कानपुर के किसोरा राज्य की आत्मबलिदानी राजकुमारी ताजकुंवरी
राकेश कुमार आर्य
भारत पर आक्रमण करने के पीछे मुस्लिम आक्रांताओं का उद्देश्य भारत में लूट, हत्या, बलात्कार, मंदिरों का विध्वंस और दांव लगे तो राजनीतिक सत्ता पर अधिकार स्थापित करना था। अत: भारतीयों ने भी इन चारों मोर्चों पर ही अपनी लड़ाई लड़ी। जहां मुस्लिमों ने केवल लूट मचायी वहां कितने ही लोगों ने लूट के उस तांडव को रोकने के लिए अपने अनगिनत बलिदान दे दिये, या लूट के धन को ले जाते विदेशियों पर घात लगाकर हमला किया और उस धन को छीन लिया। जहां हत्याओं का जघन्य अपराध या अत्याचार विदेशी आक्रांताओं ने किया वहां उन अत्याचारों का भी या तो हथियारों से सामना किया या अपने प्राण अत्याचारी के हाथों में सौंप दिये, पर धर्म परिवर्तन नही किया। इसी प्रकार जहां बलात्कार हुए वहां कितनी ही ललनाओं ने और अपनी अस्मिता के प्रति सजग रहने वाली नारियों ने विदेशी आततायियों के हाथों में पडऩे के स्थान पर या तो आत्मदाह कर लिया या किसी भी प्रकार से स्वयं को मृत्यु के हवाले कर दिया।
बस एक ही नारा था….
अब तनिक उस आरोप पर विचार करें, जो हिंदुओं पर ये कहकर लगाया जाता है कि ये तो कायर होते हैं। यदि हिंदू कायर होते तो क्या ऐसे अत्याचारों का कोई व्यक्ति या समाज इस प्रकार सामना कर सकता था? जहां पूर्णत: ज्ञात हो कि मृत्यु अवश्यम्भावी है, वहां भी स्वधर्म और स्वतंत्रता को ना त्यागना बहुत बड़ी बात है। एक ही नारा था पूरे देश का और पूरे हिंदू समाज का कि मृत्यु का वरण कर लेंगे पर स्वधर्म और स्वतंत्रता का त्याग नही करेंगे। यदि देश धर्म के प्रति उत्साह की यह पराकाष्ठा ना होती तो आज यह देश हिंदुस्तान के रूप में विश्व के मानचित्र पर खोजने से भी नही मिलता। इस देश-धर्म के युद्घ में भारत की नारियों ने भी बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया। ऐसी कितनी ही आदर्श नारियां रहीं, जिन्होंने अपने प्राण त्याग दिये पर अपनी अस्मिता और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल रहीं। जिस-जिस ‘पद्मिनी’ को विदेशी आक्रांताओं ने बलात् उठाकर अपने हरम में लाना चाहा, वही वही ‘पद्मिनी’ उनके हाथ नही आयी। हम मानते हैं कि इसके उपरांत भी देश में लाखों महिलाओं का शीलभंग हुआ और उनकी अस्मिता सुरक्षित न रह सकी, परंतु हर ‘पद्मिनी’ का हाथ से निकल जाना भी ऐसे राक्षस आक्रांताओं की पराजय ही थी।
आइए, अब एक ऐसी ‘पद्मिनी’ की रोमांचकारी जीवन गाथा पर विचार करते हैं, जिसने अपनी अस्मिता और स्वतंत्रता की रक्षार्थ प्राण त्याग दिये पर स्वयं को विदेशी आक्रांता के क्रूर हाथों के क्रूर स्पर्श से बचा लिया।
महान वीरांगना राजकुमारी ताजकुंवरी
बात उस समय की है जब पृथ्वीराज चौहान का अंत कर दिया गया था और भारत के विजित प्रांतों पर शाहबुद्ीन गोरी का सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक शासन कर रहा था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने भी लूटमार और हत्या आदि का वही क्रूर क्रम भारत में जारी रखा जो उसके पूर्ववर्ती करते आ रहे थे। उसे संकेत देने के लिए अभी गोरी जीवित था। इसलिए ऐबक ने भारत के कितने ही गांवों में तथा शहरों में अपने क्रूर अत्याचार करने आरंभ कर दिये।
