बाजार हमारे जीवन में इतनी बढ़त बना चुका है कि अब ढेर सारे लोगों की जीविका का आधार यही है। बाजार में सबकुछ बिकाऊ होता है। शायद मनुष्य का मनुष्य से संबंध भी! तभी बाजार जितना बड़ा होता जा रहा है मानवीय मूल्य उतने ही छोटे होते जा रहे हैं। समाज पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ रहा है। अब बाजार ही सबकुछ तय करने लगा है। हमारा स्वाद, हमारा जायका, हमारी इच्छाएं – सब बाजार के इशारे पर नाच रही हैं। हमारे मन-मस्तिष्क पर बाजार पूरी तरह काबिज हो बैठा है। ऊपर से देखने पर लगता है कि बाजार एक तरह से स्वतंत्रता का हिमायती है, उपभोक्ता को चुनाव के बहुत-से विकल्प देता है, मनुष्य को उपभोक्ता के रूप में सशक्त बनाता है, पर सच थोड़ा इससे अलग है। बाजार आम उपभोक्ता को समर्थ होने का एहसास तो देता है, पर वास्तव में यह उपभोक्ता को नहीं, बल्कि स्वयं को ही शक्तिशाली बनाने का उद्यम दिन-रात करता है। बाजार लाभ-हानि आधारित अंतःक्रियाओं को गुणात्मक ढंग से आयोजित करता है। बाजार की यही अपनी ‘डायनॉमिक्स’ है। बाजार इस काम में मीडिया, सोशल मीडिया और समाज तक को पूरे समय लगाए रखता है। लुभावने विज्ञापन बाजार की छद्म छवि को गढ़ने का काम करते हैं। बाजार के आकर्षक ऑफर और इच्छा पूर्ति की दिलासा देने वाला छद्म यथार्थ गढ़ने का काम पूरी मशीनरी करती है।
बाजार के लिए काम करने वाले विज्ञापन सामाजिक व्यवहार के निरूपण के लिए हमारे मन-मस्तिष्क की कंडिशनिंग करते हैं। विज्ञापन का बाजार बड़े बजट की बदौलत उभरता क्षेत्र है। इस क्षेत्र में दिग्गज विशेषज्ञ और बड़े-बड़े प्रशिक्षित कारपोरेट्स सक्रिय हैं। विज्ञापन सूचना मात्र के लिए नहीं होते, बल्कि बाजार के पूरे दर्शन को खड़ा करने में केन्द्रीय भूमिका निभाते हैं जिसमें इस बात पर पूरा जोर रहता है कि कैसे मानव मन को लुभाया जाए। विज्ञापन चुटीली भाषा में झूठे-सच्चे साक्ष्य भी लेकर उतरते हैं। समाज के नायकों-खलनायकों के जरिए अपनी ताकत बनाने की पुरजोर कोशिश करते हैं। अभिनेता, खिलाड़ी, नायिकाएं और नई-नई छवियां – सब के सब किसी उत्पाद के उपयोग को जरूरी बताने और जहन में बैठाने की कवायद करते हैं। समाज इन संदेशों को अचेतन रूप में ग्रहण करता जाता है। बाजार जुड़ने-जोड़ने का हुनर जानता है इसलिए वह लोगों के चहेते नायकों की प्रतिष्ठा को कैश करता है, अपने सामानों से सम्मान व लोकप्रियता को नत्थी कर उत्पाद को नया अर्थ प्रदान करता है। अपने विज्ञापनों के जरिए समाज की जरूरतें बेचता है। जरूरी और गैर-जरूरी, सभी तरह की आवश्यकताओं को खरीदने-बेचने के बिचौलिए बाजार के कर्णधार हैं। बाजार अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों की महत्वाकांक्षाओं और मंशाओं को अपने अनुरूप मोड़ने में करता है। वह तमाम सही-गलत तर्क गढ़ता है और नई-नई सामाजिक-आर्थिक जरूरतें पैदा करता है। समाज में नई-नई जरूरतें जुड़ती रहें और निरंतर इच्छाओं में इजाफा होता रहे, यही बाजार का जीवन है।
