न पालें किसी से शत्रुता
प्रतिशोध देता है अंधकार
– डॉ. दीपक आचार्य
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आमतौर पर लोग अपने भ्रमों और आशंकाओं में जीते हुए किसी न किसी को अपना शत्रु मान लिया करते हैं और फिर उसके साथ वैचारिक प्रदूषण तथा मानसिक ध्रुवीकरण को अंजाम देने के लिए जी तोड़ कोशिशों में लगे रहते हैं।
जबकि शत्रुआ और मित्रता का संबंध जिस्म से नहीं होता बल्कि प्रकृति और वैचारिक धरातल से जुड़ा हुआ होता है। जिससे हमारे विचार नहीं मिलते हैं उन्हें हम शत्रु तथा विचारों का मेल-मिलाप होने पर मित्र मान लेते हैं। मित्रता निष्काम हो सकती है और उन सभी लोगों से हो सकती है जिनसे हमारा काम पड़ता हो या न पड़ता हो, किन्तु शत्रुता उन्हीं से होती है जिनसे हमारा किसी न किसी प्रकार का कोई संबंध हो ही।
शत्रुता का मूलाधार स्वार्थ और अंधे मोह से जुड़ा हुआ है और ऎसे में हमारी इच्छाओं की पूर्ति न हो पाने से शत्रुता का भाव पैदा होता है अथवा उस अवस्था में शत्रुता पैदा हो जाती है जब हमारी बात को स्वीकारने में कोई आनाकानी करे।
इंसानों में भी एक विचित्र प्रजाति है जो अप
अधिकांश बार देखा जाता है कि शत्रुता केवल अपने अहं को तुष्ट करने का माध्यम बनकर रह जाती है। कई बार इगो और सुपर इगो ही शत्रुता का कारण होता है। शत्रुओं के दमन तथा उन पर विजय पाने की कोशिश करने वाले लोग अपना समय, धन और श्रम अपव्यय करते हैं और जो समय, धन तथा श्रम उनके विकास , निरन्तर उन्नयन के काम आना चाहिए होता है वह सारा दूसरों पर व्यय होने लगता है।
शत्रुओं से लड़ने की बजाय उनकी उपेक्षा करें, यह ज्यादा अच्छा है। शत्रुता हमेशा दुःखदायी होती है और इसमें जीतता वह है जो प्रतिशोध से दूर रहता है। प्रतिशोध रखने वाला सामने वाले का नुकसान जरूर कर सकता है लेकिन इसकी एवज में वह जितने तनावों को झेलता है, षड़यंत्रों के खेत तैयार करता है और गोरखधंधों, जायज-नाजायज कामों और समझौतों में रमा रहता है वह उसके जीवन का सर्वाधिक अंधकारमय समय होता है और इस वजह से वह प्रतिशोध तथा नुकसान देने में भले ही सफल हो जाता है, पर अपने आनंद तथा सेहत का मजा गंवा देता है।
जो लोग किसी के प्रति शत्रुता रखते हैं उनका क्षरण किश्तों-किश्तों में होता रहता है और ऎसे लोग अन्ततोगत्वा अपने ही शत्रु बनकर सामने आते हैं। शत्रुओं का प्रतिशोध न लें, उन्हें शत्रुता करने दें। यह शत्रुता और प्रतिशोध के भाव ही उनके क्षरण तथा नष्ट होने के आत्मघाती कारण बनते हैं।
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