भारत में धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा भी चलाए जा रहे हैं कई अस्पताल, इन्हें दिया जाना चाहिए प्रोत्साहन
भारत में रोटी, कपड़ा और मकान को मूलभूत आवश्यकताओं की श्रेणी में गिना जाता है। परंतु, कोरोना वायरस महामारी के बाद की स्थितियों को देखते हुए अब यह कहा जा सकता है कि रोटी, कपड़ा और मकान के साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं को भी अब इसी श्रेणी में गिना जाना चाहिए। अब समय आ गया है कि देश के हर नागरिक को रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य सुविधायें एवं शिक्षा सुविधाओं का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिए। संविधान में यूं तो देश के नागरिकों को मुफ़्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाली गई है, परंतु इस कार्य के सम्बंध में कई राज्य सरकारों पर लगातार दबाव बना रहा है एवं सरकारी अस्पतालों में अच्छी चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध न करा पाने के कारण देश में निजी क्षेत्र में चिकित्सालय फल फूल रहे हैं एवं निजी चिकित्सालय आम नागरिकों को बहुत ही महंगी दरों पर चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध करा रहे हैं। कई बार तो मध्यम वर्गीय नागरिक भी निजी चिकित्सालयों में अपना इलाज कराने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है।
वास्तव में तो देश में तीन स्तरों पर चिकिस्ता सुविधायें उपलब्ध कराई जा रही हैं। एक तो सरकारी अस्पतालों में, दूसरे निजी अस्पतालों में एवं तीसरे धार्मिक अथवा सामाजिक संस्थाओं द्वारा संचालित किए जा रहे अस्पतालों में। परंतु, सामान्यतः धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा संचालित किए जा रहे अस्पतालों के योगदान को तो भुला ही दिया जाता है एवं स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के मामले में ज़िक्र केवल सरकारी एवं निजी अस्पतालों के योगदान का ही किया जाता है।
अभी हाल ही में कोरोना महामारी के दौरान यह पाया गया कि निजी क्षेत्र के अस्पतालों में इलाज कराने में प्रति मरीज़ लगभग एक लाख रुपए का ख़र्च हुआ है। दिल्ली के कई निजी क्षेत्र के बड़े अस्पतालों में तो प्रति मरीज़ 5 से 6 लाख रुपए तक का ख़र्च हुआ है। मध्यमवर्गीय परिवार के लिए 5 से 6 लाख रुपए की व्यवस्था करना बहुत ही कठिन कार्य है, दुर्भाग्यवश देश के मध्यमवर्गीय नागरिकों द्वारा स्वास्थ्य बीमा भी बहुत ही कम स्तर पर कराया गया है। इस प्रकार कई मध्यमवर्गीय परिवार तो अपनी बीमारी पर किए गए भारी ख़र्च के चलते ग़रीबी रेखा के नीचे की श्रेणी में पहुंच गए हैं।
भारत में वैसे तो व्यापक स्वास्थ्य सेवा मॉडल लागू है जिसे राज्य सरकारों द्वारा संचालित किया जाता है। इस मॉडल के अंतर्गत प्रत्येक भारतीय नागरिक को मुफ़्त चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध कराये जाने की व्यवस्था है। इस योजना को मुख्यतः सरकारी अस्पतालों के माध्यम से लागू किया जाता है। परंतु सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं की कमी के चलते देश के नागरिकों का एक बड़ा वर्ग इन अस्पतालों में अपनी चिकित्सा नहीं करा पाता है एवं निजी अस्पतालों की ओर आकर्षित होने लगता है। निजी चिकित्सालय इसका फ़ायदा उठाकर भारी मात्रा में चिकित्सा शुल्क इन नागरिकों से वसूल