आसाम का नरपुंगव राजा वीर राय
इस आलेख में हम आसाम के एक ऐसे ही नरपुंगव का परिचय देने का प्रयास करेंगे, जिसके बलिदानी जीवन ने ‘आसाम’ का नाम ऊंचा किया और भारत का सम्मान बढ़ाया। लेखनी बेचने वालों ने उसका नाम इतिहास से चाहे हटा दिया हो, पर उसके समुज्ज्वल जीवन के समुज्ज्वल और स्वर्णिम पृष्ठों को भारत के देशभक्तों के हृदय से कोई नही हटा सकता। आसाम की भूमि का कण कण उस नरपुंगव का वंदन कर रहा है, जिसे इतिहास के उड़ते पृष्ठों में वीर राय का नाम दिया गया है।
बात उस समय की है जब देश को एक मौ. बिन बख्तियार खिल्जी नाम का विदेशी डाकू लूट रहा था, और इस देश की सांस्कृतिक धरोहरों को जला-जलाकर नष्ट कर रहा था।
खिल्जी का संक्षिप्त परिचय
आगे बढऩे से पूर्व हम खिल्जी के दुष्टकृत्यों का संक्षिप्त परिचय देना उचित समझते हैं। खिल्जी मौहम्मद गोरी का एक गुलाम था। कहा जाता है कि उसे पहले पहल गोरी ने अपने प्रार्थना कार्यालय में रखा था, परंतु उसकी अयोग्यता के कारण उसे वहां से हटा दिया गया था। यह ‘अयोग्य’ व्यक्ति हताशा और निराशा में तब दिल्ली की ओर चल दिया। संयोग से यहां भी उसे एक मुस्लिम सैनिक बस्ती में वही नौकरी मिल गयी जो गोरी के यहां मिली थी। परंतु दुर्भाग्य ने उसका पीछा नही छोड़ा और उसे इस नौकरी से भी निकाल दिया गया। तब वह बदायूं की ओर चला गया। पी.एन. ओक महोदय हमें बताते हैं कि यहां के एक मुस्लिम लुटेरे दलपति हिजबरूद्दीन हसन के यहां उसने नौकरी कर ली, और साथ ही हिंदू हत्या अभियान में भी बढ़ चढ़कर भाग लेने लगा। इस अभियान में उसे सफलता मिलने लगी और उसकी अयोग्यता योग्यता में परिवर्तित होने लगी।
किसी भी मुस्लिम आक्रांता या सेनापति या किसी लुटेरे की योग्यता इसी में मानी जाती रही है कि उसने कितने काफिरों का वध किया, या कितने काफिरों के घर में घुसकर हत्या, लूट, डकैती और बलात्कार किये? जितना ही कोई मुस्लिम आक्रांता या सेनापति या कोई लुटेरा अपनी इस कला में निखरा उसे उतना ही बड़ा सम्मान इतिहास के पृष्ठों पर मिला।
हिंदू-हत्या अभियान में खिल्जी अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने लगा। ‘इलियट एण्ड डाउसन’ ग्रंथ से हमें पता चलता है कि हिंदू हत्या अभियान में उसने कई स्थानों पर बड़ी लगन और फुर्ती दिखायी। वह हत्या अभियानों के साथ लूट, डकैती, बलात्कार में भी इतिहास रच रहा था।
नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने का घृणित कृत्य
