vijender-singh-aryaसौंदर्य अंदर बसै, मूरख ढूंढ़े जग मांहि
गतांक से आगे….
अन्न जल और मीठे वचन,
रत्न धरा पर तीन।
अन्य पदारथ विश्व में,
लगते हैं कान्तिहीन ।। 552 ।।

मित्र भार्या सम्पदा,
मिल जायें कई बार।
लेकिन मुश्किल से मिले,
मानव तन एक बार ।। 553 ।।

आंखों में जिसके शर्म हो,
वाणी में होय मिठास।
मन में होय उदारता,
जीत लेय विश्वास ।। 554 ।।
उदारता से अभिप्राय है-हृदय में पवित्रता और परोपकार की भावना
मान घटै वैभव छुटै,
बन्धु छोड़ै साथ।
वक्त देख खामोश रहै,
सुमर ले दीनानाथ ।। 555 ।।

सौंदर्य अंदर बसै,
मूरख ढूंढ़े जग मांहि।
अंतर के सौंदर्य से,
मिलै जगत को राह ।। 556 ।।
व्याख्या:-भाव यह है कि सौंदर्य मन मस्तिष्क की ऊंची सोच में बसता है, अंत:करण की पवित्रता में बसता है। मूर्ख लोग इसे बाहर ढूंढ़ते हैं। किसी की कुरूपता को देखकर नाक भौं सिकोड़ते हैं। यहां तक कि मन ही मन घृणा का भाव भी रखते हैं, किंतु जरा गंभीरता से विचार कीजिए दुनिया का महान दार्शनिक सुकरात, बाहर से देखने में कितना कुरूप था, वह सत्य पर अडिग रहा और सत्य के लिए जहर तक पिया तथा संसार को नई राह दिखा गया। महर्षि अष्टावक्र देखने में कितने कुरूप थे किंतु उनकी विद्वत्ता का लोहा तत्कालीन ब्रह्मर्षि भी मानते थे। यहां तक कि महाराज जनक के हृदय में उनके प्रति विशेष श्रद्घा और सत्कार का भाव था। ब्रह्मसूत्रों पर जब वे बोलते थे तो अमृत वर्षा करते थे। सारी सभा अवाक रह जाती थी। उनके ज्ञान की गंभीरता और नवीनता से मन मस्तिष्क स्निग्ध हो जाते थे।
वेद ईश्वरीय ज्ञान है। इस ईश्वरीय ज्ञान का प्रस्फुटन चार महर्षियों-अग्नि, आदित्य, वायु और अंगिरा के द्वारा हुआ। चारों वेदों में कुल 20,349 मंत्र हैं। प्रत्येक मंत्र में प्राणी मात्र के कल्याण की कामना की गयी है। भावार्थ को पढ़कर पाठक का हृदय गदगद हो जाता है। ऋषियों के मार्मिक चिंतन और आंतरिक सौंदर्य का पता चलता है। सामान्यत: यदि कोई व्यक्ति चेहरे मोहरे से कद काठी से सुंदर हो किंतु हृदय से कुटिल हो, आतंकवादी हो, क्रूर हो, तो संसार उसे दुष्ट कहता है। इससे सिद्घ होता है कि सौंदर्य हृदय में बसता है। क्रमश:

Comment: