कुलीन शील नही छोड़ता, अगणित हों चाहे द्वंद्व
गतांक से आगे….
सज्जनो की कर संगति,
दुष्टों का कर त्याग।
पुण्य कमा हरि नाम ले,
जाग सके तो जाग ।। 570।।
औरों का दुख देखकै,
पिघलै ज्यों नवनीत।
उसके हृदय हरि बसें,
करते उसे पुनीत ।। 571।।
पग-पग पर कांटे बड़े,
कैसे निकला जाए?
या तो उनको त्याग दे,
या मुंह कुचला जाए ।। 572।।
कांटे से अभिप्राय दुष्ट व्यक्ति से है।
गंदे दांत गन्दे वसन,
निष्ठुर बोले बोल।
रूप लक्ष्मी त्याग दें,
लोग उड़ावें मखोल ।। 573।।
सूखे वृक्ष को छोड़कर,
ज्यों पंछी उड़ जाय।
निर्धनता को देखकै,
बंधु बांधव हट जाए ।। 574।।
दौलत हो अन्याय की,
ज्यादा न टिकने पाय।
रूई उड़ै ज्यों आंधी में,
एक दिन ऐसे जाय ।। 575।।
ज्ञानी इस संसार से,
सार-सार गह लेय।
पानी मिले ज्यों दूध से,
हंस क्षीर पी लेय ।। 576।।
शास्त्रों की कथनी करै,
करनी रहे न याद।
खीर बीच कलछी रहै,
फिर भी चखे न स्वाद ।। 577।।
कलछी अर्थात-चमचा
जग में जितने बंध हैं,
प्रेम है सबसे महान।
प्रेम के वशीभूत हो,
प्रण भूले भगवान ।। 578।।
ईख पिलै चंदन कटै,
पर छोड़े नही सुगंध।
कुलीन शील नही छोड़ता,
अगणित हों चाहे द्वंद्व ।। 579।।
यह जग कड़वा वृक्ष है,
मीठे फल हैं दोय।
मधुर वचन, सत्संगति,
दुर्लभ पावै कोय ।। 580।।
ओउम् सोम संसार में
बिरला पावै कोय।
इनको पाता है वही,
जो जन आपा खोय ।। 581।।
व्याख्या :-इस संसार में परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार होना और सौम्यता को प्राप्त करना कोई खाला जी का घर नही, इन्हें बिरले लोग ही प्राप्त किया करते हैं। इनके लिए कोई पद, प्रतिष्ठा अथवा दौलत के ढेर की आवश्यकता नही, अपितु आत्मपरिष्कार और अहंकार शून्यता व दिव्य गुणों की नितांत आवश्यकता है। इस ऊंचाई तक पहुंचना सामान्य जन के बस की बात नही। हमारा शरीर वीर्य की रक्षा करने अथवा ब्रह्मचर्य का पालन करने से तेजवान होता है। तेज भी तीन प्रकार का होता है-तामसिक तेज, राजसिक तेज और सात्विक तेज। इन तीनों तेजों में सबसे महान तेज, सात्विक तेज होता है। इसे ही दिव्य तेज कहते हैं। यह ब्रह्मचर्य के तेज से भी महान होता है, सर्वश्रेष्ठ होता है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति का चित्त पवित्र होता जाता है, त्यों-त्यों इस सात्विक तेज का प्रकटीकरण होने लगता है।
क्रमश: