अपने ‘राष्ट्रीय-संकल्प’ के लिए प्राणाहुति देने वाला संयमराय
वेद ने राष्ट्र को गौमाता के समान पूजनीय और वंदनीय माना है। वेद का आदेश है कि मैं यह भूमि आर्यों को देता हूं। वेद ऐसा संदेश इसलिए दे रहा है कि वह संपूर्ण भूमंडल को ही आर्य बना देना चाहता है। परंतु संसार को आर्य बनाने से पूर्व वेद की दो शर्तें हैं। उन शर्तों पर विचार करने के लिए वेद के संबंधित मंत्र का अवलोकन किया जाना आवश्यक है। वेद कहता है:-
इन्दं वर्धन्तो अप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम् ।
अपघ्नन्तो अराव्ण:।। (ऋ 9/63/5)
अर्थात हे सत्कर्मों में निपुण सज्जनो! परमैश्वर्य शालियों को अर्थात ऐसे आत्मज्ञानी, बलशाली और धन-संपन्न (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) लोगों को बढ़ाना चाहिए। जिनका आत्मज्ञान, बल और धन दूसरे लोगों के कल्याण में लग रहा हो, उनकी रक्षा करनी चाहिए। यह वेद की पहली शर्त है।
अब दूसरी शर्त पर आइए। दूसरी शर्त है ‘अपघ्नन्तो अराव्ण:’ अर्थात जो कृपण हैं, अदाता हैं, दस्यु हैं, असुर प्रवृत्ति के हैं, ईष्र्यालु हैं और द्वेष-भावना में फंसे पड़े हैं, उनका विनाश करो। तब संसार स्वयं ही आर्य बन जाएगा।
झण्डा, डण्डा और एजेण्डा की एकरूपता
वेद के इसी आदर्श आदेश को क्रियान्वित करने के लिए भारत का सर्वसमाज क्रियाशील रहता था। सारे वर्णों का एक सांझा उद्देश्य होता था ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ भारत की केसरिया पताका भी इसी आदर्श का प्रतीक है, पूरी शिक्षा व्यवस्था भी इसी आदर्श का प्रतीक है, और पूरी सामाजिक धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाएं भी इसी गंगोत्री से निकलीं और इसी में समाहित हो गयीं। जिससे स्पष्ट होता है कि हमारी सभी नीतियों में कितनी शुचिता होती थी। सबका मंतव्य और गंतव्य एक ही होता था, सब एक ही दिशा में सोचते थे और एक ही दिशा में बढ़ते थे। भारत के विषय में कोई चाहे कुछ भी कहे, परंतु यह सत्य है कि इस देश का झण्डा, डंडा (ध्वजदण्ड) और एजेण्डा (कार्य-लक्ष्य) सदा एक रहा है। झण्डा, डंडा और एजेंडा के इस ऐक्य के कारण पतन की अवस्था में भी देश को बांटने की किसी शासक ने कभी मांग नही की। भीतर-भीतर चाहे जितने उत्पात मचे परंतु कभी किसी हिन्दू शासक ने अलग देश बनाकर देश की इस आदर्श सांस्कृतिक परंपरा का उल्लंघन कहीं किया हो-ऐसा कहीं ज्ञात इतिहास में उल्लेख नही मिलता। यही कारण है कि सैकड़ों रियासतों में विभक्त भारत भी अपनी आत्मिक एकता का प्रदर्शन करता रहा और हमें एक भी उदाहरण ऐसा नही मिलता कि अमुक समय में अमुक राजा ने अपना अलग राष्ट्र बनाया और आज वह देश अमुक नाम से जाना जाता है। इसके विपरीत वीरों के अद्भुत और रोमांचकारी बलिदानों की गाथाओं से इतिहास भरा पड़ा है। सचमुच देश के पास इतने मोती हैं कि बड़ी से बड़ी माला भी छोटी पड़ जाएगी और कई बार तो आप मोतियों को पिरोते समय इस धर्मसंकट में भी फंस जाएंगे कि कौन से मोती को कौन से स्थान पर रखा जाए?