अखबार, टीवी, पत्रिकाएं, सड़कों के किनारे खड़े बोर्ड, नियोन लाइट के दूधिया बल्ब आदि के जरिये विज्ञापनों के मोहक संसार ने बाजार की एक मायावी दुनिया रची है। बाजार के प्रभाव से आम इंसान का अपने मन-मस्तिष्क को सुरक्षित बचा लेना मुश्किल है। बाजार की ‘सेल’ का समाजशास्त्र गजब का है। हमें लगता है कि बिना किसी खर्च के ही हमारा काम आसान हो गया; ऑनलाइन शॉपिंग से घर बैठे भारी छूट पर सामान आ गया, पर यह गलतफहमी सिर्फ खरीददारी को बढ़ावा देने के लिए ही होती है। बाजार का प्रदर्शन कुछ और है और उसका अंतर्निहित दर्शन कुछ और। वास्तविकता यह है कि लोग खरीददार बनकर बिक बैठते हैं। बाजार आकर्षण के साथ धीरे-से कर्ज का मायाजाल बिछाता है। बाजार के चक्रव्यूह में फंसकर लोग इस सीमा तक जीवन की दुश्वारियों को न्यौता दे लेते हैं कि संताप झेलते हुए आत्महत्या तक करना पड़ता है।
उपभोक्तावादी समाज में बाजार बढ़ रहा है और खरीददारी प्रतिष्ठा व सभ्यता का पैमाना मानी जा रही है। खरीददारी अब जरूरत से ज्यादा शौक होती जा रही है। लोग ‘टाइमपास’ और जीवन की ऊब दूर करने के लिए नए-नए फैशन और चाल-ढाल अपना रहे हैं। किसी से पीछे न रह जाने का प्रदर्शन भी लोगों को ऐसे कामों की ओर प्रवृत्त कर रहा है। इस चक्कर में लोग जरूरी और गैर-जरूरी यहां तक कि कभी-कभी उल-जलूल किस्म की खरीददारी भी करने लग जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार, ऑनलाइन गिफ्टिंग का बाजार 1,000 करोड़ रुपए के पार पहुंच गया है जो दिनोंदिन जोर पकड़ रहा है। मिठाइयां, चौकलेट्स, कार्ड्स, फ्लावर बुके, ज्वैलरी, कॉर्पोरेट गिफ्ट्स – सबकुछ ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स पर मौजूद हैं; पीवीआर मूवी गिफ्ट कार्ड्स, कैफे-कॉफी डे गिफ्ट वाउचर्स, स्पा-सैलून की अनेक स्कीम्स उपलब्ध हैं। बस, एक क्लिक हमें बाजार का हिस्सा बना देती है। ऐसी ‘शॅापिंग हैबिट’ धीरे-धीरे ‘एडिक्शन’ बन जाती है। ऑनलाइन शॉपिंग के विकल्प ने इसे गुणात्मक रूप में बढ़ा दिया है और लॉकडाउन की परिस्थितियों ने इसमें एक बड़ा उछाल ला दिया है। बाजार है कि रोज चीजों के नए-नए मॉडल बनाकर कमी और अभाव का तीव्र एहसास दिलाने से बाज नहीं आता, जो हमारी तृष्णा को बढ़ाने का काम करते हैं। इस असंतोष से उपजी कुंठा में जीना आज बहुतों की नियति बन चुकी है। बाजार के चमचमाने का सिलसिला जीवन विरोधी है जो बढ़ता ही जा रहा है। बाजार में बढ़ते सामानों की कीमत उससे कहीं ज्यादा है जो हम-आप थोड़े-से पैसे देकर चुकाते हैं। इन सामानों के कच्चे माल को नैसर्गिक पर्यावरण नष्ट करके प्राप्त करना, पर्यावरण के संतुलन को खोना, उत्पादन में विषैले रसायनों का उपयोग आदि जीवन के संकट को बढ़ाने में बड़े कारण बन रहे हैं। बाजार का विन्यास और चरित्र तेजी से बदल रहा है। कभी बाजार की सैर करना भले उत्सव रहा हो, पर अब बाजार बदल रहा है। इस कठिन समय में हमें यह समझना होगा कि बाजार हमारे लिए है न कि हम बाजार के लिए। जीवन जीने का विवेक यदि नहीं होगा तो न यह धरती बचेगी, न हम लोग; क्योंकि धरती का कोष सीमित है। नए-नए उत्पाद रोज बहुत कुछ खत्म करके बनते हैं। हवा, पानी और ऊर्जा से लेकर पूरी प्रकृति को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