खिल्जी ने सबसे घृणित कार्य किया, नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने का। नालंदा विश्वविद्यालय उस समय का सबसे बड़ा वैश्विक स्तर का शिक्षा केन्द्र था। इस शिक्षा केन्द्र में विभिन्न विषयों के बहुत ही विद्वान शिक्षक और आचार्य नियुक्त थे। देश विदेश से शिक्षार्थ यहां हजारों शिक्षार्थी आया करते थे। यह वो समय था जब भारत के ज्ञान-विज्ञान का लोहा सारा विश्व-समाज मानता था। निस्संदेह यह सत्य है कि नालंदा विश्वविद्यालय भारत के ज्ञान गौरव का प्रतीक था। जो लोग मौहम्मद बिन कासिम (712ई.) के आक्रमण के समय से ही भारत को पराधीन हुआ मानते हैं, या ऐसी मान्यता को स्थापित करने का प्रयास करते हैं, उन्होंने कभी नालंदा की महानता को भारत के गौरव के रूप में स्थापित करने का कोई प्रयास नही किया। यदि ऐसा होता या किया जाता तो भारतीय धर्म, संस्कृति और इतिहास के साथ जो विकृतीकरण का अभियान चलाया गया है, उसे सुधारने में बहुत बड़ी सहायता मिल सकती थी। इस विश्वविद्यालय के खण्डहर आज भी पड़े हुए हैं, जिन पर भारत के ज्ञान वैभव की प्राचीन परंपरा का स्मारक स्वरूप नालंदा विश्वविद्यालय खड़ा करने की बाट देश का राष्ट्रवादी मानस जोह रहा है। प्रश्न है कि जब सरदार पटेल जैसे ओजस्वी नेता के रहते सोमनाथ के मंदिर का जीर्णोद्घार हो सकता था तो इस विश्वविद्यालय का जीर्णोद्घार क्यों नही हो सकता?
बख्तियार खिल्जी ने इस विश्वविद्यालय को नष्ट करने का संकल्प लिया और इसकी ओर गिद्घ दृष्टि लगाकर चल दिया। ‘तबकात’ का लेखक हमें बताता है कि उत्तर प्रदेश एवं बिहार के सारनाथ कुशीनारा, नालंदा जैसे प्राचीन शिक्षा केन्द्रों को उसने न केवल उजाड़ा अपितु उनकी नींव तक खोद डाली। उसने इन शिक्षा केन्द्रों को जला-जलाकर नष्ट कर दिया। इस प्रकार उसने भारत की संस्कृति को उजाड़कर मानवता का भी भारी अहित किया। इस विश्वविद्यालय में जिन विषयों की शिक्षा दी जाती थी उनकी सूची को पी.एन. ओक ने अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’ में इस प्रकार दिया है-”कताई, बुनाई, खुदाई, आयुर्विज्ञान, शल्य, मेटालरजी (धातुविज्ञान) राजनीति, कूटिनीति, शासन कला, बैंकिंग, अर्थशास्त्र, शस्त्र निर्माण, युद्घ कला, धनुर्विज्ञान, प्रक्षेपण शास्त्र (रॉकेट विज्ञान) गणित, ज्योतिष, नक्षत्र विज्ञान, अध्यात्मवाद, दर्शन शास्त्र, मनोविज्ञान, तर्कशास्त्र, सैन्यापूर्ति, ऋतु विज्ञान, मेनसूरेसन, कैलक्युलस, डायनेमिक्स, स्टेटिक्स, गायन, संगीत, नृत्य, मूर्ति कला, वास्तुकला, चित्रकला, इंजीनियरिंग, जीव विज्ञान, स्त्री रोग विज्ञान और कामशास्त्र आदि।”
इस अनुपम शिक्षा केन्द्र को बख्तियार खिल्जी ने समाप्त करने का अभियान चलाया। अनेक मुस्लिम लेखकों ने उसके इस अभियान में मिली सफलता को उसकी योग्यता के रूप में महिमामंडित किया है, और इस घृणित अभियान में मारे गये हजारों शिक्षकों और शिक्षार्थियों को निरपराध जानते हुए भी यूं उपेक्षित कर दिया है कि जैसे कुछ हुआ ही नही। क्योंकि इन लेखकों की दृष्टि में निरपराध काफिरों को मारना भी इस्लाम की सेवा में सम्मिलित है। यद्यपि शिक्षा केन्द्रों का विनाश और निरपराधों का वध करने वाले को इतिहास घृणा की दृष्टि से देखता है, क्योंकि इन बातों से इतिहास बनता नही है, अपितु इतिहास विकृत हुआ करता है और विकृतीकरण इतिहास निर्माण नही है। इतिहास निर्माण है सृजनात्मकतापूर्ण सोच, मानवता वादी चिंतन और वैश्विक मानस को अपनाने से। भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा में इतिहास नायकों में इन्हीं गुणों की प्रधानता होनी चाहिए।