वीरों की उत्कृष्ट जीवन गाथा
हम मानते हैं कि कई बार हमारे लोगों से ऐसी भयंकर चूकें हुईं कि उनकी क्षतिपूर्ति देर तक नही हो पायी। परंतु बहुत से वीर ऐसे हुए हैं कि इन भयंकर चूकों के मध्य भी उनका बलिदान जहां आर्यों (हिंदुओं) की उत्कृष्ट जीवन गाथा का साक्षी है वहीं हमारी आने वाली पीढिय़ों को युग युगांत तक गौरवान्वित करने में भी सक्षम हैं।
वीर संयमराय
जब ऐसे वीरों की रोमांचकारी जीवन गाथा की चर्चा चल रही हो तो पृथ्वीराज चौहान के वीर , पराक्रमी सरदार संयमराय का नाम भी सम्मान से लिया जाना चाहिए। चाटुकार इतिहासकारों ने इस वीर की उपेक्षा की है और उसे इतिहास में कहीं भी स्थान नही दिया गया है। क्योंकि इन चाटुकारों ने विदेशी आक्रांताओं से ‘सुपारी’ लेकर भारतीय इतिहास की ‘हत्या’ करने का अपराध किया है और अपराधियों से कभी भी न्याय की या नैतिकता की अपेक्षा नही करनी चाहिए। इसलिए ‘सुपारी’ लेकर ‘राष्ट्र की हत्या’ करने वालों की लेखनी से भारतीय इतिहास पुरूषों के साथ कभी न्याय नही हो पाया।
बात उस समय की है जब पृथ्वीराज चौहान बुंदेलखण्ड में वीर आल्हा ऊदल के साथ युद्घ के मैदान में अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रहा था। दोनों ओर से अतुलित वीरता दिखाई जा रही थी। दुर्भाग्य था भारत का कि दोनों पक्षों के ही वीर सेनानायकों या सैनिकों के गिरने-मरने से मां भारती की करूण चीत्कार निकल पड़ती थी, क्योंकि जिस शक्ति का प्रयोग विदेशी आक्रांताओं के विरूद्घ होना चाहिए था, वह शक्ति बिना बात की बात के लिए व्यर्थ ही नष्ट हो रही थी। पर नियति थी जो खेल दिखा रही थी, अनगिनत योद्घा युद्घ में काम आ चुके थे। यहां तक कि पृथ्वीराज चौहान भी अपने घोड़े से घायल होकर नीचे धरती पर आ गिरे।
जहां पृथ्वीराज चौहान घायल होकर गिरे थे, वहीं उनका वीर सेनानायक संयमराय भी घायल अवस्था में पड़ा हुआ था। युद्घ क्षेत्र में दूर दूर तक सन्नाटा था। दोनों पक्षों के बचे-खुचे सैनिक इधर-उधर भाग गये थे। युद्घ में विजयश्री, पृथ्वीराज चौहान को मिली थी क्योंकि विरोधी पक्ष का कोई बहादुर सैनिक बचा नही था-परंतु नियति का खेल देखिए कि पृथ्वीराज चौहान भी अपनी विजय पर दरबार लगाकर उत्सव मनाने की स्थिति में नहीं था। इसलिए बहुत से इतिहासकारों ने आल्हा-ऊदल के साथ हुए इस युद्घ को अनिर्णीत रहने की संज्ञा भी दी है।
जब गिद्घों ने किया घायल पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण
कुछ भी हो, युद्घ समाप्त हो चुका था। सर्वत्र पसरे हुए सन्नाटे में हवा भी गहराई की वेदना भर रही थी। नीचे पड़े शवों को देखकर आसमान से गिद्घों के झुण्ड के झुण्ड उतरने लगे थे। केाई भी इस अवस्था में नही था कि उन गिद्घों के झुण्ड को उड़ा सके। बहुत से घायल पड़े सैनिक जो अभी जीवन-मृत्यु का संघर्ष कर रहे थे-अपने ऊपर हो रहे गिद्घों के आक्रमण से अत्यंत व्याकुल होकर जब चीत्कार करते तो मानो वेदना भी डकरा पड़ती थी। सारा दृश्य मानव की राक्षसी भावना और भारत के पतन की कहानी की साक्षी दे रहा था। गिद्घ भी आसमान से उतरकर घायल सैनिकों से मानो ये ही पूछ रहे थे कि अंतत: लक्ष्य से और वैदिक आदर्श से भटके क्यों?
