ये होली-ठिठोली कब तक

बाहरी रंगों के भरोसे

– डॉ. दीपक आचार्य

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जीवन के तमाम पहलुओं से लेकर परिवेश के हर आयाम को सुनहरे रंगों से भरना और हर कर्म को पुष्टि देने वाले रसों में डूबकर आनंद पाने के लिए इंसान आरंभ से अंत तक प्रयत्नशील रहता है और इसके लिए हर प्रकार के रंगों और रसों की प्राप्ति के लिए सभी प्रकार के जतन करने में पूरी जिंदगी खपा दिया करता है।

रंग-बिरंगे जीवन को सदैव सुनहरे रंगों से भरा-पूरा रखने में पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तक के सभी कारकों का सूक्ष्म से स्थूल और भौतिक से मानसिक सभी प्रकारों का प्रयोग न्यूनाधिक अवस्था में हर क्षण बना रहता है।  आनंद को पाना हर जीव के जीवन की वह कला है जिसका सीधा संबंध बाहर से नहीं बल्कि भीतर से नियंत्रित, सृजित और बहुगुणित होता है।

बाहर कितना ही सुनहरा परिवेश हो, प्रकृति का अनवरत मंगलगान हो, उफनती नदियां और लहराते समंदरों का वेग देखते ही बनता हो या फिर पर्वतशिखरों से स्पर्श कर आने वाली हर हवा जमीन से लेकर आसमाँ तक की खैरखबर क्यों न बताती रहें, यदि मन में विषाद और दुःखों का छोटा सा बीज भी बना रहेगा तो उसके आगे ये बाहरी आनंद गौण ही होकर रहेगा, चाहे हम ऊपर से कितने ही प्रसन्न और मस्त क्यों न दिखें।

इंसान के लिए सर्वोपरि लक्ष्य ही है जीवन का आनंद पाना। जो कोई शाश्वत आनंद पाने के रास्तों का पता पा जाते हैं फिर न पीछे मुड़कर देखते हैं न लौटते हैं, बिना रुके आगे ही आगे बढ़ते हुए अपने अन्तस के आनंद को ब्रह्माण्डीय आनंद से जोड़ कर महा आनंद की भावभूमि पा जाते हैं जहाँ पहुंच कर दुनिया के सारे आनंद गौण हो जाते हैं और इन दुनियावी आनंद को पाने के लिए हो रही भागदौड़ किसी पागलपन से कम नज़र नहीं आती।

यही स्थिति हम सभी की है। हम सारे के सारे लोग आनंद पाने को तो उतावले हैं मगर आनंद के आदि स्रोत का पता अब तक नहीं पा सके हैं, न ही सायास प्राप्त आनंद को ज्यादा समय तक अपने पास सहेज कर रख पाने की स्थिति में हैं।

हम रोज खूब मशक्कत करते हुए आनंद पाने के उपाय सोचते और करते हैं मगर आनंद का तनिक आभासी अनुभव करने के बाद फिर खाली हो जाते हैं। न आनंद स्थायी भाव प्राप्त कर पा रहा है न हमारा उतावलापन ही कम हो पाया है। रोज भूखे-प्यासे और नंगे ही बने रहते हैं।

इस अतृप्ति भाव की वजह से हम पूरी जिंदगी वैसे ही बने रहते हैं जैसे कल थे। यही कारण है कि रंगों और रसों का पर्व होली हमें आनंदित करता है, गुदगुदाता है और सुकून देता है। साल भर से हम प्रतीक्षा करते हैं इस दिन की। पर्व का पूरा मजा लूटने का कोई प्रयास हम कभी नहीं छोड़ते।  बाहर के रंग-गुलाल-अबीर, रंगीले रसों की बौछारों का भरपूर उपयोग करने के बाद भी हम दो दिन बाद जैसे थे वैेसे।

ऊपर से हम कितने ही रंगीन और मस्त दिखाई दें, मगर भीतर से हम सब उन रंगों और रसों का साक्षात नहीं कर पा रहे हैं जो अपने अन्तर्मन से प्रकट होकर शरीर के आभामण्डल को पुलकित करते हुए असली आनंद का अहसास कराते हैं और जीवन भर के लिए स्थायी भाव प्राप्त कर जाते हैं। बाहर की बजाय मौज-मस्ती और सुकून के रंगों व रसों का भीतर से आयात करने की कला सीखने की आज जरूरत है वरना बाहर के रंगों और रसों का सुकून कुछ घण्टे से ज्यादा ठहर नहीं पाता। होली पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ ….।

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