मनुष्य का आदिम ज्ञान और भाषा-13
ऐतरेय ब्राह्मण की साक्षी
इसी तरह की दूसरी नामावलि ऐतरेय ब्राह्मण 7। 34 में लिखी हुई। उसमें लिखा है कि कावेषय: तुर, साहदेव्य: सोमक: साञ्र्जय: सहदेव, दैवावृधो अभ्रू: वैदर्भों भीम गांधारी नग्नचित्त जानकि: ऋुवित पैजवन: सुदस…..सर्वे हैव महाराजा आसुरादित्य इव ह स्म धियां प्रतिष्ठास्तपन्तित सर्वाभ्यो दिग्भ्यो बलिमावहन्ते।
इसमें भी सार्वभौम राजों को उनके देश आदि के साथ कहा गया है। इन नामावलियों से स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल में प्रसिद्घ खानदानों की, चक्रवर्ती राजाओं की और सार्वभौम राजाओं की बड़ी बड़ी अनेकों नामावलियां थीं, जिनको एक में मिला मिलाकर पौराणिक बंदीजनों ने वंशावलियों का रूप दे दिया है। इसलिए इनके सहारे आर्यों के इतिहास की वर्ष संख्या नही निकल सकती। रहा, दूसरा विभाग जो महाभारत से इस पार का है, उसमें चार वंशावलियां इस वंश से आरंभ होकर नंदवंश तक की हैं, जो ठीक हैं, और वंशावलियां ही हैं। परंतु वेदों का समय उनसे अथवा किसी भी वंशावलि से नही निकल सकता, चाहे वह महाभारत के इस पार की हो उस पार की। इसका कारण यह है कि वेदों में इतिहास से संबंध रखने वाली कुछ भी सामग्री नही है। वेदों में जो ऐतिहासिक सामग्री दिखती है, उसका कारण भी पुराण ही है। जिस प्रकार नामावलियों को बनाकर पुराणों ने आर्यों के इतिहास की दीर्घकालीनता में संदेह उत्पन्न करा दिया है, उसी तरह वेदों के आलंकारिक वर्णनों को ऐतिहासिक पुरूषों के साथ मिलाकर वेदों में इतिहास का भी भ्रम उत्पन्न करा दिया। पुराणकारों ने प्रयत्न तो यह किया कि वेदों के चमत्कारपूर्ण गूढ़ वर्णनों को ऐतिहासिक घटनाओं के साथ मिलाकर रहस्य ऐसी जनता तक भी पहुंचा दिया जाए जो वेदों के चमत्कारपूर्ण गूढ वर्णनों को ऐतिहासिक घटनाओं के साथ जोड़कर देखने लगें और जो वेदों की सूक्ष्म बातें नही समझ सकती। श्रीमदभागवत 1, 4, 28 में लिखा भी है कि ‘भारतम्यपदेशेन हृास्रायार्थश्व दर्शिंत:’ अर्थात पुराणों में भारत के इतिहास के मिष से का रहस्य ही खोला गया है। यही कारण है कि महाभारत में भी स्पष्ट कर दिया गया है इतिहासपुराणाभ्यां समुपबृंहयेत अर्थात इतिहासपुराणों से वेदों का मर्म जाना जाता है।
परंतु इस चातुर्य का फल यह हुआ कि लोग वेदों से ही पौराणिक इतिहास निकाल रहे हैं। वे कहते हैं कि वेदों में आयु, नहुष, ययाति, वशिष्ठ, जमदग्नि, गंगा, जमुना, अयोध्या, व्रज और अर्व आदि नाम हैं। इतना ही नही प्रत्युत वेदों मेें राजाओं के युद्घ का भी वर्णन है।
