राकेश कुमार आर्य
गौ आधारित हमारी कृषि व्यवस्था को उजाड़कर आप भारत को नही बसा सकते। आचार्य विनोबा भावे का कथन है कि-”भारत किसानों का देश है, खेती का शोध भी भारत में ही हुआ है। गाय बैलों की अच्छी सुरक्षा पर हिन्दुस्तान की खेती निर्भर है। हिन्दुस्थानी सभ्यता का नाम ही ‘गोसेवा’ है, लेकिन आज गाय की स्थिति हिंदुस्तान में उन देशों से कहीं अधिक खराब है, जिन्होंने गोसेवा का नाम नही लिया था। हमने नाम तो लिया पर काम नही। जो हुआ, सो हुआ। लेकिन अब तो चेतें।”
आचार्य विनोबा भावे जी यदि स्वर्ग से भारत की वर्तमान स्थिति को देख रहे होंगे तो उनकी अपनी पीड़ा और अधिक बढ़ी ही होगी। आज गाय सहित कोई भी पशु इस देश में सुरक्षित नही है। परंतु जब तक भारत में गाय की पूजा होती रही और लोगों का पशुओं के प्रति व्यवहार दयापूर्ण रहा तब तक देश आर्थिक रूप से संपन्न रहा। पश्चिमी देशों की भौतिक उन्नति ‘मशीनी उन्नति’ है। उसमें संवेदनाओं को कोई स्थान नही है। पश्चिमी जगत ने शिक्षा को रोजगार प्रद बनाया और हमने रोजगार प्रद गाय को बनाया। हमने शिक्षा को केवल मानव निर्माण के लिए उचित समझा। इसलिए उच्चशिक्षा तक को भी रोजगार प्राप्त करने के लिए एक आवश्यक योग्यता के रूप में मान्यता प्रदान नही की। शिक्षा संस्कारप्रद रहे-यही उचित माना। परंतु मैकाले की शिक्षा पद्घति ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को तो शीर्षासन करा ही दिया यहां की अर्थव्यवस्था और कृषि व्यवस्था को भी शीर्षासन की मुद्रा में ला दिया। सारी व्यवस्थाएं मशीनी बन कर रह गयी हैं। इसलिए पशुओं के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण केवल मशीनी होकर रह गया है। देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने ‘बिहार प्रांतीय गोशाला-पिंजरापोल सम्मेलन’ के अवसर पर पटना में कहा था-”पशुओं से हमारी जितनी आप होती है और उनसे जो काम हमको मिलता है, उसकी मजदूरी इतनी होती है कि उन सबको यदि जोड़ा जाए तो ज्ञात होगा कि देश में इतनी आय का कोई दूसरा उपाय नही है, जितनी आय को हम पशुओं से लेते हैं। देश में जितना चावल होता है, उसका मूल्य पशुओं से चलने वाली आय का एक तिहाई और गेंहूं का मूल्य एक चौथाई है। इसी से आप समझ सकते हैं कि किस प्रकार देश में फेेले हुए जानवर मेह की बूंदों की भांति काम कर रहे हैं।”
वास्तव में मशीनी विकास मानव की जीत नही हार है। क्योंकि जीत वो होती है, जिससे आपके व्यक्तित्व का विकास हो और आप, आपका परिवार, मौहल्ला पड़ोस, क्षेत्र या प्रदेश ही नही अपितु मानवता भी लाभान्वित हो। जिस विकास का परिणाम आपके लिए आपके परिवार और अंत में मानवता के लिए भी घातक आये उसे आप विकास नही विनाश कहें, तो ही उचित है। मशीन ने हमें सुविधाएं दी हैं, पर हमें शांति नही दी। शांति मानव के लिए तभी थी जब वह अन्य पशुओं के साथ मिलकर सहचर्य का जीवन यापन कर रहा था। आज के नेता हमारे देश की अर्थव्यवस्था को मशीनी बनाने पर तुले हैं, और तर्क पर तर्क दिये जाते हैं कि मशीनों ने ये कर दिया है, वो कर दिया है। ऐसी परिस्थितियों में ये मशीन ही गाय के गले पर चल रही है और देश की सार्वत्रिक हानि कर रही है।
पुरूषोत्तम दास टण्डन ने ऐसे नेताओं को लताड़ते हुए 22 जनवरी 1956 को कलकत्ता में आयोजित सर्वदलीय गोरक्षा सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था-”हिंदू जाति अपनी जड़ पर ही कुठाराघात को उतारू हो गयी है। जो नेता विदेशों के उदाहरण देकर हमें समझना चाहते हैं, वे अपनी जाति और देश के मर्मस्थल पर चोट पहुंचा रहे हैं। कोई भी उदाहरण अथवा तर्क हमें अपनी मातृभूमि से अलग नही कर सकता।”