खिल्जी ने नालंदा विश्वविद्यालय में इतने लोगों का वध किया कि कोई ये बताने वाला भी नही रहा था कि विश्वविद्यालय में बने ढेरों पुस्तकों के पुस्तकालय में रखी पुस्तकें कौन से विषय की हैं? खिल्जी ने उन पुस्तकों के विशाल ढेर को ये कहकर जलाने की आज्ञा दे दी कि यदि इनमें दिया गया ज्ञान कुरान के विरूद्घ है, तो इन्हें रखना व्यर्थ है और यदि ये कुरान संगत है तो उस परिस्थिति में अकेले कुरान का रह जाना ही पर्याप्त है। इसलिए इन्हें जला डालो। बस, पुस्तकालय जला दिया गया। कहते हैं कि इस पुस्तकालय की आग निरंतर छह माह तक जलती रही थी। इसकी पुस्तकों से अशिक्षित और अयोग्य विदेशी आक्रांता अपने चूल्हे जलाते रहे और इस प्रकार भारत की ही नही अपितु विश्व की अप्रतिम ज्ञान धरोहर का नाश एक अज्ञानी और क्रूर व्यक्ति के द्वारा कर दिया गया। इस पुस्तकालय में भारत के बड़े बड़े ज्ञानियों, ऋषियों और चिंतनशील लोगों के अनुभवजन्य ज्ञान पर आधारित भारी भारी ग्रंथ और शोधपत्र रखे थे। जो सारे ही अग्नि की भेंट चढ़ गये। नालंदा का पुस्तकालय एक पुस्तकालय ही नही था, अपितु एक संग्रहालय भी था और एक ऐसा स्मारक भी था जिसमें हमारे प्राचीन ऋषियों की स्मृतियां उनके स्मारक ग्रंथों के माध्यम से सुरक्षित रखी थीं। उन सबको एक ही झटके में नष्ट करने वाला था-बख्तियार खिल्जी।
नालंदा के विनाश ने एक असफल व्यक्ति को सफल बना दिया। जो प्रार्थना कार्यालयों तक में एक साधारण नौकरी करने योग्य नही समझा गया, वह व्यक्ति रातों रात नायक बन गया। क्योंकि उसके सम्प्रदाय की मान्यता ही यह थी कि विधर्मियों के विरूद्घ कोई कितना आतंक मचा सकता है? उसी में उसकी सफलता छिपी है।….और आज खिल्जी इसी कसौटी पर खरा उतर चुका था। इसलिए उसकी जय जयकार करके उसके लोगों ने आसमान सिर पर उठा लिया था।
खिल्जी को आसाम से मिली चुनौती
तब इस देश में खिल्जी की चुनौती को दिल्ली से तो नही पर आसाम से अवश्य चुनौती मिली। भारत का भोर आसाम से होता है, इसलिए उस भोर के प्रकाश को दूर दूर तक फेेलाने का संकल्प आसाम ने अपने ऊपर लिया। खिल्जी बिहार से अगले प्रांतों की ओर बढ़ा। उसने अपने आतंक से कितने ही भव्य मंदिरों को नष्ट कर, वहां मस्जिदों का निर्माण करा दिया और कितने ही निरपराधों को मृत्यु का ग्रास बना दिया। तब आसाम के राजा वीर राय ने इस विदेशी आतंकी आक्रांता को घेरने की सफल योजना बनायी। उसने बड़ी बुद्घिमत्ता से कार्य किया और अपनी सेना की ऐसी व्यूह रचना की कि शत्रु सेना का सफाया करने में तथा उसके अहंकार