ओ३म्
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मनुष्य जीवन में सबसे अधिक महत्व ज्ञान का बताया जाता है और यह बात है भी सत्य। हम चेतन आत्मा हैं। हमारा शरीर जड़ है। जड़ वस्तु में ज्ञान प्राप्ति व उसकी वृद्धि की सम्भावना नहीं होती। जड़ वा निर्जीव वस्तुयें सभी ज्ञानशून्य होती हैं। इनको किसी भी प्रकार की सुख व दुःख की अनुभूति नहीं होती। इसके विपरीत हमारी आत्मा जड़ता के गुण के विपरीत एक चेतन पदार्थ है जो सुख व दुःख की अनुभूति करने के साथ ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है और ज्ञान प्राप्त कर ही सुखी होता है। मनुष्य के जीवन में जितनी मात्रा में सद्ज्ञान होता है, उतना ही उसका जीवन सुखी होता है। अज्ञान मनुष्य के दुःखों का कारण होता है। ज्ञान आत्मा व परमात्मा विषयक भी होता है और संसार के पदार्थों व मनुष्य जीवन विषयक भी होता है। बिना परमात्मा और आत्मा को जाने मनुष्य पदार्थों का विज्ञान आदि से ज्ञान प्राप्त कर उनका उचित उपयोग करने में समर्थ नहीं होता।
मनुष्य जीवन को सुखी व इसके उद्देश्यानुकूल बनाने में हमारा सांसारिक ज्ञान अधिक सहयोगी व उपयोगी नहीं है। यही कारण है कि आज मनुष्यों में अत्यधिक सुख भोग सहित धन व सम्पत्ति के संचय की प्रवृत्ति देखी जा रही है। परमात्मा व आत्मा का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य अपने शरीर की न्यूनतम आवश्यकताओं को ही अपने प्रयत्नों का आधार बनाते हैं और अपना समय ज्ञान विज्ञान की वृद्धि सहित इस संसार को बनाने व चलाने वाली सत्ता परमात्मा को जानने व उसकी आज्ञाओं का पालन करने में व्यतीत करते हैं। परमात्मा को जानकर प्रातः व सायं उसकी उपासना करना मनुष्यों का का कर्तव्य होता है। ऐसे मनुष्यों का अधिकांश समय ईश्वर के मुख्य व निज नाम ‘ओ३म्’ का जप व मनन करने में व्यतीत होता है। वह अपना जीवन ईश्वर व आत्मा आदि विषयों को अधिक से अधिक जानने व आत्मा से परमात्मा का साक्षात्कार कराने में लगाते हैं। यही अनादि व नित्य, शाश्वत व सनातन आत्मा का मुख्य कर्तव्य होता है। इसी से आत्मा के जन्म जन्मान्तर के सभी क्लेश दूर होकर उसे सुख व आनन्द सहित पूर्ण सन्तोष की उपलब्धि होती है। अतः सभी मनुष्यों को सांसारिक ज्ञान सहित संस्कृत आदि कुछ भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। ऐसा करके आत्मा व परमात्मा विषयक ज्ञान व विज्ञान को प्राप्त होकर संसार के सभी व अधिकांश सत्य रहस्यों को जानकर अपना जीवन वर्तमान एवं भविष्य के दुःखों को दूर करने में लगाना चाहिये। यह उद्देश्य वैदिक जीवन पद्धति को अपनाकर ही प्राप्त किया जा सकता है।
ज्ञान प्राप्ति में मनुष्यों के सहायक विद्वान आचार्यों, अनुभवी माता, पिता तथा वृद्ध जनों के उपदेश हुआ करते हैं। यह चलते फिरते जीवित ज्ञान के कोष व भण्डार होते हैं। इन्होंने भी अपने पूर्वजों व विद्वानों से ही ज्ञान प्राप्त किया होता है। इन सबके ज्ञान का आधार सृष्टि के आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों को ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान ही सिद्ध होता है। इसकी चर्चा ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में सप्रमाण की है। संसार विषयक सभी ज्ञान वेदों में निहित है। मनुष्य को ज्ञान के साथ आदि भाषा संस्कृत का ज्ञान भी परमात्मा ने ही वेदों का ज्ञान देकर कराया था। आज भी हमारे वि़द्वान संस्कृत भाषा के अन्तर्गत शिक्षा, व्याकरण एवं निरुक्त आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर ही वेदार्थ को जानने में समर्थ होते हैं। ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ थे। उनकी अपने वेदज्ञान व अनुभवों के आधार पर मान्यता थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। उन्होंने अपनी इस मान्यता को अपने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद का आंशिक भाष्य तथा सम्पूर्ण यजुर्वेद भाष्य सहित सत्यार्थप्रकाश व अन्य ग्रन्थों के माध्यम से सिद्ध भी किया है। वेदों की सभी मान्यतायें ज्ञान व विज्ञान के अनुकूल हैं। वेदाध्ययन कर ही मनुष्य ज्ञान व विज्ञान की वृद्धि के कार्य में प्रवृत्त होते हैं और उन्हें सफलतायें भी मिलती हैं। हमारा विचार है कि वेद के अन्तर्गत सभी प्रकार का सत्य ज्ञान समाहित होता है। वेदों में जो ज्ञान है व जिस ज्ञान विज्ञानको वेदज्ञान के आश्रय व आधार पर उसके अनुकूल क्रियाओं द्वारा उत्पन्न व विकसित किया गया हो, वह ज्ञान वेद के ही अन्तर्गत आता है।
