भारत में वामपंथी आंदोलन को शुरू से ही देखा गया है शक की नजरों से
राकेश सैन
केंद्र सरकार के तीनों नए कृषि सुधार कानून किसानों को बंधे-बंधाए तौर-तरीकों से आजाद कर वैश्विक पटल पर ले जाने वाले हैं। लेकिन किसान आंदोलन में सक्रिय वामपंथी नेता सच्चाई समझने की बजाए ‘माई वे या हाईवे’ का सिद्धांत अपनाए हुए हैं।
दिल्ली की सीमा पर धरना दे रहे पंजाब-हरियाणा के किसान जो ‘माई वे या हाईवे’ सिद्धांत अपनाए हुए हैं वह कुछ ऐसी ही जिद्द है जो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को हार कर भी पराजय न मानने और भारत के विपक्ष को हर चुनावी पटकनी के बाद ईवीएम पर संदेह जताने को विवश करती है। धरनाकारी किसान इस जिद्द पर अड़े हैं कि केंद्र सरकार अपने तीन कृषि सुधार कानूनों को वापिस ले अन्यथा उनका धरना चलता रहेगा। आंदोलनकारी किसान सरकार को दो ही विकल्प दे रहे हैं, या तो उनका रास्ता अपनाया जाए अन्यथा वे रास्ता बंद किए रहेंगे। ‘माई वे या हाईवे’ का जिद्दी सिद्धांत न तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में है और न ही देश के। कल को कोई भी संगठन अपनी उचित-अनुचित मांग को ले ‘हाईवे’ रोक कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को ‘माई वे’ पर चलने को विवश कर सकता है। किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए उसका सत्यनिष्ठ होना, लक्ष्य जनहित व साधन नैतिक होने आवश्यक हैं परंतु मौजूदा किसान आंदोलन में इनका अभाव दिख रहा है।
समय बीतने के साथ-साथ देश के सामने साफ होता जा रहा है कि किसानों के नाम पर धरना दे रहे अधिकतर लोग कौन हैं। इनकी असली मंशा क्या है और यही कारण है कि किसान आंदोलन को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। देश में घटित घटनाक्रमों को श्रृंखलाबद्ध जोड़ा जाए तो एक भयावह तस्वीर सामने आती है। विगत माह 12 दिसम्बर को कर्नाटक के कोलार में विस्ट्रान के प्लाट में हुई तोड़फोड़ ने पूरे देश को झिंझोड़ कर रख दिया। ताईवान की कंपनी विस्ट्रान भारत में ‘एपल’ के उत्पाद बनाती है। तोड़फोड़ को पहले तो कर्मचारियों व कंपनी के बीच विवाद के रूप में प्रचारित किया गया लेकिन ये घटना कई मायनों में अलग थी। विरोध प्रदर्शन में कंपनी के अतिरिक्त बाहर के लोग भी शामिल हो गए। प्रदर्शनकारियों ने प्लांट की मशीनरी को नुक्सान पहुंचाया और फोन भी लूट लिए। इस घटना के बाद न केवल विस्ट्रान का उत्पादन रुका बल्कि विस्ट्रान व एपल की समझौता भी खटाई में पड़ता नजर आने लगा है। पुलिस जांच में इसके पीछे वामपंथी संगठन इंडियन ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) और वामपंथियों के छात्र संघ स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया (एसएफआई) के नाम सामने आ रहे हैं। देशवासियों को याद होगा कि वामपंथी इससे कई साल पहले जापानी कंपनी मारुती सुजूकी व होंडा कंपनी में भी हिंसा करवा चुके हैं क्योंकि जापान चीन का जबरदस्त प्रतिद्वंद्वी माना जाता है। यूपीए सरकार के कार्यकाल में वामपंथियों द्वारा पतंजलि के खिलाफ झूठ-फरेब के आधार पर खोला गया मोर्चा भी किसी को भूला नहीं है जो आज स्वदेशी उत्पाद की अग्रणी कंपनी बन कर सामने आई है।
भारतीय वामपंथियों की गतिविधियां इसके जन्म से ही संदिग्ध रही हैं। संदेह को उस समय बल मिलता है जब चीन का सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ विस्ट्रान हिंसा की खबर को प्रमुखता से न केवल प्रकाशित करता है बल्कि यह संदेश देने का भी प्रयास करता है कि भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियां सुरक्षित नहीं हैं। कोरोना के चलते बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन छोड़ने और भारत आने को बेताब हैं। विस्ट्रान का उदाहरण देकर चीनी अखबार की चीफ रिपोर्टर चिंगचिंग चेन फॉक्सान कंपनी का मजाक उड़ाती है जो अपनी आईफोन कंपनी चीन से भारत ले आई है।
