ओ३म्
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संसार में स्थूल व सूक्ष्म दो प्रकार के पदार्थ होते हैं। स्थूल पदार्थों को सरलता से देखा जा सकता है। इसी से उनका प्रत्यक्ष भी हो जाता है। किसी पदार्थ का ज्ञान उसके गुणों को समग्रता से जानने पर होता है। सूक्ष्म पदार्थों नेत्रों से तो दिखाई नहीं देते परन्तु वह अपने लक्षणों से अपनी उपस्थिति व जगत् में विद्यमान होने का बोध वा ज्ञान अवश्य कराते हैं। अनेक रोगों के सूक्ष्म किटाणु होते हैं जिनको आंखों से देखा नहीं जा सकता परन्तु रोग होने पर व रोग के कारणों की जांच कराने पर उनका कारण सूक्ष्म बैक्टिरियां व विषाणु आदि सिद्ध होते हैं जिनके स्वभाव आदि को जानकर उनके गुणों के विपरीत ओषधि पदार्थों का सेवन कराकर रोग को ठीक करते हैं। सूक्ष्म पदार्थों में स्वयं मनुष्य एवं इतर सभी प्राणियों में एक अनादि व चेतन पदार्थ जीवात्मा का होना भी होता है जो आंखों से तो दिखाई नहीं देता परन्तु जड़ प्रकृति से बने शरीरों को गति करते व उनके अनेकानेक गुणों, कर्म व स्वभावों से उनमें एक चेतन व अल्पज्ञ जीवात्मा होने की पुष्टि व सिद्धि होती है। हम अपने मोबाइल आदि पर जिन ज्ञात व अज्ञात मनुष्यों की ध्वनियों व वाणी को सुनते हैं उनको न देख पाने पर भी उनके अस्तित्व का पूर्ण व निभ्र्रम ज्ञान मनुष्य को होता है। इसी प्रकार से हम संसार को देखते हैं तो हमें इस संसार के सूक्ष्म कणों से बने होने सहित इनको बनाने वाली एक सूक्ष्म सत्ता जो आंखों से दिखाई तो नहीं देती परन्तु जिसकी योजना व ज्ञान व कर्म शक्ति से यह सृष्टि बनी है, उस स्रष्टा व सृष्टिकर्ता का ज्ञान हमें होता है। इसे निभ्र्रान्त ज्ञान माना जा सकता है। ऐसा इसलिये कि बिना कर्ता के कोई कार्य नहीं होता।
संसार का प्रत्येक सुनियोजित कार्य किसी न किसी कर्ता के द्वारा ही होता है। यह हमारी सृष्टि अत्यन्त सुनियोजित एवं किसी विशेष प्रयोजन के लिये एक दिव्य अलौकिक अदृश्य ज्ञानवान व सर्वशक्तिमान सत्ता से उत्पन्न हुई है। उसका ज्ञान इस सृष्टि व इसमें विद्यमान गुणों को देखकर द्रष्टा व मनुष्य को होता है। जो मनुष्य व विद्वान सृष्टि को देखते हैं परन्तु इसके कर्ता ईश्वर की उपेक्षा, अवहेलना व इसको अस्वीकार करते हैं, उनमें बुद्धि का दोष होना माना जा सकता है। जब विद्वान ऐसे अनेक तत्वों, पदार्थों व सत्ताओं का अस्तित्व मानते हैं जो आंखों से दृष्टिगोचर नही होती, परन्तु जो संसार व मनुष्य के जीवन को प्रभावित करती हैं, तो सूक्ष्म व अपने गुणों से प्रत्यक्ष सत्तायें ईश्वर व आत्मा के अस्तित्व को न मानना उन लोगों के अविवेक, अज्ञान, हठ, दुराग्रह आदि का परिणाम ही माना जा सकता है। इस प्रसंग में सत्यार्थप्रकाश में ऋषि दयानन्द के दिये शब्द स्मरण हो उठते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य व असत्य को जानने वाला होता है परन्तु अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह एवं अविद्यादि दोषों के कारण सत्य को छोड़ असत्य में प्रवृत्त हो जाता है। यही कारण बहुत से शिक्षित व पठित लोगों का इस सृष्टि के कर्ता, स्रष्टा व रचयिता को न मानने का होता है। ईश्वर अपनी रचना विशेष आदि गुणों से रचयिता के रूप में विद्यमान है। यदि रचनाकार न हो तो रचना कदापि नहीं हो सकती। यदि हम कोई चित्र व चलचित्र देख रहे हैं तो उनको बनाने वाले किसी रचनाकार का अस्तित्व स्वयंसिद्ध होता है। रचना होने के साथ उसमें रचनाकार का प्रयोजन भी होता है। हमें उस प्रयोजन को भी जानने का प्रयत्न करना चाहिये। इससे हम रचनाकार, रचना व उसके प्रयोजन को जानकर उनसे उचित लाभ लेकर लाभ उठा सकते हैं व अज्ञान व उसके दुष्प्रभावों से बच सकते हैं।
संसार में हमने सृष्टि नियमों व व्यवस्था को देखते हैं। यह नियम व व्यवस्थायें अपने आप, बिना किसी चेतन व सर्वज्ञ सत्ता के अस्तित्व में नहीं आ गई हैं। यह सृष्टि, इसके नियम व व्यवस्थायें इनके रचनाकार व स्रष्टा के विशेष प्रयोजन के कारण अस्तित्व में आई हैं। हमें रचनाकार जिसे हम ईश्वर, परमात्मा, सर्वेश्वर, परमेश्वर आदि अनेक नामों से पुकारते हैं, उसके सृष्टि को बनाने, उसका पालन करने व चलाने तथा इसमें विद्यमान प्रयोजन व कारण को अपनी बुद्धि से जानने का प्रयत्न करना चाहिये। यह सम्भव है कि प्रत्येक साधारण मनुष्य इसको नहीं जान सकता। हम भी नहीं जान सकते थे यदि हमें हमारे आचार्य एवं विद्वान यथा ऋषि दयानन्द जी तथा आचार्यों के आचार्य तथा गुरुओं के गुरु आदिगुरु परमात्मा ने वेदज्ञान देकर इन सब बातों को सृष्टि के आरम्भ में ही हमारे पूर्वज ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा जी आदि को न जनाया होता। हमने व अधिकांश लोगों ने इस सृष्टि के रहस्यों का जो ज्ञान प्राप्त किया है वह या तो वेद से आरम्भ ऋषि परम्परा व उनके ग्रन्थों से हुआ है अथवा विद्वानों व गुणीजनों के अनुसंधानों, अन्वेषणों, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन व ध्यान प्रक्रियाओं सहित वैज्ञानिक प्रयोगों से हुआ है। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में ईश्वर ने मनुष्यों को उपदेश किया है कि हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है उस सब में व्याप्त होकर जो नियन्ता (समस्त संसार को नियम व व्यवस्थाओं में चलाने वाला) है वह ईश्वर कहलाता है। उस से डर कर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरणरूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोग। इस मन्त्रार्थ वा वेदार्थ से ईश्वर का अस्तित्व होने तथा मनुष्य को ईश्वर की व्यवस्था को वेद पढ़कर जानने व उसी में चलने की शिक्षा दी गई है। मनुष्य को चाहिये कि वह वेदों को पढ़े और ईश्वर के मनुष्यों को उपदेशों को जानकर उसके अनुसार आचरण करें जैसा कि सन्तानों को अपने माता-पिताओं से शिक्षा व उपदेश ग्रहण कर उनका पालन व आचरण करना होता है।
ऋग्वेद के मंत्र10/48/1 में उपदेश करते हुए भी ईश्वर ने कहा है कि हे मनुष्यों! मैं ईश्वर सब के पूर्व विद्यमान सब जगत् का पति वा स्वामी हूं। मैं सनातन जगत्कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता हूं। मुझ ही को सब जीव वा मनुष्य आदि प्राणी जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं वैसे पुकारें। मैं(ईश्वर) सबको सुख देनेहारे जगत् के लिये नाना प्रकार के भोजनों का विभाग पालन के लिये करता हूं। इसका अभिप्राय है कि परमात्मा ने नाना प्रकार के जो भोजन आदि पदार्थ बनाये हैं वह सब जीवों को सुख देने के लिए बनाये हैं। ऐसे ही अनेक वेदमन्त्र हैं जिन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है। यह भी लिखना उचित है कि वेदों की सभी शिक्षायें मनुष्यों की लोक व परलोक में उन्नति करने वाली हैं और इनका पालन करने से मनुष्य बन्धनों में न फंस कर लोक कल्याण व ईश्वरोपासना आदि कार्यों को करते हुए अपना ज्ञान बढ़ाकर मोक्षगामी बनते हैं।
सृष्टि में ईश्वर विद्यमान है, इसकी सिद्धि कैसे होती है। इसका उत्तर ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में दिया है। वह कहते हैं कि ईश्वर की सिद्धि सभी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से होती है। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं कि जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है उसको प्रत्यक्ष कहते हैं परन्तु वह निर्भ्रम हो। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उस का आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है।
ऋषि दयानन्द आगे लिखते हैं कि और जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव की इच्छा व ज्ञान आदि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशंकता ओर आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु(जीवात्मा के भीतर विद्यमान) परमात्मा की ओर से होता है। और जब जीवात्मा शुद्ध होके परमात्मा का विचार (गुणों का चिन्तन व ध्यान) करने में तत्पर रहता है, उस को उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमान आदि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है। इस प्रकार से ईश्वर की सिद्धि स्पष्ट रूप में हो जातर है। जो व्यक्ति इन तथ्यों की उपस्थिति में भी ईश्वर को न मानने का हठ करते हैं ऐसे लोगों के लिये ही ऋषि दयानन्द ने कहा है कि वह मनुष्य अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह तथा अविद्या आदि के कारण सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाते हैं। ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड में व्यापक है, वह ईश्वर सत्य है, वह तर्क एवं युक्तियों से भी सिद्ध है तथा उसका साक्षात्कार यम व नियमों का पालन करते हुए तथा योग की ध्यान विधि से साधना को करके किया जा सकता है। ऐसा ही हमारे पूर्वज ऋषि व योगी अनादि काल से करते आये हैं। आज भी योग साधना द्वारा ईश्वर का प्रत्यक्ष किया जा सकता है।
सृष्टि में ईश्वर का अस्तित्व सत्य एवं सिद्ध है। सृष्टि में विद्यमान सभी नियम एवं व्यवस्थायें ईश्वर के होने का बोध करा रहें हैं। हमें अपनी बुद्धि को यम व नियम सहित प्राणायाम आदि का अभ्यास करके शुद्ध करना चाहिये। वेद मन्त्रों के अर्थों का चिन्तन कर हम ध्यान लगाकार ईश्वर से एकाकार होकर उसका प्रत्यक्ष व साक्षात्कार कर सकते हैं। सभी मनुष्यों को वेद, वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन व स्वाध्याय करना चाहिये। इससे उनका ईश्वर विषयक ज्ञान बढ़ेगा व वह ईश्वर का साक्षात्कार कर सकेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य