जिस समय राजा भोज के पिता संसार से गये तो उस समय भोज नाबालिग थे, इसलिए पिता ने नाबालिग पुत्र को अपने भाई मुंज के संरक्षण में सौंप कर प्राण त्याग किये। मुंज शासन करने लगा, परंतु भावों की निकृष्टता ने रचना रचनी आरंभ कर दी और जो मुंज अपने भतीजे भोज का संरक्षक बना था वही उसका भक्षक बनने की योजना बनाने लगा। अंतत: एक दिन घातकों (जल्लादों) को आदेश दे ही दिया कि जाओ और भोज को जंगलों में ले जाकर समाप्त कर दो। घातकों ने वही किया, परंतु विवेकशील भोज ने राजा मुंज के लिए एक ताड़ पत्र पर ये लिख डाला-
मान्धाता च महीपति कृतयुगालंकारभूतो गत:।
सेतुर्येन महौदधो विरचित: क्वाअसौ दशास्यान्तक:।।
अन्ये चापि युधिष्ठरप्रभृतयो याता दिवं भूपते।
नैकेनपि समं गता वसुमती नूनम् त्वया यास्यति:।।
अर्थात ”हे राजा मुंज! सतयुग का राजा मांधाता नही रहा और समुद्र पर पुल बांधकर रावण का वध करने वाला त्रेता का राम भी आज कहां है? इसी प्रकार द्वापर का राजा युधिष्ठर जिसने अपने राज्य की प्राप्ति के लिए 18 अक्षौहिणी सेना का विनाश कराया, वह भी नही रहा, और इन जैसे किसी भी राजा के साथ यह वसुधा नही गयी, लगता है कि तेरे साथ जाएगी।” मुंज को संबोधित इस पत्र को घातक ने पढ़ा तो उसने भोज को छोड़ दिया, परंतु किसी अन्य व्यक्ति का सिर काटकर राजा मुंज को जा दिखाया। मुंज बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने घातक से पूछा कि ”भोज ने मरने से पूर्व कुछ कहा तो नही था”? घातक ने भोज का लिखा पत्र आगे कर दिया। मुंज ने उसे पढ़ा तो पढते ही भावों की निकृष्टता से उपजा अहंकार और राज्य प्राप्ति का मोह क्षण भर में ही दूर हो गया। अब तो राजा सिर पटक-पटक कर अपने भतीजे के लिए रोने लगा और जिस घातक से उसे समाप्त करने की आज्ञा दी थी उसी से उसे वापस लाने की प्रार्थना करने लगा।
घातक ने आरंभ में तो कह दिया कि अब तो भोज इस संसार में ही नही है, परंतु जब देखा कि राजा मुंज वास्तव में ही दुखी हैं तो उसने कहा कि अच्छा महाराज देखता हूं कोई उपाय करता हूं और आपके भतीजे को सही करने की युक्ति खोजता हूं। कुछ काल पश्चात वह भोज को लेकर राजदरबार में आ जाता है। तब तक राजा मुंज की ‘भाव-निकृष्टता’ आंसुओं के माध्यम से ढल चुकी थी। उसका हृदय पवित्र हो चुका था। कहा भी गया है कि पाप का अंत दान, तप और यज्ञ से ही होता है। इन तीनों से ही बनता है प्रायश्चित। राजा प्रायश्चित बोध से पवित्र हो चुका था, इसलिए भतीजे भोज को राज्य भार सौंप स्वयं वनों में तपस्या करने चला गया।
कबीर शमशान घाट में जलती चिता को देखकर गहरी सोच में डूब गये। अचानक कह उठे—–
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी केस जलै ज्यूं घास।
सब कुछ जलता देखकर भयो कबीर उदास।।
कबीर ने मनुष्य के अहंकारी निकृष्ट चिंतन को शांत करने के लिए ये शब्द कहे हैं कि हम सबकी अंतिम गति क्या होती है? फिर भी हम आसमान को सिर पर उठाए घूमने का प्रयास करते रहते हैं। सचमुच मनुष्य अहंकार में रहता है और अहंकार के वशीभूत होकर वाचिक तप से मुंह फेर बैठता है। उसकी विनम्रता भंग हो जाती है, जिससे उसकी गुण ग्राहय क्षमता प्रभावित होती है और वह दूसरों से सीखने की बजाए दूसरों को सिखाने की बातें करने लगता है। वह भूल जाता है कि तू स्वयं भी पूर्ण नही है, दोष तुझमें भी है। किसी कवि ने क्या सुंदर कहा है-
तिमिर गया रवि देखते, कुमति गयी गुरू ज्ञान।
सुमति गयी अति लोभ से भक्ति गयी अभिमान।।
सचमुच अभिमान भक्ति को भी खा जाता है। सुबह से शाम तक व्यक्ति शुभचिंतन करे, शुभ कार्य करे, और अत्यंत पवित्र कार्यों का संपादन करता रहे। परंतु शाम को अपनी वाणी से या अहंकार के प्रदर्शन से किसी की भावनाओं का अपमान कर डाले तो सारे दिन की भक्ति निर्मूल्य और व्यर्थ हो जाती है। इसीलिए समझदार लोग भक्ति को बचाए रखने के लिए अभिमान से दूर रहते हैं और अभिमान से दूर रहने के लिए भावों की निकृष्टता से दूर रहते हैं। उनका मानना होता है कि भावों को उज्ज्वल बनाये रखो, क्योंकि भावों की उज्ज्वलता से ही सर्वदोषों का शमन संभव है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।