करते हैं। इस प्रकार, देश में निजी चिकित्सालय ही अधिकतर शहरों में नागरिकों को चिकित्सा सुविधा प्रदान करने का एक मुख्य माध्यम बन गए हैं। सरकारी अस्पतालों में तो केवल ग़रीब लोग ही इलाज कराने के लिए पहुंच रहे हैं, जो निजी क्षेत्र के अस्पतालों का भारी ख़र्च वहन नहीं कर सकते हैं। निजी चिकित्सालयों में इलाज कराने पहुंच रहे व्यक्तियों में ज़्यादातर लोग अपनी बचत का पैसा इलाज पर ख़र्च करते हैं, क्योंकि देश में स्वास्थ्य बीमा अभी बहुत ही कम नागरिकों ने कराया हुआ है।
वर्ष 2005 के बाद से देश में निजी अस्पतालों का नेट्वर्क मज़बूत होता जा रहा है एवं आज देश के कुल अस्पतालों में से 58 प्रतिशत अस्पताल, 81 प्रतिशत डॉक्टर एवं 29 प्रतिशत बिस्तर निजी क्षेत्र में ही उपलब्ध हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-3 के अनुसार, देश के शहरी क्षेत्रों में 70 प्रतिशत एवं ग्रामीण क्षेत्रों में 63 प्रतिशत परिवार अपने सदस्यों का इलाज निजी चिकित्सालयों में कराने को मजबूर हैं। एक अनुमान के अनुसार देश की केवल 17 प्रतिशत आबादी के पास ही स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध है, शेष नागरिक निजी क्षेत्र के अस्पतालों द्वारा लिए जा रहे भारी ख़र्चे का वहन स्वयं अपनी बचत में से करते हैं एवं कई नागरिक इस ख़र्चे के कारण मध्यमवर्गीय से ग़रीबी रेखा के क़रीब पहुंच जाते हैं।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों की भी कमी है। देश के कुल डाक्टरों में से 74 प्रतिशत डॉक्टर शहरों में अपनी सेवायें प्रदान कर रहे हैं। अस्पतालों की स्थापना भी तुलनात्मक रूप से शहरों में अधिक की गई है, इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाओं का अभाव है। विभिन्न बीमारियों के विशेषज्ञ डॉक्टर भी शहरों में ही उपलब्ध होते हैं, क्योंकि शहरों में ही उन्हें इस प्रकार की बीमारियों के इलाज करने हेतु अधिक मरीज़ मिलते हैं।
भारत में इतनी अधिक जनसंख्या होने के बावजूद निजी क्षेत्र में ही स्वास्थ्य सेवाएं विकसित हो रही हैं, कई परिवारों को तो अपने कुल आय का 75 प्रतिशत तक हिस्सा केवल स्वास्थ्य सेवाओं पर ही ख़र्च करना पड़ता हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के कुल ख़र्च का केवल 20 प्रतिशत हिस्सा ही सरकार की ओर से उपलब्ध कराया जाता है। सरकार की ओर से स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च किये जाने वाले ख़र्च के मामले में पूरे विश्व के 191 देशों में भारत का 184वां स्थान है। इस सबका प्रभाव ग़रीब लोगों पर अधिक पड़ता है। उन्हें यदि चिकित्सा सुविधाओं का अभाव हो और उन्हें अपनी आय में से इस मद पर ख़र्च करना पड़े तो इन लोगों पर बहुत अधिक भार बढ़ जाता है क्योंकि इससे उनकी कुल आय का बहुत बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च हो जाता है। कई लोगों को तो अपनी संपतियों को भी बेचना पड़ता है। इस प्रकार निजी क्षेत्र के अस्पतालों में भर्ती किए जाने वाले कुल मरीज़ों में से 40 प्रतिशत लोग या तो लम्बे समय के ऋण के जाल में फ़ंस जाते हैं अथवा ग़रीबी रेखा के नीचे आ जाते हैं। 23 प्रतिशत व्यक्तियों के पास तो इस प्रकार का इलाज कराने के लिए पैसे की व्यवस्था ही नहीं हो पाती है।