समय आया स्वामी भक्ति के प्रदर्शन का
कहा जाता है कि अपने परायों की पहचान दुख में ही होती है। स्वामी भक्ति का परिचय भी संकट काल में ही दिया जाता है।…और आज जब पृथ्वीराज चौहान को नोंचकर खाने के लिए गिद्घ उधर को बढ़ रहा था तो पृथ्वीराज चौहान तो अचेतावस्था में पड़े थे सारी वास्तविकता से सर्वथा अपरीचित थे परंतु उनसे थोड़ी दूर पड़ा उनके वीर सेनानी संयमराय की मूच्र्छा अब टूट चुकी थी। हां, फिर भी वह उठकर किसी गिद्घ को उड़ाने की स्थिति में नही था।
तब मानो उसे महाभारत का ये श्लोक साक्षात धर्म का रूप बनकर या उसके मस्तिष्क में कत्र्तव्य की ज्योति जलाकर प्रकट हो गया, जिसमें महर्षि व्यास कहते हैं :-
न जातु कामान्न भयान्न लोभात धर्म त्यजेत जीवितस्यापि
हेतो: । धर्मोनित्य: सुख दु:खे त्वनित्ये जीवो नित्यो
हेतुरस्य त्वनित्य:।। (5-40-11)
अर्थात किसी भी अवस्था में काम और क्रोध के वशीभूत होकर अथवा भय से भी संत्रस्त होकर तथा मृत्यु का संकट उपस्थित होने पर भी धर्म का परित्याग न करे। जीवात्मा अमर है और धर्म भी शाश्वत है। सुख दुख और दूसरे अन्यान्य कारण सब अनित्य हैं।”
संयमराय को अपना धर्म समझने में तनिक सी भी देर नही लगी। उसने समझ लिया कि पवित्र भूमि भारत माता के लिए इस समय पृथ्वीराज चौहान के प्राणों की रक्षा अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी करने का समय अब आ चुका है। क्योंकि मां भारती की स्वतंत्रता के लिए पृथ्वीराज चौहान का जीवित रहना कही अधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए उसने उन कठिन क्षणों में जो निर्णय लिया वह बहुत ही अदभुत और रोमांच उत्पन्न करने वाला ऐसा निर्णय है जिसे सुनकर उस वीर के प्रति हृदय सम्मान से स्वयं ही झुक जाएगा।
गिद्घों को फेंकने लगा अपने ही शरीर के मांस के टुकड़े काटकर
मां भारती की स्वतंत्रता के लिए तन-मन और धन से समर्पित उस परमवीर ने महाराज पृथ्वीराज चौहान की गिद्घों से प्राणरक्षा के लिए सर्वप्रथम तो उठने का प्रयास किया, परंतु स्वयं को असहाय पाकर उसने महाराज पृथ्वीराज चौहान की ओर बढ़ते गिद्घों के सामने अपने ही शरीर के मांस के टुकड़े काट-काटकर फेंकने आरंभ कर दिये। वीरता, स्वामी भक्ति और मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए ऐसे अनुपम और अद्वितीय कृत्य को देखकर भला किस देशभक्त का हृदय अपने इस देशभक्त के प्रति सम्मान से नही भरेगा? ऐसे लोगों की वीरता की रसधार से ही हमारे हृदय देशभक्ति के लिए संजीवनी लेते रहे हैं और अनंतकाल तक लेते रहेंगे।
पृथ्वीराज चौहान की हुई प्राणरक्षा
जब गिद्घों को अपनी ओर फेंके जा रहे मांस के टुकड़े मिलने लगे तो वे लपक-लपक कर उन्हें उठाने लगे और उन्हेांने संयमराय के स्वामी पृथ्वीराज चौहान और अन्य घायल सैनिकों की ओर बढऩा या उन पर झपट्टा मारना बंद कर दिया।
संयमराय का अपना मांस फेंकने का ये क्रम चल ही रहा था कि घायल पृथ्वीराज चौहान को खोजते-खोजते कुछ उसके सैनिक वहां आ पहुंचे, संयोग की बात थी कि उसी समय पृथ्वीराज चौहान की मूच्र्छा भी टूट गयी। पृथ्वीराज चौहान ने वीरता और अद्भुत पराक्रम का वो दृश्य अपनी आंखों से देखा जिसमें उसका वीर सेनानी संयमराय चौहान के प्राणों की रक्षा के लिए अपना मांस के टुकड़े-टुकड़े करके गिद्घों के सामने फेंक रहा था। पृथ्वीराज चौहान वीरता की उस पराकाष्ठा को देखकर अपने स्वामी भक्त संयमराय के प्रति रोमांच से भर उठा।
….और काल रूपी गिद्घ भी प्रकट हो गया
पर तब तक संयमराय को ले जाने के लिए काल रूपी गिद्घ भी वहां उपस्थित हो चुका था, वह ऐसा गिद्घ था जिसे पृथ्वीराज चौहान भी नही उठा सकते थे। यदि कोई मनुष्य संयमराय पर आक्रमण कर रहा होता तो पृथ्वीराज चौहान भी अपने शरीर की बोटी-बोटी दान कर सकते थे, परंतु काल का ‘मौन प्रहार’ हुआ और संयमराय अंतिम क्षणों में अपने स्वामी की ओर एक बार निश्चिंतता से निहारकर और इस बात से पूर्णत: आश्वस्त होकर कि अब उसके स्वामी के प्राणों को कोई संकट नही है, इस असार संसार से सदा-सदा के लिए विदा हो गया। संयमराय के असीम संयम को देखकर पृथ्वीराज चौहान ने उसके शव से लिपटकर बच्चों की भांति विलाप किया, परंतु अब क्या रखा था? पंछी उड़ चुका था और पिंजरा मिट्टी बना पड़ा था। परंतु यह पिंजरा किसी साधारण पंछी का नही था, यह अदभुत शौर्य और साहस के प्रतीक बने संयमराय जैसे असाधारण व्यक्तित्व के धनी, देशभक्त, स्वतंत्रता प्रेमी, स्वामीभक्त और शौर्य का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति का पिंजरा था। जिसके सामने आज सारा राष्ट्र श्रद्घांजलि देने के लिए पृथ्वीराज चौहान के रूप में खड़ा था। इतिहास में ऐसे क्षण भला और किस व्यक्ति के लिए आए हैं, जब उसके शौर्य के लिए पूरा राष्ट्र ही अपने सम्राट के माध्यम से अभिनंदन करने के लिए उठ खड़ा हुआ हो। सम्राट ने सारे देश की ओर से उस वीर को नमन किया और उसका अंतिम संस्कार पूर्णत: राजकीय सम्मान के साथ कराने का प्रबंध किया गया।
गोरी ने कहा-वाह संयमराय
कहा जाता है कि जब संयमराय की अपूर्व शौर्य गाथा का यशोगान होते होते शाहबुद्दीन गोरी के कानों तक पहुंचा था तो वह भी ऐसे वीर की ऐसी शौर्य गाथा को सुनकर उछल पड़ा था। उसके मुंह से अनायास ही निकल गया था कि ”वाह! संयमराय वाह!! तुमने अपना बलिदान जिन विषम परिस्थितियों में दिया है उससे तुम्हारा स्वयं का और तुम्हारी अपनी पवित्र भारत माता का नाम धन्य हो गया है। सचमुच वह भारत माता धन्य है, जिस पर तुमने जन्म लिया है।”
गीता का प्रभाव
वेदों ने हमारे देश के लोगों में राष्ट्र के लिए सर्वस्व होम करने के लिए प्राचीन काल से ही अनोखा मार्गदर्शन किया है। गीता में श्रीकृष्ण जी महाराज ने समय के अनुसार उसी वैदिक मार्गदर्शन को संक्षेप में युद्घ से विमुख हुए अर्जुन को जब सुनाया तो वह भी अपने धर्म को पहचान गया। तब से गीता हमारे लिए राष्ट्र के प्रति हमारे धर्म को समझाने में प्रमुख भूमिका निभाती आ रही है। पं. भगवद्दत्त जी ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति का इतिहास’ में लिखा है कि गीता ने न केवल भारत को अपितु विश्व को भी प्रभावित किया है। इसका उदाहरण देते हुए वह लिखते हैं-”जोजेफ बार्बर नामक जर्मन विद्वान अंतर्राष्ट्रीय धर्म-नियम (कानून) के महान विशेषज्ञ हैं। हर विषय में हिटलर उनका परामर्श लिया करता था। वे कई वर्ष भारत में रहे अपने प्रथम समागम में सन 1950 के आसपास मैंने उनसे पूछा प्रिय महाशय आप भारतीय बातों की ओर कैसे झुके? उत्तर में वे बोले-
”बर्लिन पर विमानों द्वारा बम गिर रहे थे। कारण वश मैं भूमिगत रक्षा गृह के ऊपर खड़ा था। एक बम रक्षागृह के कोने पर पड़ा।
विमान लौट गये। साइरन बजे। रक्षागृह के भीतर ठहरे व्यक्ति दूसरे स्थान पर जाने के लिए दौड़ रहे थे। उस बम गिरने के स्थान के पास ही एक युवती देर से खड़ी थी। वह दौड़ी नही, मैं आश्चर्य चकित हो उसके पास पहुंचा। पूछा-आप जाती नही हैं? वह बोली-‘नहीं’।
‘क्यों’?
‘लोगों की गति देख रही हूं।’
‘क्या तुम्हारे मन में भय नही है’?
युवती बोली-‘अणुमात्र भी नही’।
मैंने अधिक आश्चर्य से पूछा-क्यों?
उसने शांत भाव से उत्तर दिया-‘महाशय मैंने गीता पढ़ी है। मृत्यु और जीवन मेरे लिए एक समान हैं।’ मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मैं सोच नही सका कि ग्रंथ पढऩे का इस पर कैसा प्रभाव हुआ। बस, उसी क्षण से मेरे हृदय में आर्य संस्कृति के प्रति श्रद्घा जम गयी। मैं गीता पढ़ता हूं।”
लेखक लिखते हैं कि जर्मन महोपाध्याय की बात सुनकर मेरे भी रोमांच हो आया। मैंने मन ही मन श्रीकृष्ण को नमस्कार किया। धन्य हो, महाराज! पांच हजार वर्ष हो गये, आपका उपदेश सैकड़ों भक्तों का आज भी उद्घार कर रहा है।
जिस गीता ने एक विदेशी महिला को इस प्रकार प्रभावित किया कि वह बमों के मध्य अविचल रूप से खड़ी रही उसी गीता ने संयमराय को युद्घ क्षेत्र में अपना मांस टुकड़े-टुकड़े कर गिद्घों के सामने फेंककर अपना धर्म निभाने के लिए प्रेरित न किया हो भला ऐसा कैसे हो सकता है?
यह तो हम हैं कि जिन्होंने इतिहास पर वेदों, उपनिषदों, रामायण और महाभारत के या ‘गीता’ के प्रभाव की कभी समीक्षा नही की। इसका कारण केवल यही है कि जो इतिहास विदेशियों ने लिख दिया हम उसी को ‘ब्रह्मवाक्य’ मानकर आगे चल रहे हैं। इन विदेशियों ने यहां रहकर अपने इतिहास लेखन के माध्यम से भारत के इतिहास में अतार्किक बातें भरकर यूनानियों और भारतीयों के संपर्क में आने पर भारतीय संस्कृति पर पड़े प्रभावों की काल्पनिक बातें की हैं। जिससे हमारा इतिहास अतार्किक और मिथ्या कथनों या तथ्यों का पुलिंदा बनकर रह गया है। सत्य कहीं छुपा दिया गया है और ऐसा मिथ्यावाद हमारे ऊपर आरोपित कर दिया गया है जिससे हमारे भीतर निराशा जन्मे और हम अपने गौरवपूर्ण अतीत के प्रति उपेक्षा भाव से भर जायें।
संयमराय के बलिदान का मूल्य हम कब समझेंगे?
जब भारतीय इतिहास को भारतीय दृष्टिकोण से लिखा जाएगा तो वेद, उपनिषद आदि आर्य ग्रंथों के भारतीय इतिहास और मनुष्य समाज पर पड़े प्रभावों की कोई गंभीर लेखक उपेक्षा नही कर पाएगा।
भला ये कैसे संभव है कि जो ग्रंथ आज तक भारतीय जनसमाज को प्रभावित और प्रेरित कर रहे हों, उन्होंने इतिहास को कभी प्रेरित ना किया हो। वैसे भी हमें स्मरण रखना चाहिए कि इतिहास के निर्माता मनुष्य ही होते हैं और मनुष्यों के निर्माता उनके अपने पवित्र ग्रंथ होते हैं। जितने भर भी विदेशी आक्रांता भारत में आये उन सब पर भी उनके धर्मग्रंथों का ही प्रभाव था, यदि यह बात उन विदेशी आक्रांताओं के विषय में सत्य है तो भारतीयों के विषय में ये कैसे सत्य नही हो सकता कि उन्हें भी अपने देश धर्म पर मर मिटने की प्रेरणा अपने ग्रंथों से मिली। पं. शिव कुमार शास्त्री अपनी पुस्तक श्रुति सौरभ के पृष्ठ 71 पर लिखते हैं-”वेद कहता है-अहम भूमिमददाम् आर्याय (ऋ 4-26-2) मैं यह भूमि आर्यों को देता हूं। वस्तुत: सुख और शांति के लिए इस भूमि पर आर्यों का अर्थात ऐसे लोगों का आधिपत्य होना चाहिए जो जीवमात्र के सुख दुख को अपना सुख दुख समझकर व्यवहार करें।”
जो विदेशी मुस्लिम आक्रांता यहां आ रहे थे उनका युद्घ आदर्श या जीवनादर्श भारत के इस राष्ट्रीय संकल्प के सर्वथा विपरीत था, वो जीवमात्र के सुख दुख को अपना सुख दुख नही मान रहे थे। इसलिए उनसे युद्घ होना अवश्यम्भावी था, एक ओर हमारा राष्ट्रीय संकल्प था और एक ओर उनका अपना संकल्प था।
उन संकल्पों में कहीं दूर-दूर तक भी ऐक्य नही था। अपने राष्ट्रीय संकल्प की पूर्ति के लिए संयमराय ने अपनी प्राणाहुति दी, इस सत्य को हमने आज तक नही समझा।….कब समझेंगे?
क्रमश: