समाज और देश सर्वोपरि

समय, धन या श्रम का दान करें

– डॉ. दीपक आचार्य

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समाज सेवा से लेकर देश और दुनिया भर की बातें करने वालों की हमारे यहाँ भरमार है। उपदेशकों और निर्देशकों की बाढ़ आयी हुई है। सब अपने-अपने ढंग से समाज के नवनिर्माण और देश की बातें करते हैं।

समाज के गलियारों से लेकर देश की सीमाओं और दुनिया भर की चर्चाओं में लोग इतने रमे रहते हैं कि उन्हें बहस या चर्चाओं से फुरसत ही नहीं है। असल में  हमारे यहाँ लोगों को दो हिस्सोें में बाँटा जा सकता है। एक वे हैं जिनका काम हर विषय पर बहस करना, सुनना और दूसरों को बहस के लिए प्रेरित या उत्तेजित करना ही रह गया है। आदमी की पूरी जिंदगी का अधिकांश हिस्सा बहसों के नाम पर समर्पित हो जाता है। इन बहसों का औचित्य वाग् विलास और कर्ण विलास से ज्यादा कभी कुछ नहीं निकलता ।

दूसरी किस्म उन लोगों की है जो अपने कामों के प्रति पूरी ईमानदारी रखते हुए कर्मयोग को सम्पूर्ण इच्छाशक्ति के साथ पूरा करते हैं और समाज के लिए किसीsafalta न किसी दृष्टि से उपयोगिता बनाए हुए हैं। इन लोगों की सहभागिता को किसी भी स्तर पर नकारा नहीं जा सकता।

इन दोनों ही स्थितियों में बहस के मामले में कहा जा सकता है इसका कोई औचित्य सामने नहीं आ पा रहा है क्योंकि बहस का उद्देश्य समाप्त प्रायः होता जा रहा है और अब बहसें औपचारिकता निर्वाह या लोकानुरंजन से ज्यादा कुछ उपयोगी साबित नहीं हो रही हैं।

बहस का सीधा सा अर्थ रह गया है टाईमपास। समाज और देश के लिए जीने-मरने और समाजसेवा का जज्बा रखने वाले उन लोगों की पीढ़ी अब कहीं नज़र नहीं आती जो लोग चुपचाप अपने कर्मयोग में जुटे रहते थे और समाज तथा देश की निष्काम सेवा में पूरा जीवन खपा दिया करते थे। उनके लिए समाज और देश सर्वोपरि हुआ करता था।

आज हम सभी लोग रोजाना घण्टों तक समाज और देश की बातें करते हैं, चिंता जाहिर करते हैं और भारतवर्ष को महान बनाने के लिए दिन-रात कहीं न कहीं चर्चाओं में भी रमे रहते हैं लेकिन आश्चर्य और दुःख का विषय यह है कि इतने सारे लोग देश और समाज के लिए चिंतित हैं,दिन-रात बहसों में अपने बौद्धिक और वाग्विलासी सामथ्र्य का लोहा मनवाने में जुटे हुए हैं, इसके बावजूद हम दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले अपेक्षित तरक्की से वंचित क्यों हैं।

समाज के लिए किए जाने वाले हर कर्म में प्रत्येक इंसान की भागीदारी जरूरी है तभी हम अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हुए भारतवर्ष को दुनिया में प्रतिष्ठा दिला सकते हैं।  बहस से कहीं ज्यादा जरूरी है सहभागिता। हम बातें करना तो सीख गए हैं लेकिन भागीदारी निभाने की बात आती है वहाँ पीछे रहते हैं।

समाज और देश के लिए जहाँ कहीं कोई भी रचनात्मक कार्य हों, लोक उत्थान के प्रयासों को आकार दिया जा रहा हो, रचनात्मक गतिविधियों भरे आयोजन हों या फिर सामाजिक एवं राष्ट्रीय सरोकारों के लिए कोई जिम्मेदारी उठाने की बात हो, हर मामले में हमारा अपेक्षित सहयोग जरूरी है।

जिन लोगों के पास समय नहीं है और जो लोग भौतिक रूप से समृद्ध हैं उन्हें चाहिए कि हर प्रकार के अच्छे कायोर्ं में संसाधनों और धन का सहयोग दें। जो लोग साधनहीन हैं उन्हें चाहिए कि समय दें और श्रमदान के माध्यम से समाज की सेवा करें।

हममें से खूब सारे लोग ऎसे हैं जिनके पास समय  भी है, पैसा भी है, और श्रमदान की ताकत भी है। इसके बावजूद हम सहभागिता से बचते हुए या तो बहसों में रमे हुए हैं अथवा अपने आपको निर्देशक की भूमिका में देख रहे हैं। हम न खुद कुछ करना चाहते हैं, न श्रेष्ठ कर्मों में धन सहयोग करते हैं और न ही श्रम करने की जिज्ञासा बची हुई है। ऎसे में सामाजिक और राष्ट्रीय विषयों पर चर्चाओं और बहस का कोई औचित्य नहीं है।

जो लोग समाज के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी प्रकार का सहयोग करने की बजाय  सिर्फ चर्चाओं, उपदेशों और बहसों में ही टाईमपास करने के आदी हैं वे सारे के सारे समाज पर भारस्वरूप ही कहे जा सकते हैं और इनके होने या न होने का समाज पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

हम समाज-जीवन के किसी भी क्षेत्र में हों, स्थानीय, सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों और रचनात्मक गतिविधियों में किसी न किसी रूप में सार्थक भागीदारी जरूर निभाएं। अपने आपके लिए संग्रह करते रहने वाले, अपने बंधुओं-भगिनियों की सेवा से दूर भागने वाले तथा समय नहीं होने का बहाना बनाने वाले लोगों से न देश का भला हो सकता है, न समाज का।

समाज और देश ने हमें इतना कुछ दिया है कि जिसका अहसान सदियों और सौ जन्मों तक हम नहीं चुका सकते। फिर क्यों रहें पीछे। जितना कुछ कर सकते हैं करना ही हमारा फर्ज और धर्म है।वरना हजारों-लाखों की भीड़ हर साल आती है और बिना कुछ किए नाकारा होकर लौट भी जाती है।

 

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