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ईश्वरीय प्रवाह के हवाले

– डॉ. दीपक आचार्य

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हर इंसान की अपनी कई ऎषणाएं, इच्छाएं और कल्पनाएं हुआ करती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए वह जिन्दगी भर जाने कितने रास्तों, चौराहों और गलियारों की खोजबीन करता रहता है, कितने ही मार्गों को अपनाता और छोड़ता है। कई सारे छोड़े हुए रास्तों को फिर पकड़ता और छोड़ता रहता है, कई बार भुलभुलैया में भटकता, अटकता हुआ जानें कहाँ-कहाँ परिभ्रमण करता है और जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को लेकर आगे बढ़ता हुआ अन्ततोगत्वा सब कुछ यहीं छोड़कर अचानक ऊपर चला जाता है।

इस सारी यात्रा में ऊपर जाने से पहले जो आनंद प्राप्त होना चाहिए वह बिरले लोग ही ले पाते download (1)हैं। अन्यथा कुछेक लोगों को छोड़कर सभी को मौत से भय लगता है और उनके लिए जीवन का सबसे पहला और अंतिम भय यही होता है।

इसका मूल कारण यह है कि जीवन के लक्ष्यों और संकल्पों की यात्रा आदमी को हमेशा अधूरी लगती है और उसे लगता है कि वह जो कुछ करना चाहता है वो अब तक पूरा नहीं हो पाया है और इसके लिए उसे और समय चाहिए।

अपने लक्ष्यों से दूरी और संकल्प सिद्धि में अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो पाने का मलाल इंसान को मरते दम तक बना रहता है और यही कारण है कि उसे हमेशा अधिक से अधिक जीने की तमन्ना होती है। जीने की तमन्ना का होना हर इंसान की शाश्वत आवश्यकता हो सकती है लेकिन उद्विग्नताओं के साथ मर-मर कर जीना ही वह सबसे बड़ा कारण होता है कि उसे मृत्यु से हमेशा भय लगने लगता है।

यह स्थिति सामान्य मनुष्यों के लिए आम बात है जो युगों से अपनी पूरी मौलिकता के साथ चली आ रही है। लेकिन जिन लोगों को जीवन और मृत्यु दोनों का ही आनंद पाने की इच्छा होती है वे लोग भाग्यवादी भी हो सकते हैं और पुरुषार्थी भी। अन्तर सिर्फ इतना होता है कि भाग्यवादी लोग नैराश्य से वैराग्य की ओर बढ़ने नज़र आते हैं और पुरुषार्थी लोग जीवन के आनंदों की प्राप्ति करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं मगर उद्विग्नता,असंतोष और अशांति इनके लिए मरते दम तक साथ नहीं छोड़ती। यह समानान्तर चलती रहती है।

इनसे भी ऊपर बिरले इंसानों की एक और किस्म है जो जीने का आनंद भी जानती है और मृत्यु का भी।  जीवन में कर्मयोग के प्रति सर्वोच्च समर्पण भाव रखते हुए जो लोग अपने आपको पूरी तरह  ईश्वरीय प्रवाह के हवाले कर दिया करते हैं उन लोगों के लिए समस्या, शिकायत,दुःख, उद्विग्नता, अशांति और असंतोष अपने आप समाप्त हो जाया करते हैं।

एक बार सच्चे मन से यह स्वीकार कर लें – जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये। ऎसा हो जाने पर कर्म का आनंद भी आएगा और कर्मफल के लिए सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों से हमेशा बनी रहने वाली आशाएं-अपेक्षाएं भी नहीं रहेंगी। यह वह आदर्श स्थिति है जहाँ कत्र्तव्य कर्म का समर्पित निर्वाह पूरे यौवन पर रहा करता है वहीं जो कुछ भी प्राप्त होता रहता है उसे ईश्वरीय प्रसाद मानकर जीवन अपने आप आनंदित होता रहता है।

जीवन के हर कर्म में दाता, साक्षी और निर्णायक के रूप में ईश्वर को ही सर्वोच्च सत्ता मान लेने के बाद न जीवन में कोई दुःख रहता है, न कोई विषाद, भ्रम, शंका या आशंका। ऎसे लोगों को हर क्षण यह भान रहता है ईश्वर उनके साथ रहकर उनका सहायक बना हुआ संरक्षक और पालक दोनों दायित्वों का निर्वाह कर रहा है।

इस उदार तथा आध्यात्मिक सोच को प्राप्त कर लेने के बाद इंसान को न मृत्यु का भय होता है, न जीवन का कोई विषाद। इस स्थिति में हमेशा जीवन और मृत्यु से परे आनंददायी माहौल का अहसास बना रहता है। स्वयं को ईश्वरीय प्रवाह के हवाले छोड़ देना ठीक उसी तरह है जिस प्रकार बिंदु का सिंधु में मिलन होने के बाद बिंदु को किसी भी प्रकार की कोई चिंता नहीं हुआ करती।

जीवन का असली आनंद इसी में है कि हम अपने अहं को पूर्ण विगलित करते हुए खुद को ईश्वरीय प्रवाह का हिस्सा बना लें। इससे पुरुषार्थ चतुष्टय की पूर्ति, जीवनानंद की प्राप्ति और जीवनमुक्ति के सारे सुकून अपने आप हमारी जिन्दगी को दिव्यत्व एवं दैवत्व देते हुए सँवारते रहते हैं। इस अहसास के बिना न जीवन का आनंद है, न मृत्यु के भय से मुक्ति। ईश्वरीय प्रवाह के बिना हमारा जीना भी व्यर्थ है, और मरना भी अभिशप्त।

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