बात करते हैं किसान आंदोलन की तो सभी जानते हैं कि भारत में कृषि क्षेत्र की उत्पादकता दुनिया की तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले कहीं पीछे है। अधिकांश किसानों की गरीबी का यह सबसे बड़ा कारण है। यह उत्पादकता तब तक नहीं बढ़ने वाली जब तक कृषि के आधुनिकीकरण के कदम नहीं उठाए जाएंगे। यह काम सरकार अकेले नहीं कर सकती है। इसमें निजी क्षेत्र का सहयोग आवश्यक है। निजी क्षेत्र अगर कृषि में निवेश के लिए आगे आएगा तो इसके लिए कानूनों की आवश्यकता तो होगी ही। जो लोग इस मामले में किसानों को बरगलाने का काम कर रहे हैं वे वही वामपंथी हैं जो भारत में अस्थिरता का माहौल बनाने के प्रयास में दिखते हैं। यह वह सोच है जो सब कुछ सरकार से चाहने-मांगने पर भरोसा करती है। सच्चाई यह है कि जो देश विकास की होड़ में आगे हैं उन सभी ने मुक्त बाजार की अवधारणा पर ही आगे बढ़कर कामयाबी हासिल की है। देश के किसानों को भी आगे आकर मुक्त बाजार की अवधारणा को अपनाना चाहिए।
तीनों नए कृषि सुधार कानून किसानों को बंधे-बंधाए तौर-तरीकों से आजाद कर वैश्विक पटल पर ले जाने वाले हैं। इनके विरोध का मतलब है सुधार और विकास के अवसर खुद ही बंद कर लेना लेकिन किसान आंदोलन में सक्रिय वामपंथी नेता सच्चाई समझने की बजाए ‘माई वे या हाईवे’ का सिद्धांत अपनाए हुए हैं। शुरू-शुरू में इस आंदोलन में छिपी ताकतें भूमिगत थीं परंतु अब सामने आने लगी हैं। 10 जनवरी को करनाल में हरियाणा के मुख्यमंत्री के कार्यक्रम से पहले किसान प्रदर्शनकारियों द्वारा की गई हरकत के बाद इस आंदोलन को शांतिपूर्ण कहना भी मुश्किल हो गया। आखिर धरने पर बैठे मुट्ठी भर किसान किस आधार पर कह सकते हैं कि वे पूरे देश के करोड़ों किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं? आखिर पूरा जोर लगाने के बाद भी देश के बाकी हिस्सों का किसान आंदोलनकारियों के साथ क्यों नहीं आ रहा है? अब तो समाचार मिलने लगे हैं कि आंदोलन में किसानों की संख्या बनाए रखना किसान नेताओं के लिए चुनौतीपूर्ण बनने लगा है। किसानों को मोर्चे पर बैठाए रखने के लिए तरह-तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं। किसान नेता राकेश टिकैत साफ शब्दों में कहते हैं कि वे मई 2024 तक यहां बैठने को तैयार हैं। आंदोलनकारी साफ-साफ केंद्र में मोदी व हरियाणा की भाजपा सरकार गिराने की बात कर रहे हैं और वहां पर भाजपा की सहयोगी जजपा को समर्थन वापिस लेने के लिए उकसाते रहे हैं। केवल इतना ही नहीं किसानों व सरकार के बीच मध्यस्थता का प्रयास कर रहे नानकसर संप्रदाय के बाबा लक्खा सिंह पर वामपंथी नेता राशन पानी लेकर चढ़ चुके हैं।
किसान आंदोलन की फीकी पड़ती चमक का एक और उदाहरण है कथित किसान नेता योगेंद्र यादव का वह ट्वीट। जिसमें उन्होंने शिकवा किया है कि हरियाणा के किसान आंदोलन में पूरे मन से हिस्सा नहीं ले रहे। किसान अब कहने लगे हैं कि जब सरकार कृषि सुधार कानून में आंदोलनकारियों की मांग के अनुसार चर्चा व संशोधन करने को तैयार है तो ‘माई वे या हाईवे’ की जिद्द का औचित्य क्या है ? किसानों को लगने लगा है कि उनके नेता या तो अपने अहं की तुष्टि के लिए या फिर किसी और के इशारे पर ‘मैं ना मानूं-मैं ना मानूं’ की माला फेर रहे हैं। अमेरिका के व्हाइट हाऊस में ट्रंप समर्थकों के हमले की घटना के बाद ‘लोकतंत्र बनाम भीड़तंत्र’ पर चर्चा हो रही है। भीड़तंत्र की तानाशाही अमेरिका में औचित्यपूर्ण नहीं कही जा सकती तो यह भारत में भी स्वीकार्य नहीं है, चाहे यह किसान आंदोलन के रूप में ही क्यों न हो।