को तोडऩे में उसे सफलता ही मिली। राजा वीर राय ने खिल्जी को उसी की भाषा में उतर दिया और जब खिल्जी कुछ भारतीय जयचंदों की सहायता लेकर आसाम में घुस गया, तब उसकी सेना ने एक दिन प्रात: काल में सोते हुए विदेशी शत्रुओं पर अचानक हमला बोल दिया। खिल्जी और उसकी सेना इस अचानक किये गये हमले से संभल नही पाए और आसाम के वीर राय और उसकी सेना शत्रुओं को गाजर, मूली की भांति काटने लगी। दोपहर तक खिल्जी की सेना का बड़ी संख्या में सफाया कर दिया गया। खिल्जी को अभी तक भारत में ऐसी चुनौती नही मिली थी और ना ही उसे भारतीयों से ऐसी आशा थी कि ये लोग भी अचानक इस प्रकार का हमला बोल सकते हैं।
वीर राय की प्रशंसनीय वीरता
वीर राय ने इतिहास लेखकों को समझने के लिए बहुत कुछ दिया। उसके अचानक बोले गये हमले से मिली उसकी सफलता इस बात का ्रप्रमाण है कि जब शत्रु को उसी की भाषा में भारत के किसी राजा ने उत्तर दिया तो वह पराजित हुआ और जब भारतीय अपने आदर्शों से बंध कर रहे तो कई बार पराजय का मुंह देखना पड़ा। जैसे पृथ्वीराज चौहान मातृभूमि की रक्षा को सदा प्राथमिकता देता रहा, परंतु मातृभूमि की रक्षा में जब गायें आड़े आ गयीं तो उसने गायों को बचाने के आदर्श के चक्कर में सबसे बड़ी गाय अर्थात मातृभूमि को भुला दिया। जबकि उस समय यदि कुछ गायें सबसे बड़ी गाय के लिए भेंट चढ़ जातीं तो अधिक बड़ा पाप नही होता। आदर्श निश्चित रूप से वंदनीय होते हैं, परंतु जहां बड़ा आदर्श दांव पर लगा हो, वहां छोटे आदर्शों को तिलांजलि दे देनी चाहिए।
आसाम के वीर राय ने बता दिया कि हम कच्चे आदर्शों के चक्कर में फंसने वाले नही हैं। इसलिए उसने नालंदा विश्वविद्यालय में मारकाट मचाने वाले तथा उसके पुस्तकालय में आग लगाने वाले खिल्जी को बता दिया कि भारतीय अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने में कितने सिद्घहस्त हैं।
‘तबकात-ए-नासिरी’ से हमें ज्ञात होता है-”आश्चर्य है कि शत्रुओं (अर्थात हिंदुओं) के पास बांस के भाले थे, और उनकी ढाल, कवच तथा शिरस्त्राण सिर्फ कच्चे रेशम के ही बने थे, जो आपस में एक दूसरे में बंधे हुए और सिले हुए थे। सभी के पास लंबे लंबे धनुष और बाण थे।” इतना ही नही, स्वतंत्रता प्रेमी और देशभक्त राजा वीर राय ने अपनी 35000 सेना अलग से सुरक्षित रखी, जो आवश्यकता पडऩे पर तुरंत बुलायी जा सकती थी। उक्त पुस्तक से हमें ज्ञात होता है कि वीर राय से मिली पराजय के घावों को देखकर और अपनी सेना के भारी विनाश को देखकर खिल्जी बहुत अधिक निराश हो गया था। उसने अपने सेनानायकों से परामर्श लिया और वीर राय की 35000 की सुरक्षित सेना से घबराकर अपने देश के लिए लौट जाना ही उसने श्रेयस्कर समझा।
वीर राय के उत्कृष्ट सैन्य संचालन और देशभक्ति पूर्ण कृत्य ने स्पष्ट कर दिया-
छोडऩे पर मौन को वाचाल होते देखा है,
तोडऩे पर आईने को काल होते देखा है।
मत करो ज्यादा हवन तुम आदमी के खून से,
जलने पर कोयले को लाल होते देखा है।।”
भारत का आदर्शवादी मौन स्वतंत्रता के लिए व्याकुल था, इसलिए वह वीर राय के नेतृत्व में वाचाल हो उठा था, शीशे की भांति पारदर्शी भारत का हृदय आज टूटा हुआ आईना बन चुका था, जो साक्षात काल की साक्षी दे रहा था। फलस्वरूप अभी तक ‘आदमी के खून से यज्ञ करने वालों को’ जले हुए कोयलों ने अपना लाल रंग दिखा दिया। वीर राय ने अपने कुशल सैन्य संचालन की इतिश्री इतने से ही नही की अपितु उसने भागते हुए शत्रु का पीछा करने की ठानी और उसे देश की सीमाओं में ही भूखा प्यासा मारने की योजना पर कार्य किया। क्योंकि वह पृथ्वीराज चौहान की भांति शत्रु को जीवित छोडऩा अच्छा नही समझता था। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि वीर राय की वीरता पृथ्वीराज चौहान की पराजय की प्रतिक्रिया थी। जिसने वीर राय को ये समझने के लिए प्रेरित किया कि शत्रु को छोड़ा जाना अनुचित होता है और यह भी कि संस्कृति नाशक इन शत्रुओं के लिए युद्घ उन्हीं की शैली में किया जाना ही उचित होगा।
सफल युद्घनीति
वीर राय ने भागते हुए मुस्लिम सैनिकों के लिए रास्ते की सारी फसल उजाडऩी आरंभ करा दी, यहां तक कि घास को भी घोड़ों के खाने के लिए नही छोड़ा गया। यह रणनीति सचमुच बड़ी कारगर सिद्घ हुई। कहा जाता है कि अपने लिए खाने को कुछ भी न मिलने पर मुस्लिम सैनिकों ने अपने घोड़ों को ही मारकर खा लिया था। शत्रु के लिए वीर राय की यह योजना बड़ी ्रघातक सिद्घ हुई।
जब खिल्जी ने आसाम पर चढ़ाई की थी तो रास्ते में ब्रह्ममपुत्र नदी पर बंगमती नामक (वर्धानकोट) एक प्राचीन नगर स्थित था। जिसके निकट नदी पर एक संकरा पुल बना हुआ था। इस पुल पर खिल्जी ने अपना नियंत्रण स्थापित किया और एक सैन्य दल को इसकी सुरक्षा हेतु इसलिए छोड़कर आगे बढ़ गया कि लौटने पर इन सैनिकों की सहायता से यह पुल सहजता से पार कर लिया जाएगा। परंतु जब वह लौटकर यहां आया तो यह देखकर उसे असीम पीड़ा हुई कि इस पुल पर जिस सैन्य दल को वह छोड़कर गया था, उसे भी हिंदू वीरों ने समाप्त कर दिया है और पुल को भी तोड़ दिया गया है।
अब शत्रु के पास भागने के लिए कोई सुरक्षित रास्ता नही था। हिंदू वीरों की हर योजना सफल सिद्घ हो रही थी और शत्रु अपने ही बुने जाल में फंसकर रह गया था। आसाम की ओर बढ़ते खिल्जी को आसाम अपने देश से चाहे भले ही दूर ना लगा हो पर अब आसाम से अपना देश तो इतनी दूर लग रहा था कि संभवत: वह पूरे जन्म भागकर भी उसकी दूरी को नाप न सकेगा।
हिंदू राजा वीर राय की प्रशंसा में यहां जितना लिखा जाए उतना कम है। क्योंकि उसकी देशभक्ति ने समकालीन इतिहास के पृष्ठों पर जिस प्रकार रोमांच और उत्साह का गुलाल छिड़का है उससे हमारे वीरों के ‘वसंत मनाने’ की वास्तविक परिपाटी और वास्तविक उद्देश्य का ज्ञान होता है। पी. एन. ओक लिखते हैं-”हिंदुस्तान के वीरों की कतार में आसामी राय को रखना ही पड़ेगा, क्योंकि उसने जागरण, चेतना और दूरदर्शिता का परिचय दिया, क्योंकि उसने अपने कत्र्तव्य का पालन किया।”