प्राचीन ग्रन्थों को देखने पर ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में भारत ज्ञान व विज्ञान की दृष्टि से उन्नत व विकसित था। देश के सभी लोग सुखी व सम्पन्न होेते थे। इसका कारण वेदज्ञान व उसके अनुसार अध्ययन व अध्यापन का होना तथा ज्ञान व विज्ञान की उन्नति करना था। प्राचीन काल में हमारे पास तीव्रगामी रथों वा वाहनों सहित समुद्र में चलने वाली नौकायें तथा वायुयान भी थे। यहां तक उल्लेख मिलता है कि प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों के पास अपने निजी वायुयान होते थे जिससे वह देश देशान्तर का भ्रमण करते थे और जो स्थान उन्हें रहने के लिये सर्वाधिक उत्तम व योग्य अनुभव होता था, वहां जाकर वह बस जाते थे। इसी प्रकार से भारत के तिब्बत प्रदेश से सारे देशों में मनुष्य फैले हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने पूना प्रवचनों एवं इतर स्थानों में इस बात का उल्लेख किया है। ऋषि दयानन्द सत्य के आग्रही थे। अतः उनके सभी कथनों को विश्वसनीय एवं प्रामाणिक स्वीकार किया जा सकता है। इन बातों की प्रामाणिकता का एक आधार यह भी है कि वेद एवं संस्कृत साहित्य में विमान व वायु-यान आदि शब्द प्राचीन काल से विद्यमान हैं। प्राचीन साहित्य में यह शब्द अनर्थक व अर्थहीन नहीं हो सकते।
वेद एवं इतर वैदिक साहित्य उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, आयुर्वेद के ग्रन्थ, रामायण एवं महाभारत आदि इतिहास ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने से मनुष्य को संसार व ईश्वरीय व्यवस्थाओं का यथावत् ज्ञान होता है जिससे वह दुःखों से निवृत्ति के मार्ग ‘आत्मोन्नति व जीवनोन्नति’ पर अग्रसर होकर जन्म मरण वा आवागमन से मुक्ति के उपाय करता है। स्वाध्याय मनुष्य को प्रतिदिन पर्याप्त समय तक करना चाहिये। ऐसा करने से उसकी आत्मा व शरीर की उन्नति सहित उसके आध्यात्मिक तथा सांसारिक ज्ञान की उन्नति भी निरन्तर होती रहती है। स्वाध्याय करने से मनुष्य की अविद्या नष्ट होती है। अविद्या ही मनुष्यों के सभी दुःखों का कारण हुआ करती है। स्वाध्याय से मनुष्य की आत्मा की अविद्या दूर होकर उसे ईश्वर, आत्मा तथा संसार विषयक ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उसके सभी भ्रम व अन्धविश्वास दूर हो जाते हैं। वह अज्ञान, हठ, दुराग्रह तथा स्वार्थ आदि से भी मुक्त होकर पक्षपातरहित हो जाता है। वह सत्य का ग्रहण तथा असत्य का त्याग कर देता है। मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त अनेक बातों में उसकी किंचित रुचि व लगाव नहीं रहता। वह ईश्वर के सत्य, चेतन, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा आनन्द स्वरूप का चिन्तन, मनन, ध्यान करता है और उसका निर्भ्रांत ज्ञान प्राप्त कर उसका साक्षात्कार करता है। स्वाध्याय व सत्याचरण से उसकी आत्मा तथा शरीर के सभी दोष दूर हो जाते हैं। वह अत्यन्त अल्प मात्रा में दुग्ध व फलादि का ग्रहण करता हुआ शुद्ध विचारों व आचरणों से अपना व संसार का कल्याण करता है। ऐसा जीवन ऋषि दयानन्द तथा स्वामी श्रद्धानन्द जी आदि के समान जीवन होता है जिसमें किसी भी मनुष्य के प्रति किसी प्रकार का द्वेष व घृणा नहीं होती। वह सभी जीवों व मनुष्यों को परमात्मा की सन्तान मानता है और उन्हें अपनी आत्मा के समान तथा परमात्मा के पुत्र व पुत्रियां मानकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से व्यवहार करता है।
स्वाध्याय से मनुष्य की अविद्या नष्ट हो जाती है। परमात्मा और आत्मा का सत्यस्वरूप उसके सम्मुख उपस्थित हो जाता है। वह निर्भ्रांत हो जाता है। ऐसा करके ही उसके जीवन का उद्देश्य ईश्वर साक्षात्कार और मुक्ति की प्राप्ति होती है। अतः सभी मनुष्यों को वेद व वेदानुकूल सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय नित्य प्रति करना चाहिये। संस्कृत विद्या का अध्ययन कर उसे प्राप्त करना चाहिये। संस्कृत में अगाध ज्ञान है जो अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं होता। यदि बाल्यकाल से ही संस्कृत अध्ययन व स्वाध्याय की प्रवृत्ति बन जाती है तो ऐसा मनुष्य कल्याण को शीघ्र प्राप्त होकर देश, समाज व संसार का मार्गदर्शन कर सकता है जैसा कि ऋषि दयानन्द और हमारे अन्य वैदिक युग के ऋषियों ने किया था। स्वाध्याय परम तप है। स्वाध्याय करने से मनुष्य इष्ट सुखों को प्राप्त हो सकता है। अतः सबको स्वाध्याय को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य