गए और फरवरी माह को इसी जुगत में अट्ठाइस उनतीस दिन का करना पड़ा।
और एक अद्भुत दृश्य से आपको विशेष जानकारी होगी जैसे अबकी बार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ०४ अप्रैल से प्रारंभ हुई तो इसी प्रकार कभी पूर्व समय में १५० वर्ष पहले हमारे यहां नव वर्ष का पर्व बड़े हर्षोल्लास से ढोल गाजेबाजे के साथ मनाया जा रहा था तब इन्हीं अंग्रेजों ने ०१ अप्रैल नववर्ष को फूल डे कहा और इन्हीं पाश्चात्यकरण में आज भारत में भी फूल डे मनाने की
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होड़ लगी है। चूंकि ये लोग एक जनवरी को नया वर्ष मनाते हैं जबकि एक जनवरी को कुछ भी नया नहीं है। यदि एक जनवरी का भारत वर्ष में महत्व है तो औरंगजेब के दांत खट्टे करने वाला वीर शिरोमणि लोह पुरुष वीर गोकुला का बलिदान दिवस है जिसके शरीर के इक्कीस टुकड़े कर दिए गए और परन्तु औरंगजेब की अधीनता स्वीकार नहीं की और न ही धर्म परिवर्तन किया। नववर्ष को पुराणों में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही प्रारम्भ माना गया है। सूर्य सिद्धांत में भी वसंतोत्सव मधुमास में माना है। कालगणना में वसंत प्रथम ऋतु है। ” वसन्तौ वै प्रथम ऋतुना,ग्रीष्मो द्वितीया, वर्षा: तृतीयाश: , शरच् चतुर्थो, हेमन्त: पञचमश,शिशिरष् षष्ठ:”श्री मोहन कृत आर्ष पत्रकम् से [जै ॰मि॰ सामवेद ब्रा्॰] २.३४५
मार्च का अंतिम सप्ताह और अप्रैल के प्रथम सप्ताह के मध्य ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा नववर्ष के रूप में आती है। संस्कृत एवं आर्यभाषा में मार्च का अर्थ ही गमन करना है अर्थात्
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आगे बढ़ना है। सरकारें भी अपनी सेना का मार्च पास्ट करा रिहर्सल कराती हैं जिससे वे भी राष्ट्र रक्षा में गमन कर अनुशासित रहें और अनुशासित रखें। आइए हम और आप मिलकर आने वाले नववर्ष का वंदन अभिनंदन कर नमन करें। जिससे धर्म और संस्कृति की रक्षा के साथ साथ ज्ञान विज्ञान की रक्षा की जा सके।
“विज्ञान ही तो इस दुनिया में , कुछ चमत्कार लाई है।वेदों की ओर लौट चलो ,विज्ञान वेदों की परछाई है।।”
शुभेच्छु
गजेंद्र आर्य
राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता
जलालपुर अनूप शहर
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