पुरूषोत्तम दास टण्डन का ये संकेत उस समय की नेहरू सरकार की ओर था। नेहरू स्वयं गोहत्या जारी रखने के बहाने खोज रहे थे, और उनकी इच्छा को देखकर ही उनके चाटुकार अधिकारियों एवं नेताओं ने देश में गोहत्या जारी रखने की युक्तियां खोजीं। पुरूषोत्तम दास टण्डन जैसा देशभक्त नेता इस स्थिति परिस्थिति से निरपेक्ष नही रह सकता था, इसलिए मशीनों से उज्ज्वल भारत का निर्माण करने का सपना लेते तत्कालीन नेतृत्व को उन्होंने सचेत किया था। यह अलग बात है कि नेहरू सरकार ने उनकी बात को अनुसुना किया, पर उचित समय पर बोलना भी अपने कत्र्तव्य और धर्म का निर्वाह करना ही होता है। उन्होंने आगे अपने भाषण में कहा था-”केन्द्र सरकार संविधान की दुहाई देकर एक केन्द्रीय अधिनियम बनाने में असमर्थता प्रकट कर रही है।” उन्होंने गांधीजी के उस वाक्य को दोहराया कि-”प्रत्येक भारतीय उनके इस कथन का समर्थन करता है कि गोवध मनुष्य वध के समान है।” शिवकुमार गोयल जी जैसे राष्ट्रवादी चिंतक और लेखक के द्वारा हमें ज्ञात होता है कि पुरूषोत्तम दास टण्डन ने उक्त भाषण में कांग्रेस की तत्कालीन नेहरू सरकार की उस नीति की भी कड़ी आलोचना की थी जिसमें ‘गाय बछड़ों’ की चमड़ी मांस को बेचकर डॉलर कमाने की अनुचित और अतार्किक नीति समाविष्ट थी। श्री टण्डन ने बंगाल सरकार की गोहत्या नीति पर करारी चोट करते हुए कहा था-”यह पाप यहां पराकाष्ठा पर पहुंच चुका है, और यह पाप देश के लिए महान कलंक है। वर्ष में तीन लाख से अधिक अच्छी-अच्छी गायें यहां काट दी जाती हैं। यही स्थिति मुंंबई की है। यदि यही क्रम जारी रहा…तो देश की अमूल्य निधि से देश को हाथ धोना पड़ जाएगा। औरों के लिए रूपये पैसे सोना चांदी का बहुत मूल्य हो सकता है, परंतु भारत के लिए तो गाय ही प्रधान धन है।”
टण्डन जी की इस चेतावनी पर यदि तत्कालीन नेतृत्व जागरूक हो गया होता तो सचमुच आज की दयनीय और करूणा भरी स्थिति से बचा सकता था। लेखक को 18 सितंबर 2013 को कलकत्ता में आयोजित एक गोरक्षा सम्मेलन में वक्ता के रूप में आयोजक मंडल द्वारा आमंत्रित किया गया था तो वहां उपस्थित गोभक्तों ने बताया था पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश की सीमा पर गोहत्या को किस प्रकार खुल्लमखुल्ला एक पेशे के रूप में किया जा रहा है? उसे सुनकर लेखक को टण्डन जी के ये शब्द अनायास ही स्मरण हो आये थे, कि हमें किस प्रकार अपनी अमूल्य निधि से हाथ धोना पड़ रहा है? बड़े और सयाने लोग घटनाओं की अंतिम परिणति पर विचार किया करते हैं और समय से पहले परिणाम की घोषणा कर दिया करते हैं। टण्डन परिणाम बता गये पर जो लोग इस परिणाम की ओर चलने के लिए उस समय कटिबद्घ थे वे तनिक भी नही चेते।
उनकी चाल ज्यों की त्यों बनी रही और हमारे देश के जिस बंगाल प्रांत में कभी गोरक्षा के लिए बड़े-बड़े यज्ञ किये जाया करते थे उसी की पावन भूमि को आज दुष्टों ने अपवित्र करके रख दिया है।
वहां गाय के खून से गंगा लाल हो रही है। बांगला देश की सारी सीमा को ही बूचड़खाना बनाकर रख दिया गया है। भक्ति, मुक्ति और शक्ति का स्रोत गाय माता हमारी दुष्टता का शिकार हो रही है और हमारा राष्ट्रीय नेतृत्व आंखें बंद किये सारे दृश्य की ओर पूर्णत: असावधान की मुद्रा में खड़ा है।
राष्ट्रकवि के ये शब्द कितने मार्मिक हैं :-
है भूमि वंध्या हो रही, वृष जाति दिन दिन घट रही।
घी दूध दुर्लभ हो रहा बलवीर्य की जड़ कट रही।।
गोवंश के उपकार की सब ओर आज पुकार है।
तो भी यहां उसका निरंतर हो रहा संहार है।।
देखते हैं राजर्षि पी.डी. टण्डन की पीड़ा को देश का राष्ट्रीय नेतृत्व कब सुनेगा?
Categories