◘ स्व. राम स्वरूप
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“ईसाईयत और इस्लाम, सिद्धान्त और व्यवहार, दोनों में ही इस [सर्वधर्म-समभाव की] दृष्टि का तिरस्कार करते है। ये धर्म केवल यही नहीं मानते कि ये अन्य धर्मों से भिन्न है, ये यह भी आग्रह करते है कि ये श्रेष्ठतर है। अपने-अपने जन्मकाल से ही इन धर्मों का यह विश्वास रहा है कि इनका उपास्य देवता इनके पड़ौसियों के उपास्य से बढ़-चढ़कर है। साथ ही इनका यह विश्वास भी रहा है कि ये स्वयं सत्य पर आरूढ़ है और अन्यान्य सभी धर्म मिथ्या का वहन कर रहे है। इस प्रवृत्ति का एक परिणाम तो यह हुआ कि इन धर्मों में मिशनरी-भावना तथा जिहाद का समावेश हो गया। ये धर्म मान बैठे कि अन्धकाराछ्न्न मूर्तिपूजकों, काफिरों तथा शैतान के अनुयायियों को सच्चे धर्म क सिद्धान्त सिखलाना इनका परमेश्वर-प्रदत दायित्व है।”
“यह सत्य है कि विश्ववादी मनिषा का प्रभाव पड़ने पर कुछ लोगों को ईसाइयत या इस्लाम की यह दृष्टि अब मान्य नहीं रही, किन्तु ईसाइयत तथा इस्लाम की प्रचार-संस्थाओं में तो अब भी यही दृष्टि प्रबल है। एशिया तथा अफ्रिका के देशों में ईसाइयत और इस्लाम का कार्यकलाप देखने पर यह निष्कर्ष निकालना ही पड़ता है। उन बीते दिनों में जब ईसाइयत और इस्लाम सत्तारूढ़ थे, उनके कार्यकलाप का यह रूप सर्वथा स्पष्ट था। वह पुरानी पद्धति अब समीचीन नहीं रही। फलस्वरूप, उसमें कुछ हेर-फेर किए गए है। फिर भी पुरानी मनोवृत्ति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। इन धर्मों ने जिन नई पद्धतियों का अवलम्बन लिया है, वे वैसी ही मतान्ध, धूर्त और विनाशशील है, जैसी की पुरानी पद्धतियाँ थी। यह बात हमें भुलानी नहीं चाहिए।”
“…यदि हम यह मान भी लें कि विभिन्न धर्म मूलतः एक-जैसे है, तो भी उनके बीच देखे जाने वाले मतभेदों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उन भेदों का मूल भी हमें खोजना पड़ेगा। उदाहरणार्थ, एक ओर उपनिषद और गीता जैसे धर्मग्रन्थों को ले लीजिए और दूसरी ओर बाइबल और कुरान को। दोनों पक्षों की दृष्टियाँ विभिन्न है, मर्म विभिन्न और भावभूमि भी विभिन्न। … आपको यह बोध होगा कि ये दो प्रकार के धर्मग्रंथ दो प्रकार की मनीषाओं का वहन करते है। अतएव बुद्धि तथा अध्यात्म, दोनों ही यह माँग करते है कि इन विभिन्नताओं का भी अध्ययन किया जाए, इनकी मीमांसा की जाए। इन विभिन्नताओं को अनदेखा करना अथवा इनका तिरस्कार करना, बुद्धि को तिलान्जली देना ही कहलाएगा।”
“धर्मग्रन्थों के इन दो वर्गों का इस दृष्टि से पाठ करने से हम देखते है कि इनकी मनीषा नितान्त भिन्न है। सामी [ईसाइ और इस्लामी] धर्मग्रन्थ ललकारते है, भर्त्सना करते है, धमकी देते है। उनमें उद्वेग है। वे आदेश-प्रधान है। वे सतर्क करते है और विवश भी। उनमें एक आवेश का स्वर है। दूसरी ओर, हिन्दू धर्मग्रन्थों की मनीषा में सहजता पाई जाती है। वे शान्त रहकर ही अपनी बात समझाते है। पहले प्रकार के धर्मग्रन्थ आपको आगे की ओर धकेलते है। दूससे प्रकार के धर्मग्रन्थ आपको उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते है। पहले प्रकार के धर्मग्रन्थ आपके भीतर भरी आशा तथा आशंका का आश्रय लेते है, आपके भीतर भरे राग और द्वेष की दुहाई देते है, नरक का भय दिखलाते है और स्वर्ग के सपने सँजोते है। दूसरे प्रकार के धर्मग्रन्थ केवल आपकी चेतना को जागृत और विकसित करने का प्रयास करते है।”
“इसी प्रकार की और भी विभिन्नताएँ है। हिन्दू दृष्टि मीमांसा-परक, अनेकान्त अन्तर्मुखी है। ईसाइयत और इस्लाम की दृष्टि बहिर्मुखी, एकान्तिक, नाटकीय और प्रदर्शनपूर्ण है। इस दृष्टि में आदम और हव्वा जन्म लेते है, निषिद्ध फल खाया जाता है, शैतान का स्थान है और एक पुरातन पाप की भावना पनपती है। फिर एकमात्र ईश्वर अपने एकमात्र ‘पुत्र’ को इसलिए पठाता है कि वह अपने रक्त से उस पुरातन पाप का प्रायश्चित करे। फिर वह प्रलय का दिन आता है जब कि फरिश्तों से घिरे सिंहासन पर वह एकमात्र पुत्र विराजमान होता है। उस दिन कृपा के पात्र कुछ लोग स्वर्ग में प्रवेश पाते है और शेष सबको अनन्तकाल के लिए नरक में धकेल दिया जाता है।”
– स्व. राम स्वरूप
(स्रोत: ‘हिन्दूधर्म, ईसाइयत और इस्लाम’, पृ. ९-११)
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