समाज में बाजार ने व्यावसायिकता को बढ़ावा दिया है। परिणामतः कैरियरिज्म मूल्य बनकर पैदा हुआ है और आजीविकावाद की नई अवधारणा ने पारिवारिक संबंधों में भावात्मकता को नष्ट किया है। यह सच है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया से बाजार के जरिए जितना कुछ समाज को मिला है उससे कहीं अधिक छिन गया है। समाज में बढ़ते उपभोक्तावाद से जीवनशैली बदली है जिसके चलते सामाजिक संबंधों का क्षरण स्वभाविक रूप में सामने आया है। जहां लोग समाज में एक-दूसरे के साथ उठने-बैठने, मिलने-जुलने व बात करने में खुशी खोजा करते थे वहीं अब टीवी, कंप्यूटर, स्मार्टफोन में मशगूल हैं। सारे संबंध सोशल मीडिया की मंडी में महिमामंडित हो रहे हैं। नतीजतन, इंसान की नजर में व्यक्ति की कद्र घटी है और उसकी सामाजिक उपयोगिता कम होती जा रही है। तकनीक का विस्तार संस्कृति को संकुचित दायरे में धकेल रहा है: जैसे टेक्नोलोजी संस्कृति के स्थानापन्न में जुटी हो! समाज का मशीनीकरण हो रहा है।
उदारीकरण के साथ जिस ढंग से उपभोक्तावाद ने पांव पसारा है वह सब बाजार की ही देन है। बाजार ने मीडिया के साथ मिलकर समाज और संस्कृति दोनों को कमजोर किया है, व्यक्ति को मानसिक रूप से अपनी गिरफ्त में लिया है और उपभोक्तावादी समाज का विस्तार किया है। आज घर के हर सदस्य के पास दो-दो मोबाइल फोन हैं। एक-दूसरे की देखा-देखी बाहर घूमने जाने की बढ़ती प्रवृत्ति से टूरिज्म सेक्टर का बढ़ना बाजार की देन है। बाईक, कार और ऑटो-मोबाइल अब सुविधा नहीं, स्टेटस सिम्बल की तरह लिए जाते हैं। शहरी भारत में तेजी से ‘वीकेंड कल्चर’ बढ़ा है, रेस्टोरेंट-रिजोर्ट में इवेंट आयोजन और घर के बाहर खाने की प्रवृत्ति बढ़ी है, ब्रांडेड कपड़ों-जूतों का चस्का समाज को लग गया है। ब्यूटी-पार्लर और बढ़ते सौंदर्य बाजार ने भारी बढ़त और पकड़ समाज में व्यापक स्तर पर बना ली है। बहुत-से नए-नए वार्षिक आयोजन, उत्सव व त्यौहार हमने पश्चिमी अनुकरण में अपने समाज पर लाद दिए हैं। निजीकरण की प्रक्रिया ने बाजार के साथ मिलकर गजब का उपभोग-व्यूह रचा है और महंगे स्कूल, हास्पिटल, इंस्टीट्यूट और प्रशिक्षण केन्द्रों से समाज को मोह-पाश में फंसाया है। इस पूरे परिदृश्य ने मनुष्य को भारी मानसिक दबावों में धकेला है। छद्म जरूरतों का माहौल खड़ा कर आवश्यकता और विलासिता में अंतर करने के तर्कों को कुन्द कर डाला है। बाजार इतने विकल्पों के साथ समाज के सामने खड़ा है कि कोई-न-कोई रास्ता अपने उत्पादों को बेचने का निकाल ही लेता है। समाज भ्रमित होने से बच ही नहीं सकता। लोन की ऊंची ब्याज दरों पर कार और जीरो डाउन पेमेंट पर मोटरसाइकिल को जबरन थमा देने जैसे मानसिक वातावरण का निर्माण विज्ञापन और बाजार के पैरोकार बिचौलिए सफलतम तरीके से कर रहे हैं। बिन पैसे भी खरीददारी के विकल्प का विस्तार क्रेडिट कार्ड के जरिए बाजार द्वारा दिए जाने का मतलब यही है कि कैसे अधिक-से-अधिक चीजें खरीदने की खराब आदत समाज को डाली जाए!
अनाप-शनाप खर्चों के चलते न तो हमारी कमाई बढ़ रही है और न ही बचत हो रही है। समाज में गरीबी गहराती जा रही है। अधिकांश घरों में अशांति और मानसिक तनाव गहराया है। व्यक्ति मानसिक अवसाद की चपेट में है जिसका प्रतिफलन समाज में हिंसा, व्यसन, तनाव और जरूरी चीजों के अभाव के रूप में सामने आ रहा है क्योंकि गैर-जरूरी खर्चों को हमने बढ़ा लिया है। समाज ने अपनी आत्मनिर्भरता को गँवा दिया है, सहयोग की प्रवृत्ति को खो दिया है जो समाज की मजबूती का असल आधार थी और व्यक्ति के मानसिक संबल को सामाजिक सहयोग से संपोषित रखती थी। समाज में इंसान की मूल जरूरत रोटी-कपड़ा-मकान और उसकी पहचान थी, है और रहेगी। इसके इतर जो गढ़ी गई जरूरतें हैं, वही बाजार का तिलिस्म है जिसे समझना आसान नहीं। जबरदस्ती की जरूरतें हमें गहरे अवसाद और तनाव में ले जाती हैं और समाज व व्यक्ति दोनों के मानसिक स्वास्थ्य को संकट में डालती हैं। इंसान कम उम्र में ही बीमार, दुःखी और असफल हो रहा है क्योंकि वह अपने जीवन जीने का तरीका स्वयं नहीं बना रहा, उसका रिमोट बाजार के हाथ में है।
बाजार के दर्शन का सौंदर्य ही उसके विस्तार का आधार है। बाजार अपनी प्रबंधकीय दृष्टि और प्रस्तुति में जिस पूर्णता और सुग़मता को लेकर आगे बढ़ता है, वही उसके विस्तार और स्वीकार्यता की शक्ति है। बाजार अपनी उदारता के चलते समाज और सरकार की सभी संकीर्णताओं को अपने उदर में पचा चुका है और दुनिया में अपना डंका बजा चुका है। यही वजह है कि समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति और अर्थव्यवस्था – सब के सब बाज़ार के सामने समर्पण कर चुके हैं। समाज विज्ञानी जिसे लिक्विड डेमोक्रेसी कह रहे हैं, वह बाजार विस्तार की ही अवस्था है।
बाजार ने व्यक्ति को उपभोक्ता के रूप में राजा बनाने का अहसास दिलाया है। इसने मनुष्य की व्यक्तिगत आकांक्षाओं तक को तृप्त और तीव्र कर ऑफर, पैकेज, शेयर, इंस्टालमेंट, जीरो-इंटरेस्ट-लोन, फ्री-होम-डिलीवरी, एक्सचेंज-विद-ओल्ड, रिटर्न-विदीन-वीक तक की सुविधाओं संग उसका एक आभासी साम्राज्य गढ़ा है। व्यक्ति से लेकर व्यवस्थाओं तक को बाजार ने अपने व्यवहार, नियमों, सिद्धांतों, सेवाओं और पहुंच तथा संबद्धताओं से अपना बनाया है। ‘खैरात में वहां कुछ भी नहीं है’, यह स्पष्ट दर्शन और नीति नैतिक-अनैतिक के नारे को निरर्थक मानती है। भोग के विस्तार और जन-सरोकारों के विमोह की व्यूह-रचना ने उपभोक्ता नाम के जिस नए मानव को पैदा किया है, वही नई सदी की नई दुनिया का आधार है; जिसका दिलो-दिमाग सब बाजार है, जहां सामाजिक-आार्थिक और राजनीतिक निहितार्थों को नई टेक्नोलोजी नए आयाम दे रही है। अवधारणाओं, अर्थों और प्रतीकों का परंपरागत पैराडाइम बाजार बदल रहा है। परिणामतः गैर-बराबरी के नए श्रेणीक्रम बन रहे हैं, समाज में नए-नए तनाव जन्म ले रहे हैं।
नई सदी में बाजार अपने चकाचौंध और विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं/व्यवस्थाओं के जरिए मानवीय इच्छाओं, संवेदनाओं और आवश्यकताओं को बाजार के अनुरूप ढालने का काम बेहद आक्रामक तरीके से कर रहा है। बाज़ार की यह आक्रामकता आज व्यक्ति और समाज दोनों के मानस पर बड़ा कृत्रिम दबाव निर्मित कर चुकी है। इस दबाव से उत्पन्न तनाव की चपेट में न सिर्फ व्यक्ति और समाज बल्कि पूरी मानवता है जो अवसाद जैसी दर्जनों परंपरागत मानसिक बीमारियों के अलावा रोज नई-नई मानसिक बीमारियों की अंतहीन चुनौती खड़ा कर रहा है। ऐसे में, मनोचिकित्सा शास्त्र के सामने बड़ा प्रश्न है कि वह मानसिक बीमारी का इलाज तो कर सकता है पर बाजार का इलाज आखिर कैसे करे!?
लेखक युवा समाजशास्त्री है!
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