खिल्जी हुआ विवश
इस प्रकार खिल्जी असहायावस्था में इधर उधर सिर मारने के लिए विवश हो गया। उसकी इस भटकनपूर्ण अवस्था में किसी मुस्लिम शासक ने भी सहायता नही की। सामान्यत: हमारी पराजय के कारणों में एक कारण हमारे हिंदू राजाओं की पारस्परिक एकता का न होना भी गिनाया जाता है, परंतु ऐसा गिनाने वाले लेखकों या इतिहासकारों को यह भी ध्यान देना चाहिए कि मुस्लिमों ने किसी हिंदू शासक से पराजित होने पर या खिल्जी की सी अवस्था में पहुंचने पर क्या कभी किसी अपने मुस्लिम शासक की सहायता की? जबकि हिंदुओं के ऐसे उदाहरण बहुत हैं कि जब उन्होंने विदेशी आक्रांताओं के विरूद्घ ‘राष्ट्रीय हिंदू सेना’ का गठन किया।
खिल्जी असहायावस्था में भागा जा रहा था और हिंदू वीर उसका पीछा कर रहे थे। आसाम की वीर भूमि ने मन बना लिया था कि इस लुटेरे को लौटने नही दिया जाएगा। अंत में खिल्जी ने ब्रह्मपुत्र को तैरकर पार करने का निर्णय लिया। हिंदू सेना नदी के किनारों पर खड़ी हो गयी। ब्रह्मपुत्र ने भी आर्यपुत्र राजा वीर राय की सहायता की और खिल्जी की बची हुई सेना का लगभग सफाया ही कर दिया। अधिकांश सेना नदी में डूबकर मर गयी लगभग सौ घोड़े और कुछ सैनिक नदी पार कर पाए। किसी मुस्लिम सैनिक की तैरती लाश का सहारा लेकर खिल्जी नदी पार हो गया। पी. एन. ओक कहते हैं-”इस विपत्ति का मारा बख्तियार खिल्जी देवकोट पहुंच कर बीमार हो गया। वह कभी भी बाहर नही निकलता था। नदी में डूबे लोगों की स्त्रियों और बच्चों को देखकर उसे लज्जा आती थी। जब कभी वह घोड़े पर बाहर निकलता था तो मर्द, औरत और बच्चे सड़कों और घरों पर खड़े होकर चीख चीखकर उसे गालियां देते थे।”
ऐसे ही एक आहत मुस्लिम युवा मरदान (जिसका अपना कोई संबंधी भी आसाम में मारा गया था) ने घृणावश खिल्जी को मारने की योजना बनायी। 1205 ई. में उसने एक दिन अचानक बख्तियार खिल्जी के शिविर में प्रवेश किया। खिल्जी असहायावस्था में चुप पड़ा था, अली मरदान ने शीघ्रता से अपना चाकू निकाला और गालियां देते हुए खिल्जी पर तब तक हमला करता रहा जब तक कि उसे विश्वास न हो गया कि अब वह इस संसार में नही रहा है।
यह ठीक है कि बख्तियार खिल्जी का अंत एक मुस्लिम ने किया परंतु यह भी सत्य है कि खिल्जी से नालंदा का प्रतिशोध वीर राय ने लिया। हमें नालंदा के उजडऩे की कहानी तो पढ़ायी जाती है परंतु इस पीड़ा दायक कहानी का प्रतिशोध लेकर भारत के पौरूष की धाक जमाने वाले वीर राय के विषय में कुछ नही बताया जाता। जबकि आसाम की धरती राजा वीर राय का एक ऐसा मौन स्मारक है, जो इस हिंदू वीर का यशोगान कर रहा है। ऐसे यशस्वी शासक के साथ इतिहास में अन्याय किया गया है तो यह कितना उचित है?