हालांकि अब जाकर, पिछले 6 वर्षों के दौरान, केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराए जाने के मामले में धरातल स्तर पर काफ़ी सुधार किए हैं। साथ ही, पिछले 6 वर्षों के दौरान प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों, उप केंद्रों एवं सरकारी अस्पतालों की संख्या में काफ़ी अच्छी वृद्धि दर्ज हुई है। देश के 640 जिलों में से लगभग प्रत्येक जिले में कम से कम एक ज़िला अस्पताल की स्थापना कर दी गई है। इनमें 75 से लेकर 500 बिस्तरों की व्यवस्था की गई है। इसके बाद कई बड़े शहरों में केंद्र सरकार द्वारा अखिल भारतीय चिकित्सा विज्ञान संस्थानों की स्थापना भी की गई है, जिसमें कई प्रकार की जटिल बीमारियों का इलाज किया जाता है। मेडिकल कॉलेज की स्थापना राज्य सरकारों द्वारा की जाती है और देश में इनकी संख्या नवम्बर 2020 में बढ़कर 560 हो गई है, जो वर्ष 2016 में 412 ही थी। इसी प्रकार देश में सितम्बर 2020 में डॉक्टरों की संख्या भी बढ़कर 12,55,786 हो गई है जो वर्ष 2010 में 8,27,006 ही थी।
स्वास्थ्य बीमा की सुविधाओं को भी देश के आम नागरिकों तक पहुंचाने के उद्देश्य से भारत सरकार ने एक स्वास्थ्य बीमा योजना “आयुषमान भारत” के नाम से वर्ष 2018 में प्रारम्भ की है। इस योजना के अंतर्गत देश की 40 प्रतिशत आबादी (10 करोड़ ग़रीब परिवारों के 50 करोड़ सदस्यों) को 5 लाख रुपए तक का स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराया जा रहा है। इस योजना के अंतर्गत बीमा की प्रीमियम की राशि का भुगतान केंद्र सरकार द्वारा किया जाएगा तथा इस योजना के अंतर्गत आम नागरिक किसी भी निजी अस्पताल में भी अपना इलाज करवा सकेंगे।
केंद्र सरकार एवं कुछ राज्य सरकारों द्वारा आम नागरिकों को अच्छे स्तर की स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध कराने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं, परंतु हमारे देश में धार्मिक एवं सामाजिक संस्थानों द्वारा संचालित किए जा रहे अस्पतालों द्वारा भी आम नागरिकों को लगभग मुफ़्त में ही चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध करायी जा रही हैं, इस ओर विभिन्न सरकारों एवं आमजन का ध्यान आज आकर्षित किए जाने की आवश्यकता है। देश के शहरी क्षेत्रों में तो इस प्रकार के कई अस्पताल कार्यरत हैं एवं इन अस्पतालों के कारण न केवल ग़रीब वर्ग बल्कि मध्यमवर्गीय परिवारों को भी चिकित्सा सुविधायें बहुत ही सस्ते ख़र्च पर उपलब्ध हो पा रही हैं। चूंकि इन अस्पतालों में अपनी सेवायें अर्पित करने वाले इन संस्थानों के सदस्य निस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं इसलिए यह मॉडल भी देश में बहुत ही सफलतापूर्व कार्य कर रहा है। अतः केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों को इन विशेष चिकित्सालयों को भी अब प्रोत्साहन देना चाहिए एवं इस क्षेत्र में अधिक से अधिक अस्पताल खोले जाने चाहिए। आज समय आ गया है जब धार्मिक एवं सामाजिक संस्थानों द्वारा चलाए जा रहे अस्पतालों द्वारा उपलब्ध करायी जा रही चिकित्सा सुविधाओं के सम्बंध में आंकड़े एकत्रित कर अधिकृत रूप से सरकार द्वारा जारी किए जाने चाहिए, ताकि आम जनता को भी पता चले कि ये संस्थान किस प्रकार का कार्य कर रहे हैं एवं ताकि इन आंकड़ों का उपयोग कर देश में इस सम्बंध में आगे भी अनुसंधान आसानी से किया जा सके।
लेखक भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवर्त उप-महाप्रबंधक हैं।