उत्तर भारत के कानपुर शहर के किसोरा राज्य पर उस समय राजा सज्जन सिंह का राज्य था। राजा स्वाभिमानी थे और भारत की स्वतंत्रता के प्रति पूर्णत: गंभीर थे, परंतु यह भी सत्य है कि वे एक छोटे से राज्य के स्वामी थे। इसलिए देश की स्वतंत्रता के लिए भारतीय राजाओं का संघ बनाकर कोई बड़ी लड़ाई लड़कर विदेशियों को भारत से बाहर करने की शक्ति उनके पास नही थी। परंतु इतना अवश्य है कि राजा ने अपनी पुत्री तक को भी राजकुमारों की सी शिक्षा दी और वैसा ही सैनिक प्रशिक्षण भी दिया। राजा की दो पुत्रियां थीं-जिनके नाम ताजकुंवरी व कृष्णा देवी थे। इनमें से ताजकुंवरी ने अपनी प्रतिभा को सैन्य प्रशिक्षण के माध्यम से विशेष रूप से प्रदर्शित करना आरंभ कर दिया।
राजकुमारों की सी वीरता
पता नही यह संयोग था या राजा सज्जन सिंह की दूरदर्शिता का परिणाम था कि उन्होंने अपनी पुत्री को आगत के कठिन समय का सामना करने के लिए पहले ही तैयार कर लिया। ताजकुंवरी भी बड़े उत्साह और निर्भीकता के साथ जंगलों में जाकर शिकार खेलती, घोड़े की सवारी करती और राजकुमारों की भांति निडर रहकर अपने राजभवन के लिए लौट आती। समय बड़ी तेजी से बीत रहा था। कुतुबुद्दीन ऐबक के सैनिक भी नित्यप्रति कहीं न कहीं उत्पात मचाते ही रहते थे। उनके उत्पातों और अत्याचारों से ताजकुंवरी अनभिज्ञ रही हो-यह तो नही हो सकता, परंतु ताजकुंवरी एक वीरांगना थी, इसलिए वह रणकौशल या साहस में स्वयं को किसी से कम नही मानती थी।
एक दिन ताजकुंवरी और उसका भाई लक्ष्मण सिंह शिकार खेलने के लिए अपने-अपने घोड़ों पर सवार होकर जा रहे थे। वह अपने रास्ते पर बड़ी निर्भीकता से चले जा रहे थे। उन्हें नही पता था कि आज उनके साथ क्या होने जा रहा था?
जब संकट आ उपस्थित हुआ
जिस रास्ते पर ताजकुंवरी और लक्ष्मण सिंह बढ़े चले जा रहे थे, उसी रास्ते पर जंगल में पहुंचने पर एक ओर झाडिय़ों का बीहड़ था। जब वहां से ताजकुंवरी अपने भाई लक्ष्मण सिंह के साथ घोड़े पर सवार होकर गुजरी तो झाड़ी के उस ओर बैठे कुछ मुस्लिम सैनिकों ने उन्हें देख लिया। ये मुस्लिम सैनिक कुतुबुद्दीन ऐबक के थे, उन्हें अपने सैनिक होने का अभिमान था और सबसे बड़ी बात ये कि सामने से एक काफिर की लड़की जा रही हो और वे आक्रमण ना करें, तो भला ये कैसे संभव था? इसलिए सबने संकेतों से वार्तालाप किया और बातों ही बातों में उन दोनों बहन भाईयों पर टूट पड़े। परंतु वे दोनों बहन भाई भी वीरता में किसी से कम नही थे। अंतत: पिता ने जिस उद्देश्य के लिए उन्हें सैनिक प्रशिक्षण दिया था, आज उसके लिए परीक्षा का समय आ गया था, इसलिए बहन और भाई को परीक्षा की घड़ी को परखने में देर नही लगी और स्वतंत्रता के हन्ताओं को कुछ ही देर के संघर्ष में ‘जहन्नुम की आग’ में फेंक दिया। उन शत्रु सैनिकों में से दो चार भागने में भी सफल हो गये। इन लोगों ने जाकर कुतुबुद्दीन ऐबक को सारा वृतांत कह सुनाया। किसी काफिर की लड़की की ऐसी वीरता की कहानी सुनकर ऐबक ने उसे गिरफ्तार कर अपनी बेगम बनाने का सपना संजोया और चल दिया उस ओर जहां वे दोनों भाई बहन थे।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने डाला किसोरा का घेरा
कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना ने कानपुर की किसोरा रियासत की ओर प्रस्थान किया और किसोरा के किले का घेरा डाल दिया। किले के बाहर के सैनिकों से युद्घ आरंभ हो गया। किसोरा एक छोटी सी रियासत थी। उसके सैनिकों की संख्या भी उसी अनुपात में अल्प थी। इसलिए किसोरा के सैनिकों में कुतुबुद्दीन की सेना का सामना करने का साहस तो था, पर उसे पराजित करने की शक्ति उनके पास नही थी। अपने सैनिकों के साथ जारी युद्घ को किले के ऊपर से राजकुमारी और उसका भाई दोनों ही देख रहे थे। उनसे रहा नही गया, और अपनी शक्ति की सारी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए भी तथा युद्घ के अंतिम परिणाम की चिंता किये बिना दोनों भाई-बहन किले से बाहर आकर शत्रु के साथ युद्घ करने लगे। बड़ा भयंकर युद्घ हुआ।
जब कुतुबुद्दीन घबरा गया
कुतुुबुद्दीन ने अपने जीवन में आज से पहले किसी ऐसी भारतीय वीरांगना का सामना नही किया था जैसा उसे आज ताजकुंवरी के रूप में करना पड़ रहा था। वह उसकी वीरता को देखकर हतप्रभ था। जिसे वह अपनी बेगम बनाकर लाने का सपना लेकर चला था, वही लड़की उसके प्राणों की ग्राहक बन चुकी थी, कुतुबुद्दीन घबरा गया। नारियों में ऐसा आत्मबल देखना उसके लिए बहुत ही आश्चर्य की बात थी। अपनी संभावित अपमानजनक पराजय से डरकर कुतुुबुद्दीन ने अपने सभी सैनिकों को सचेत किया और उनमें उत्साह भरते हुए उसने घोषणा की कि इस लड़की को जो कोई जीवित पकड़कर मेरे पास ले आएगा उसे मुंह मांगा ईनाम दिया जाएगा। ताजकुंवरी ने ये शब्द सुन लिये थे। वह समझ गयी कि उसकी अस्मिता का मूल्य लग चुका है और यदि वह जीवित पकड़कर कुतुबुद्दीन को सौंपी गयी तो उसका परिणाम क्या होगा? इसलिए वह साक्षात दुर्गा बन गयी और अबकी बार जो उसने शत्रु पर वार किया वह अपनी ‘मृत्यु’ की कीमत पर किया। चह चण्डी बन गयी और भूल गयी कि अब उसे किसी प्रकार यहां से जीवित भी निकलना है? अब वह मृत्यु का वरण करने के लिए युद्घ कर रही थी। वह नही चाहती थी कि शत्रु उसे हाथ लगाये और उसका शील भंग करने का दुस्साहस करे। इसलिए मरने से पहले वह जी भरकर शत्रुओं को मार लेना चाहती थी। अत: युद्घ में भारी रोमांच उत्पन्न हो गया। उधर जब कुतुबुद्दीन के सैनिकों ने ताजकुंवरी को जीवित पकड़कर अपने स्वामी को सौंपने पर मुंह मांगा पुरस्कार मिलने की बात सुनी तो उनमें भी इस बात के लिए होड़ मच गयी कि ताजकुंवरी को जीवित पकड़कर कौन अपने स्वामी कुतुबुद्दीन को देगा?
राजा सज्जन सिंह का बलिदान
इसी भयंकर युद्घ में राजा सज्जन सिंह देश की स्वतंत्रता और स्वधर्म की गरिमा के लिए बलिदान हो गये। चारों ओर मैदान में शव ही शव पड़े दीख रहे थे पर राजकुंवरी का उत्साह ठंडा नही पड़ रहा था। वह जी भरकर स्वतंत्रता के हंताओं को समाप्त कर लेना चाहती थी। पर जब उसने देखा कि वह अकेली ही रहती जा रही है और उसका सैनिक घेरा भी समाप्त किया जा चुका है, तो उसे उस परिस्थिति को समझते हुए देर नही लगी कि अब जीवन की अंतिम घडिय़ां निकट आ चुकी हैं। उसने अपने भाई की ओर देखा और उससे अपनी रक्षा की अपील की कि-”भैया अपनी बहन को बचाते क्यों नही हो?”
