नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा में इस समय आत्मविश्वास लबालब भरा दीख रहा है। नमो ने इस चुनावी फिजा को सचमुच रोचक दौर में पहुंचा दिया है और उनकी भाषण शैली में कांग्रेस के प्रत्येक नेता के वक्तव्यों अथवा भाषण के जुमलों की ऐसी काट छिपी है कि बोलने वाला अब बोलने से पहले कई बार सोचता है। यही कारण है कि कांग्रेस के बड़बोले दिग्विजय सिंह सहित मौन रहने वाले डा. मनमोहन सिंह तक सभी नेता कुछ भी ऐसा बोलने से बच रहे हैं जिसे मोदी पकड़ें और इन नेताओं को अपने व्यंग्य बाणों से घायल करें। कांग्रेस के इन सभी नेताओं ने मौन रहकर कांग्रेस में ‘मां-बेटे’ (सोनिया, राहुल गांधी) की जोड़ी को ही चुनावों में हारने की जिम्मेदारी लेने के लिए आगे कर दिया है। जिन जिम्मेदारियों से कांग्रेस की ‘मां-बेटे’ की जोड़ी बचती रही संयोग देखिए कि विधि के विधान ने उन्हें उस जिम्मेदारी को अपने कंधों पर ही उठाने के लिए पूर्णत: विवश कर दिया है।
‘आप’ ने भी दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों के समय अपनी अच्छी धमक बनायी थी, परंतु उसके दिल्ली में 49 दिवसीय शासन के दौरान स्वयं मुख्यमंत्री केजरीवाल द्वारा ही दिल्ली की सड़कों पर फेलायी गयी ‘अराजकता’ और अब भाजपा कार्यालयों पर देश के विभिन्न भागों में की गयी तोड़ फोड़ या पत्थरबाजी की घटनाओं ने पार्टी की हवा को बनाने के बजाए बिगाड़ दिया है। पार्टी के नेताओं के सुर भी इस समय बता रहे हैं कि उनका आत्मविश्वास पहले के मुकाबले हल्का पड़ा है।
एक बात जो हर चुनाव के लिए देश में केवल सपना बनकर रह जाती है, वह है देश के नेताओं द्वारा निष्पादित किया जाने वाला मर्यादित और महान आचरण जिससे देश लोकतांत्रिक परिवेश में लोकतांत्रिक नेताओं का चुनाव कर सके। सचमुच ऐसा महान आचरण जो आने वाली पीढिय़ों के लिए अनुकरणीय हो, अब भारतीय राजनीति में बीते दिनों की बात होकर रह गया है। बड़े नेता केवल पदों से बड़े हैं, उनका आचरण और व्यवहार या भाषण शैली की जब पड़ताल की जाती है तो ज्ञात होता है कि इन पर यही बात लागू होती है कि ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’।
इस विषय में बिहार के लालू प्रसाद यादव ने कहा है कि अब गठबंधन नही लठबंधन होगा। इससे उन्हें सुनने वाले उनके सामने बैठे हुए लोग हंस पड़े और अपने आपको एक मसखरे के रूप में ही स्थापित किये रखने के लिए सदा प्रयासरत रहने वाले लालू यादव ने सोच लिया कि उन्होंने मैदान मार लिया और बहुत बड़ी बात कह दी। जबकि यह बड़ी बात न होकर छोटी बात थी। बात यहीं नही रूकी, आगे बढ़ी और दूसरी पार्टियों के बड़े नेताओं ने भी लालू यादव का अनुकरण करते हुए छोटी बातों की ओर ध्यान देना आरंभ कर दिया। केजरीवाल जो अभी राजनीति सीख ही रहे हैं उन्होंने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर आक्रमण बोला और उन्हें झूठ का पुलिंदा कहकर अमर्यादित टिप्पणी की, जबकि मोदी की टीम केजरीवाल को नौटंकीबाज कहकर स्पष्ट कर चुकी है कि उसके तरकश में भी कितने हलके परंतु लोकतंत्र के लिए कितने घातक तीर हैं? कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को गुस्सा आता है और वह आवेश में कुछ का कुछ कह जाते हैं। उन्होंने बिना इतिहास की पड़ताल किये और बिना संबंधित प्रकरण में माननीय न्यायालय के आदेशों का संदर्भ ग्रहण किये आर.एस.एस. को गांधीजी का हत्यारा कह दिया है, जिसके लिए भाजपा उनके खिलाफ चुनाव आयोग से शिकायत कर चुकी है, और मांग कर चुकी है कि कांग्रेस की एक राजनीतिक दल के रूप में मान्यता समाप्त की जाए।
इधर प्रदेशों में भी स्थिति कम निराशाजनक नही है। उत्तर प्रदेश में सपा को गुण्डाराज और दंगों को बढ़ावा देने वाली पार्टी के रूप में स्थापित किया जाता रहा है। मुस्लिम वोटों की प्राप्ति के लिए सपा अपने ऊपर लगने वाले इन आरोपों को सहज रूप में ले रही है और अपने लिए इसे अच्छा मान रही है, ताकि मुस्लिम मतों का उसके पक्ष में धु्रवीकरण हो। तमिलनाडु में जे. जयललिता की सरकार ने देश के पूर्व प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी की हत्या में सजायाफ्ता मुजरिमों को रिहा करने की बात कहकर सभी को चौंका दिया। उन्हें अपने लिए 2014 के चुनावों में इस निर्णय से ही लाभ मिलता दीख रहा है। ऐसे ही आरोप ममता बनर्जी पर हैं, कि वह मुस्लिम मतों का तुष्टीकरण कर रही हैं और पश्चिम बंगाल का हिंदू समाज उसे और उनकी नीतियो ंसे पूर्णत: निराश हो चुका है। जबकि बसपा की मायावती पर भी, ओच्छे आरोप लगते रहे हैं कि वे तानाशाही प्रवृत्ति से पार्टी को चलाती हैं और अपने विधायकों व सांसदों का खुल्लम-खुल्ला अपमान करती हैं। नीतिश कुमार, रामगोपाल यादव, जगदंबिका पाल, रामविलास पासवान, राजठाकरे और अन्य ऐसे ही राज्य स्तरीय नेताओं की टिप्पणियों से भी माहौल में हल्कापन आ रहा है। जिससे यही स्पष्ट होता है कि मर्यादित लोकतांत्रिक आचरण के निष्पादन के लिए सभी दल अपने-अपने स्तर पर पूर्णत: असावधान और अगंभीर हैं।
इस सबके पीछे कारण एक ही है कि हमारे राजनीतिज्ञों को राजनीति सिखाने के लिए उचित प्रशिक्षण नही दिया जाता और बोलने के बारे में भी उन्हें क, ख, ग नही सिखाया जाता। फलस्वरूप चुनावों के समय जैसे परिवेश में नेता अपने-अपने मतदाताओं से मत मांगते हैं, वैसा ही परिवेश न्यूनाधिक रूप में पूरे पांच वर्ष बना रहता है। इसलिए यदि अब ऐसा आचरण हमारे नेता दिखा रहे हैं तो आने वाले वर्षों में भी भारतीय लोकतंत्र की तस्वीर में कोई आमूल चूल परिवर्तन नही आने वाला है। जब नेता छोटे होंगे तो बड़े कामों की अपेक्षा की जानी भी नही चाहिए।