विपक्ष ने एक सुर में सुर मिलाकर सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011 को ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया। इस विधेयक के जरिए केंद्र की यूपीए सरकार विशुद्ध रूप से वोट बैंक मजबूत करने की कुटिल राजनीति पर उतारू थी। सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र की रिपोटेज़्ं भी इसी सबब का पयाज़्य थीं। इस विधेयक के मसौदे में कटुता बढ़ाने और संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाने वाले खतरनाक कानूनी प्रावधान थे, जो हर हाल में बहुसंख्यक समाज को सांप्रदायिक हिंसा के लिए दोषी ठहराते और राज्य सरकारों के दखल का अधिकार समाप्त हो जाता। इस कानून के मसौदे को तैयार सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने किया था। मसौदे में भागीदारी सैय्यद शहाबुद्दीन और तीस्ता सीतलवाड़ जैसे उन नुमाइंदों की थी, जिनके धर्मनिरपेक्ष चरित्र को निर्विवाद नहीं माना जाता ? इस कानून की विडंबना थी कि यह किन्हीं दो धार्मिक समुदाओं के बीच सद्भावना व सहानुभूति पैदा करने की बजाय कटुता व दूरी बढ़ाने का काम करता ? जाहिर है, मनमोहन सिंह और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् का मकसद सिर्फ अल्पसंख्यक मतदाताओं में कांग्रेस के प्रति रूझान पैदा करना था?
राष्ट्रीय एकता व संप्रभुता कायम रखने के नजरिये से होना तो यह चाहिए कि सोनिया गांधी और उनकी परिषद समान नागरिक कानून बनाने की पहल करतीं और सरकार व संसद से उसे कानूनी दर्जा दिलाते। लेकिन कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हो विपरीत रहा है, वह भी महज मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए। वैसे भी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् एक गैर संवैधानिक संस्था होने के साथ, केवल सोनिया गांधी के आभा मण्डल को महिमा मंडित बनाए रखने के लिए है न कि सुपर कैबिनेट की भूमिका में आकर अपनी राय थोपने के लिए? इसीलिए प्रस्तावित कानून के मसौदे का जो मजमून बाहर निकलकर आया था, उससे साफ हो गया था कि परिषद के नुमाईंदे पूर्वग्रही दृष्टि से काम ले रहे हैं। उन्होंने पहले से ही मान लिया है कि सांप्रदायिक हिंसा फैलाने के लिए केवल बहुसंख्यक समाज जिम्मेदार हैं। जबकि यह नजरिया भ्रामक है। हकीकत यह है कि देश में जब तक बहुसंख्यक समाज धर्मनिरपेक्ष व समावेशी भावना का अनुगामी है, तभी तक देश की धर्मनिरपेक्षता बहाल रह सकती है। इस विधेयक को कानूनीजामा पहना दिया जाता तो स्वाभाविक है न केवल देश का धमज़्निरपेक्ष चरित्र खतरे में पड़ जाता, बल्कि सांप्रदायिक दुर्भावना को भी मजबूती मिलती? इसलिए यह पक्षपातपूर्ण विधेयक वजूद में लाने की बजाय ऐसे कारगर उपाय अपनाने चाहिए जिससे 1984 के सिख विरोधी, 2002 जैसे मुस्लिम विरोधी और 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के हालात बने ही नहीं ?
जब संविधान और व्यवस्था हमें समान नजरिया देने के हिमायती हैं तो सरकार को क्या जरूरत है कि वह इसे बांटकर संकीर्णता के दायरे में तो लाए, ही भावनाओं को भड़काकर विस्फटक हालात भी पैदा करे ? क्योंकि मसौदे में जिस तरह से सांप्रदायिक व जातीय हिंसा को ‘समूह’ के आधार पर परिभाषित किया गया था वह हालातों को तो दूषित करने वाला था ही रोकथाम के उपायों को भी विरोधाभासी नजरिए से देखता था। ‘समूह’ की परिभाषा के मुताबिक इस दायरे में भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यक तो आते ही अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां भी आ जाती। जबकि वर्तमान स्थितियों में ये जातियां अत्याचार निवारण कानून के दायरे में आती हैं। तय है, एक जाति के दुराचार से संबंधित दो तरह के कानून आशंकाएं पैदा करते और एक ही चरित्र के समानांतर कानूनों का लाभ उठाकर वास्तविक आरोपी बच जाते ?
केन्द्र की सप्रंग सरकार ने 2004 में इस कानून को अस्तित्व में लाने का वायदा किया था। 2005 में सरकार एक विधेयक भी लाई, लेकिन जबरदस्त विरोध के चलते पीछे हट गई। अपने दूसरे कार्यकाल में एक बार फिर 2011 में विधेयक को लाने की कवायद की गई, किंतु मुख्यमंत्रियों के विरोध के चलते इस कानून को फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। अब लोकसभा चुनाव के ठीक पहले केन्द्र सरकार ने अल्पसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण के लिए इसे वर्तमान चालू सत्र में लाने की अंतिम कोशिश भी कर ली, यह अलग बात है कि संपूर्ण विपक्ष ने एकजुट होकर सरकार की इस कुत्सित मंशा को नकार दिया।
मसौदे का जो ब्यौरा सामने आया था, उसके एक अध्याय में यह भी विसंगति थी कि सांप्रदायिक हिंसा के जो मामले सामने आएंगे, उनको अलग-अलग वर्गों में बांटकर देखा जाएगा। इन मामलों को केंद्र सरकार जांचेगी-परखेगी। जबकि हमारे संघीय ढांचे में यह जिम्मेबारी राज्य सरकारों की है। यह प्रस्ताव अथवा विचार इस बात का संकेत था कि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें होती हैं, उनके कानूनी अधिकारों पर केंद्र सरकार अतिक्रमण करना चाहती थी।
इस कानून को अमल में लाने वाली समिति एक प्राधिकरण के रूप में वर्चस्व में आती। जिसे पर्याप्त स्वायत्तता दी गई थी। इसके चार सदस्य अल्पसंख्य समुदायों से होते। इसके उलट इस तरह के मामलों में जो लोग अपराध के दायरे में आते, वे बहुसंख्यक समुदायों से होते। लिहाजा इस समिति के न्याय की कसौटी पर खरी उतरने की आशंका हमेशा बनी रहती। इस कानून के तहत सांप्रदायिक हिंसा के लिए दोषी केवल बहुसंख्यक समाज को ठहराया जाता, ऐसे मामलों में अल्पसंख्यकों को दोषी नहीं माना जाता।
जबकि अपराध एक प्रवृत्ति होती है और वह किसी भी समाज के व्यक्ति में हो सकती है ? इस प्रवृत्ति का वर्गीकरण हम अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक दायरों में नहीं कर सकते। आपराधिक मामले चाहे वे किसी भी प्रकार के हों, उन्हें एकपक्षीय दृष्टि से नहीं देखा जा सकता ?
इस कानून में यह भी साफ नहीं था कि जो सार्वजनिक समानता का भाव पैदा करने वाले मुद्दे हैं, उनके परिप्रेक्ष्य में कानून की क्या भूमिका परिलक्षित होगी ? यदि कोई राजनीतिक दल धारा 370 हटाने, समान नागरिक संहिता को लागू करने और यदि कोई समुदाय सांप्रदायिक दंगों के विरोध में प्रदर्शन करते हैं, तो क्या ये बहुसंख्यक समाज के आंदोलनकारी कानून के मातहत अभियुक्त के रूप में देखे जाते ? हाल के मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर यही देखने में आया है। यहां सवाल यह भी खड़ा होता है कि कश्मीर से जिन अल्पसंख्यक हिंदुओं को बेदखल कर दिया गया है, क्या उन्हें बेदखल करने वालों के विरूद्ध इस कानून के तहत मुकदमे चलाए जाते ? जम्मू-कश्मीर या केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार इतना जोखिम उठा पाती ? तय है, ऐसे विरोधाभास किसी एक मुकाम तक पहुंचे, ऐसे प्रावधान इस कानून में नहीं थे, इसलिए इसे ठंडे बस्ते में डाला जाना जरूरी था।
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