भैया बहन की बात का अर्थ नही समझ पाया। तब उसने कहा कि-‘मैं अब तुम्हारी रक्षा कैसे करूं?’ आंसुओं को अपनी आंखों से टपकाते भाई की इस असहाय अवस्था को बहन ने एक बार पुन: झकझोरा और उसे एक क्षत्रिय की मर्यादा का ध्यान कराते हुए कहा कि ‘युद्घ के मैदान में रोते नही हैं- भैया। यहां अपना कत्र्तव्य पूर्ण करो। अपने आर्य धर्म की रक्षा करो, किसी भी मुस्लिम के हाथ तुम्हारी बहन के दामन तक बढ़ें उससे पहले ही बहन की अस्मिता की रक्षा करो।’
जब भाई ने की बहन की रक्षा
बहन के आशय को लक्ष्मण सिंह समझ गया। समय बड़ी तेजी से निकल रहा था। निर्णय के लिए क्षण कम पड़ते जा रहे थे, किसी भी समय कोई विदेशी आक्रांता शत्रु बहन के दामन पर हाथ डाल सकता था और जिसके लिए यह सारा जौहर, रचा गया था यदि उसकी रक्षा फिर भी नही हो सकी तो पिताश्री का बलिदान और बहुत से सैनिकों का बलिदान भी व्यर्थ ही चला जाएगा। इन सब बातों को राजकुमार ने पलक झपकते ही समझ लिया। इसलिए एक ही झटके से अपनी बहन का सिर अपनी ही तलवार से धड़ से अलग कर दिया। जो तलवार दूसरों के सर कलम करके बहन की रक्षा करती, नियति का खेल देखिए कि उसी तलवार ने बहन की जीवन लीला समाप्त कराके उसकी रक्षा की।
बहन-भाई का बलिदान
देश धर्म की स्वतंत्रता के लिए ताजकुंवरी ने भाई की तलवार को अधिकार देकर पुण्य की भागी बनाया और अपने जीवन को धन्य बनाकर वह संसार में वीरता और अदम्य शौर्य का इतिहास लिखकर सदा सदा के लिए चली गयी। अब देश धर्म की स्वतंत्रता के लिए ध्वजा लक्ष्मण सिंह के हाथों में भी वह अपने पिता और बहन की गति देख चुका था, बचने और भागने का पाप अब लेना वह भी अपने उचित नही मानता था। इसलिए जीवन के अंतिम क्षणों में उसने भी शत्रु सेना पर अपने पूर्ण साहस के साथ अंतिम प्रहार किया और शत्रु को एक बार पुन: कंपा कर रख दिया। अपनी तलवार से उसने कितने ही मुस्लिम सैनिकों को शांत किया। उसे पता था कि अब जीवन की संध्या निकट है, इसलिए उसने परिणाम को लक्ष्यित कर शत्रु पर वार पर वार करने प्रारंभ किये। शत्रु के कितने ही सैनिकों का जीवन समाप्त कर वह संसार से चला गया पर एक कहानी अवश्य लिख गया कि देश की स्वतंत्रता और बहन की अस्मिता के लिए यदि ऐसे कितने ही जीवन काम आ सकें, तो भी कोई चिंता नही। कानपुर का किसोरा राज्य आज भी अपने इन राजकुमार भाई और राजकुमारी बहन पर गर्व करता है।
छोटी बहन और दादी ने भी लिखा बलिदानी इतिहास
पिता बहन और भाई के इस अदभुत शौर्य पूर्ण बलिदानी युद्घ से खीझकर कुतुबुद्दीन ने किले में प्रवेश किया। उसने सोचा होगा कि परिवार में कोई और ताजकुंवरी हो तो उसे ही प्राप्त कर यह कह लिया जाए कि चलिये हमारा काम हो गया। किले में पूर्णत: सन्नाटा छाया हुआ था। कुतुबुद्दीन आगे बढ़ा और बढ़ता ही गया। उसे वहां कोई ताजकुंवरी नही दिख रही थी। बताते हैं कि अंत में जब वह किले के पिछले भाग की ओर गया तो वहां ताजकुंवरी की छोटी बहन कृष्णा और उसकी दादी विद्योत्तमा उसे दिखाई दीं। ये दोनों आपस में बड़े शांत भाव से वार्ता कर रही थीं। जैसे ही कुतुबुद्दीन उनकी ओर बढ़ा, तो कृष्णा ने पहले से ही तैयार करके रखे विष के कटोरे को उठाकर उसमें रखे विष को पी लिया और विद्योत्तमा ने अपनी कटारी स्वयं की छाती में भोंककर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।
इस प्रकार शत्रु हाथ मलता रह गया। यह है भारत के स्वाभिमान की कहानी, और यह है भारत के आत्मगौरव की कहानी। जो लोग देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं, उनका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तब तक स्थापित नही हो सकता जब तक भारत के स्वाभिमान और आत्म गौरव की कहानी को देश के मस्तक पर चंदन के लेप के रूप में महिमा मंडित नही किया जाएगा और कानपुर के किसोरा के राजकुमार और राजकुमारी के बलिदानों को उचित स्थान नही दिया जाएगा।
मुख्य संपादक, उगता भारत