इससे सिद्घ होता है कि वेदों की यह ऐतिहासिक सामग्री वही है जिसका विस्तार पुराणों में किया गया है। किंतु आरोप में कुछ भी दम नही है। इससे वेदों में इतिहास सिद्घ नही होता। इसका कारण यह है वेदों, ब्राह्मणों पुराणों के सूक्ष्म अवलोकन से ज्ञात होता है कि संस्कृत के समस्त साहित्य में इतिहास से संबंध रखने वाले संभव, सम्भवासम्भव और संभव तीन प्रकार के वर्णन पाए जाते हैं, जो तीन भागों में बंटे हैं। इनमें जितना भाग संभव वर्णन से संबंध है, वह वेद का है और किसी न किसी चमत्कारिक अथवा जातिवाचक पदार्थ से संबंध रखता है। मनुष्य, नगर, नदी और देश आदि व्यक्तिवाचक पदार्थ से नही। परंतु जितना भाग संभवासंभव और संभव वर्णन संबंध रखता है वह पुराणों और ब्राह्मणग्रंथों में ही आता है, वेदों में नही। इसका कारण है-कल्पना करो कि वेद ने किसी पदार्थ के लिए कोई चमत्कारिक वर्णन किया और इधर ब्राह्मणकाल में उसी नाम का कोई मनुष्य हुआ, जिसका चरित्र साधारण मानुषी था। अब कुछ काल बीतने पर किसी कवि ने पुराणकाल में एक कल्पना की और उस कल्पना में दोनों प्रकार के वर्णन मिला दिये, जो आगे चलकर यह सिद्घ करने की सामग्री बन गयी कि दोनों एक ही हैं। ऐसे में यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कितना भाग ऐतिहासिक है और कितना अलंकारिक है।
संस्कृत साहित्य में इस विषय के अनेकों प्रमाण विद्यमान हैं। विश्वामित्र और मेनका वेद के चमत्कारिक पदार्थ हैं। दुष्यंत और शकुंतला मनुष्य हैं। पर दोनों को एक में मिलाने से भरत को इंद्र के यहां जाना पड़ा। इंद्र भी चमत्कारिक पदार्थ है।
ऐसी दशा में भरत और दुष्यंत को, मेनका और विश्वामित्र के साथ जोड़कर, यही तो भ्रम करा दिया गया है कि वेदों में भरत के पूर्वजों का वर्णन है। पर यदि वेदों को खोलकर विश्वामित्र और मेनका वाले मंत्रों को पढिय़े, तो उनमें मानुषी वर्णन लेशमात्र भी न मिलेगा और न इंद्र के यहां जाने वाले वैदिक भरत का इस लौकिक भरत से कुछ संबंध दिखेगा।
शांतनु की शादी गंगा से हुई। इधर शांतनु के भीष्म हुए। पहिला वर्णन वैदिक है-चमत्कारिक पदार्थों का है और दूसरा ऐतिहासिक है। किंतु एक में जोड़ देने से परिणाम यह हुआ कि लोग भीष्म को गंगा नदी का पुत्र समझने लगे। गंगा और शांतनु को मिलाकर वैदिक अलंकार बनता है और सीधे साधे शांतनु और सीधे सादे भीष्म को लेकर सांसारिक इतिहास बना है। कहने का मतलब यह है कि इस दूसरे समुदाय का वर्णन बहुत ही ध्यानपूर्वक पढऩे लायक है। हमने ऊपर जो प्रसंग लिखे हैं, उनसे यही सूचित होता है कि हिंदुओं का चाहे जो इतिहास वेद में बतलाया जाए, पर तुरंत देख लेना चाहिए कि उसमें कहीं चमत्कारिक वर्णन तो नही है? ऐसा करने से उसमें अपूर्वता मिलेगी और वह अमानुषी सिद्घ होगा।
हमने पहले ही लिख दिया है कि मध्यकालीन कवियों और पुराणकारों ने वैदिक और ऐतिहासिक समान शब्दों के वण्र्य व्यक्तियों का सम्मिलित वर्णन करके महान झंझट फेला दिया है। इसी से पूर्व पुरूषों की चमत्कारिक उत्पत्तियों के वर्णनों का सिलसिला चल पड़ा और यहीं से वेदों में ऐतिहासिक घटनाओं की मिथ्या भ्रांति होने लगी।
क्रमश: