राजकुमारी कल्याणी और बेला का वो अविस्मरणीय आत्मबलिदान

राकेश कुमार आर्य

मनु महाराज ने मनुस्मृति (7/14) में लिखा है :-

दण्ड: शास्ति प्रजा: सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।आत्मबलिदान

दण्ड: सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मम बिदुर्बुधा:।

अर्थात दण्ड ही है जो सब प्रजा पर शासन करता है, दण्ड ही जनता का संरक्षण करता है, सोते हुओं में दण्ड ही जागता है, अर्थात दण्ड के भय से चोरी-जारी नही होती। इन गुणों के कारण विचारशील मनुष्य दण्ड को ही धर्म कहते हैं।”

इसका अभिप्राय है कि दण्ड प्रजा का संरक्षक है। परंतु जब दण्ड उन लोगों के हाथ में आ जाए जो स्वयं चोरी-जारी करने में विश्वास रखते हों और इसी लिए किसी एक वर्ग या समुदाय के सर्वनाश की योजना रचते-बुनते हों तो उस समय दण्ड दण्ड न रहकर ‘अत्याचारी की लाठी’ बनकर रह जाता है। अत्याचारी की इसी लाठी से एक मुहावरा प्रचलित हुआ कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस।’ इसी मुहावरे का प्रभाव इतिहास लेखकों की लेखनी को भी प्रभावित कर गया, और उन्होंने भी इसी विचार को मान्यता देते हुए धारणा बना ली कि- ‘जिसकी गद्दी उसी का इतिहास’।

धर्मयुद्घ क्या है?

हमारी प्राचीन वैदिक मान्यता है कि जो युद्घ नि:स्वार्थ भाव से औरों के कल्याणार्थ किया जाता है वही न्याययुद्घ या धर्म युद्घ कहलाता है, और जो युद्घ निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जाता है वह युद्घ अन्याय और अधर्म के लिए किया गया युद्घ माना जाता है। यदि इतिहास लेखन की इस भारतीय पद्घति पर वर्तमान इतिहास को लिखा जाए अधिकांश वो अधर्मी और पापाचारी लोग इतिहास की उस महिमामंडित गद्दी से स्वयं ही उतर-उतर कर भागते दीखेंगे, जिन्होंने इतिहास पर बलात नियंत्रण स्थापित किया हुआ है, और कहते हैं कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस।’

आइए ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के इस मिथक को झुठलाने वाली और अपने अदम्य शौर्य और साहस का परिचय देने वाली भारत की दो महान पुत्रियों के उस अविस्मरणीय कृत्य का तनिक स्मरण करें, जिनके कारण भारत आज भी अपना मस्तक ऊंचा करके कह सकता है कि ये उसकी महान विरासत की महान कड़ी है।

भारत की वो महान पुत्रियां

ये दोनों भारत पुत्रियां कन्नौज नरेश जयचंद की पुत्री कल्याणी और पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला थीं। विधाता के विधान का अदभुत संयोग ही था कि जिन बेटियों के पिता परस्पर परम शत्रु रहे और कभी भी जीवन में किसी ‘एक लक्ष्य’ के प्रति समर्पित होकर नही बैठे उन्हीं की पुत्रियों ने वो निर्णय लिया कि इतिहास आज तक शीश झुकाकर उनकी चरण वंदना करता है। इन दोनों भारत पुत्रियों के पीछे कहीं संयोगिता भी खड़ी थी जो कल्याणी की बहन और बेला की विमाता थी। परंतु दोनों के लिए समान रूप से सम्माननीया थी। आज संसार में न तो कल्याणी का पिता जीवित था और ना ही बेला का पिता जीवित था। जीवित थीं तो उन दोनों की स्मृतियां और उनका वीरोचित व्यक्तित्व। कल्याणी अपने पिता जयचंद के वीरोचित व्यक्तित्व को इतिहास के पृष्ठों पर अंकित पिता की ‘जयचंदी मानसिकता’ की काली स्याही के पीछे छिपाकर रखना नही चाहती थी अपितु चाहती थी कि काली स्याही को ही पिता की संतान के रूप में ऊंचा काम करके छिपा दिया जाए। इसलिए कुछ नया कर गुजरना चाहती थी।

गोरी चाहता था दोनों भारत पुत्रियों को काजी को सौंपना

बात उस समय की है जब मौहम्मद गोरी पृथ्वीराज चौहान को व जयचंद को समाप्त कर चुका था तो उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। भारत की दो शक्तियों को मिटाकर वह गजनी के उस काजी की शरण में जाकर अपने पापों को पुण्यों में परिवर्तित कराना चाहता था जिसके दिशा निर्देश और पवित्र आदेश को पाकर वह भारत पर आक्रमण करने के लिए यहां आया था। वह अपने काजी के प्रति पूर्णत: समर्पित था और उसे प्रसन्न करना अपना पवित्र कत्र्तव्य मानता था। इसलिए इस्लामी परंपरा के अनुसार वह भारत से जयचंद की पुत्री कल्याणी तथा पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला को अपने काजी के लिए सबसे उत्तम भेंट के रूप में लेकर चला। तेजपाल सिंह धामा ने अपनी पुस्तक ‘पृथ्वीराज चौहान: एक पराजित योद्घा’ में इस घटना का सुंदर वर्णन किया है।

‘लूट का माल’ हिंदी में बन गया मुहावरा

‘लूट का माल’ जो मुहावरा या शब्द समूह हमें हिंदी साहित्य में मिलता है, वह भी विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं की और विदेशी लेखकों की ही देन है। क्योंकि वहां इस शब्द का बार-बार और अतिरंजित शैली में प्रयोग किया गया है। इसलिए अपने लिए घातक होते हुए भी इस शब्द समूह को हिंदी में मुहावरे के रूप में अपना लिया गया है।

जब गोरी अपने देश गजनी पहुंचा तो उसने भारत की लूटों का और लूट के माल का बढ़ा चढ़ाकर वर्णन किया। समकालीन इतिहास लेखकों के माध्यम से भी हमें इसकी वास्तविक जानकारी मिलती है। 1400 ऊंटों पर गोरी भारत के लूट के माल को लेकर गजनी की ओर चला था। भारत पर गोरी ने जिन उद्देश्यों से प्रेरित होकर आक्रमण किया था उनके विषय में अधिकांश इतिहासकारों ने  वर्णन करते समय भारत से असीम धन प्राप्ति की इच्छा को भी एक महत्वपूर्ण कारण माना है। काजी ने जब उसे भारत की ओर बढ़कर साम्राज्य विस्तार की प्रेरणा दी थी तो उसके पीछे साम्राज्य विस्तार, इस्लाम की सेवा और भारत से मिलने वाला असीम धन उसकी प्रेरणा को भी प्रेरित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारण था। अत: अब जब गोरी ने भारत में इस्लामिक साम्राज्य का विस्तार भी कर लिया था और इस्लाम की सेवा करते करते भारत से असीम धन भी प्राप्त कर लिया था तो यहां से अपने गुरू काजी के लिए कुछ ‘अनमोल भेंट’ ले जाना उसका कत्र्तव्य था और इसके लिए कल्याणी और बेला से उत्तम कोई भेंट उसकी दृष्टि में और नही हो सकती थी।

मां भारती की सेविका: कल्याणी और बेला 

कल्याणी और बेला अपने भाग्य पर ना तो इठला रही थीं और ना ही वे अपने भाग्य से रूष्टï थीं, अपितु जो अवसर उन्हें सौभाग्य से मिला था उसे वह मां भारती की सेवा का अनुपम अवसर मानकर चल  रही थी। अत: इस अवसर को वह इसी रूप में प्रयोग करना चाहती थीं। वह कोई ऐसी युक्ति सोच रही थी कि जिससे हिंदुत्व की रक्षा हो सके और प्रतिशोध लेकर शत्रु को समाप्त करते हुए अपने शील और सतीत्व को भी बचाया जा सके।

….और अंत में उन्हें ऐसी युक्ति मिल ही गयी जो उनके सतीत्व को और मां भारती के सम्मान की रक्षा करा सके। बस अब इन दोनों महान पुत्रियों को अपनी योजना को क्रियात्मक स्वरूप देने मात्र की ही प्रतीक्षा थी।

गोरी बनना चाहता था इस्लाम का सबसे बड़ा सेवक

जब गोरी इन दोनों राजकुमारियों को भारत की सीमा से बाहर निकाल रहा था, तो उसके मन में इनके विषय में रह-रहकर यही विचार आ रहा था कि अब ये बेबस हैं, असहाय हैं, विवश हैं और अब इन्हें वही करना होगा जो मैं चाहूंगा। वह यह भी सोच रहा होगा कि जब मैं अपने काजी को हिंदुस्तान की  लूट की ये सर्वोत्तम भेंट प्रस्तुत करूंगा तो काजी कितने प्रसन्न होंगे, और उनकी इस प्रसन्नता के प्रतिकार स्वरूप मुझे इस्लाम का सर्वोत्कृष्टï सेवक होने का सम्मान मिल जाएगा। यही सोचते-सोचते गोरी ने भारत की सीमाओं से गजनी की सीमाओं में प्रवेश किया। वह अपनी योजनाओं में व्यस्त था और भारत की ये महान पुत्रियां अपनी योजनाओं में व्यस्त थीं।

काजी को दी गयी सर्वोत्तम भेंट

अंत में गोरी ने गजनी शहर में प्रवेश किया। उसके प्रशंसकों ने उसका भव्य स्वागत किया। अगले दिन दरबार लगाया गया। काजी ने गोरी से पूछा कि हिंदुस्तान से क्या क्या लाये हो?

तब गोरी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ काजी को भारत की लूट का विवरण प्रस्तुत किया। उसने बताया-”काजी साहब मैं हिंदुस्तान से सत्तर करोड़ दिरहम मूल्य के सोने के सिक्के, पचास लाख चार सौ मन सोना व चांदी, इसके जरीदार वस्त्र व ढाका की मलमल लूट कर गजनी की सेवा में लाया हूं। मंदिरों को लूटकर 17000 सोने व चांदी की मूर्तियां लायी गयीं हैं, 2000 से अधिक कीमती पत्थर की मूर्तियां व शिवलिंग को भी लाया गया है। उनके टुकड़े टुकड़े करके उनसे जामा मस्जिद की सीढिय़ां बनाने का हुक्म दे दिया गया है। आपके आदेशानुसार मंदिरों को आग से जलाकर भूमिसात कर दिया गया है और उनके स्थान पर मस्जिदों व सूफियों के मठों के भवन बनाने का कार्य आरंभ करा दिया गया है। ब्राह्मïणों और क्षत्रियों का वध कर दिया गया है और उनकी सुंदर औरतों व बच्चों को बंदी बनाकर गजनी लाया गया है।”

अंत में काजी ने अपने मन के उस व्याकुल करने वाले प्रश्न को भी गोरी से पूछ ही लिया कि आप हमारे लिए हिंदुस्तान से क्या लाये हो? गोरी ने काजी की मानसिकता को समझते हुए उसे बताया कि आपके लिए मैं हिंदुस्तान से कन्नौज के राजा जयचंद की पुत्री कल्याणी तथा दिल्ली के अधिपति रहे पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला को लेकर आया हूं, जो कि अद्घितीय सुंदरी हैं।

काजी गोरी के इस उत्तर को सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उससे रहा नही गया, उसके भीतर उपजे काम देवता ने उसे घायल कर दिया था। अत: वह बड़ा व्यग्र हो उठा था और अपनी व्यग्रता को छिपाने का प्रयास किये बिना ही उसने गोरी से पूछ लिया कि उस बेहतरीन तोहफे को आप हमारे सामने कब पेश करोगे? गोरी ने कहा-”आपके हुक्म की देर है-काजी साहब।”

काजी रह गया दंग

खैर, काजी का हुक्म पाकर गोरी ने दोनों राजकुमारियों को काजी के सामने उपस्थित कर दिया। जब काजी ने उन दोनों राजकुमारियों को देखा तो दंग रह गया। ऐसा असीम सौंदर्य उसने आज से पहले कभी नही देखा था। उसे नही लग रहा था कि वह दो कन्याओं को देख रहा है, अपितु उसे यही लग रहा था कि वह निश्चय ही स्वर्ग की दो अप्सराओं से साक्षात्कार कर रहा है। जिन अप्सराओं की चर्चा उसने केवल आज से पहले सुनी-सुनाई ही थी आज उन्हें अपने सामने पाकर वह आश्चर्यचकित तो था ही साथ ही अपने मौहम्मद गोरी पर भी उसे बहुत ही प्यार आ रहा था जिसने उसका इतना ध्यान रखा।

निश्चल खड़ी रहीं दोनों भारत पुत्रियां

दोनों भारत पुत्रियां कल्याणी और बेला सारे दृश्य को समझ कर भी निश्चल भाव से मौन साधे खड़ी रहीं। उनकी गंभीरता और चेहरे का आत्मविश्वास बहुत कुछ बोल  रहा था। यह अलग बात है कि जिन लोगों के मध्य वे खड़ी थीं उनमें से कोई भी उनके चेहरे के गाम्भीर्य और आत्मविश्वास के भावों का अर्थ समझने में असमर्थ था। वे सभी उन्हें बेबस और असहाय मानकर ‘पिंजड़े के पंछी’ ही मान रहे थे। इससे अधिक उनकी दृष्टिï में उनका कोई मूल्य नही था। काजी ने अपनी व्यग्रता को थोड़ा छिपाने का प्रयास किया। उसने बिना समय गंवाये ही दोनों राजकुमारियों से अपने साथ विवाह करने का प्रस्ताव रख ही दिया।

विवाह प्रस्ताव दो शर्तों पर स्वीकार

राजकुमारियों ने भी समझ लिया कि अब सही समय आ गया है और यहीं से अपनी योजना को मूत्र्तरूप देना उचित होगा। इसलिए बेला ने बिना किसी हिचक और संकोच के, किंतु बड़े ही बौद्घिक चातुर्य का परिचय देते हुए काजी से कह दिया कि काजी साहब, यदि हम आपकी बेगम बनती हैं तो इससे बड़ा सौभाग्य हमारे लिए भला और क्या हो सकता है? परंतु अपनी बेगम बनाने से पूर्व आपको हमारी दो शर्तें स्वीकार करनी पड़ेंगी। बताइए क्या आप हमारी शर्तों को सुनने और उन्हें मानने को तैयार हैं?

कामातुर व्यक्ति निर्लज्ज और अविवेकी हो जाता है। इस समय कामातुर काजी की मन: स्थिति भी कुछ ऐसी ही बन चुकी थी। इसलिए उसने अपनी बुद्घि पर अधिक जोर दिये बिना शीघ्रता में कह दिया कि ”राजकुमारी हमें तुम्हारी शर्तं स्वीकार होंगी। बताइए, आपकी क्या शर्तें हैं?”

बेला ने समझ लिया कि उसका पहला तीर सही निशाने पर लगा है। इसलिए वह अपनी योजना की सफलता के प्रति थोड़ी आश्वस्त होते हुए बोली कि ”काजी साहब, हमारे यहां विवाह के समय वर के कपड़े ससुराल पक्ष से आते हैं। इसलिए हमारी पहली शर्त है कि आपके लिए कपड़े हम अपने देश भारत से ही मंगाना चाहेंगी, जिन्हें मंगाने के लिए हमें समय और धन उपलब्ध कराया जाए।

काजी ने सोचा कि बात बन गयी। उसने बड़ी प्रसन्नता से ‘हां’  करते हुए कह दिया कि ऐसा ही किया जाएगा। तब उसने बेला से अपनी दूसरी शर्त बताने का आग्रह किया। काजी के आग्रह पर उसने कहा कि काजी साहब, जब हमें आपसे विवाह करना ही है तो विधिवत विवाह संस्कार होने तक हमारा शील भंग न किया जाए।

काजी ने इस शर्त पर भी सहमति व्यक्त करते हुए ‘हां-हां’ कह दिया।

कवि चंद्रबरदाई को लिखा पत्र

तब बेला ने अपने राजदरबारी कवि चंद्रबरदाई को कूट पत्र लिखा जिसका आशय केवल वही समझ सकता था। पत्र में लिखे अनुसार कवि चंद्रबरदाई ने काजी के लिए वस्त्रों का प्रबंध कराके यथाशीघ्र गजनी पहुंचाने की व्यवस्था कर दी और काजी के लोगों को वो कपड़े देकर विदा कर दिया। विवाह के नियत दिन से पूर्व ही काजी के  लोग वर के कपड़ों को लेकर भारत से गजनी पहुंच गये। जैसे ही गजनी के लोगों को पता चला कि भारत से काजी के लिए कपड़े आ गये हैं तो वे इस अदभुत विवाह समारोह की प्रतीक्षा करने लगे।

विवाह की घड़ी आ गयी

अंत में वह घड़ी आ ही गयी जब काजी का विवाह भारत की दो अप्रतिम महान पुत्रियों के साथ होना था। बड़ी भव्य तैयारियां विवाह समारोह की गोरी ने कराई थीं, आखिर उसे काजी से ‘जन्नत’ का फरमान जो लेना था। काजी भी कम खुश नही था, क्योंकि उसे आज ‘जन्नत की हूरें’ बेगमों के रूप में मिलने जा रही थीं, यही स्थिति भारत की पुत्रियों की थी, वह भी बहुत प्रसन्न थीं, क्योंकि वह भी आज मातृभूमि के लिए निज धर्म और निज संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वोत्कृष्टï बलिदान देकर उसी गौरवशाली इतिहास को दोहरा देना चाहती थीं जिसके लिए भारत में वीर क्षत्राणियां अपनी अपनी संतानों को जन्म दिया करती हैं। इसलिए दोनों वीर बालिकाओं ने अपनी योजना की अंतिम कड़ी को सफलतापूर्वक पूर्ण करते हुए काजी से बड़े आत्मविश्वास के साथ सहज भाव से कह दिया-आप जानते ही हैं कि आज हमारा आपका निकाह होने जा रहा है तो आज के पश्चात हमें बुरका में रहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। अत: हम चाहेंगी कि निकाह से पहले एक बार हम अपनी प्रजा के लोगों को दर्शन दें। हमारी भारतीय परंपरा भी यही है कि राजकुमारी विवाह से पूर्व एक बार उपस्थित जनसमूह के समक्ष दर्शन देने और उनमें से ज्येष्ठों, वरिष्ठों एवं श्रेष्ठों का आशीष प्राप्त करने अवश्य आती हैं।”

काजी ने फिर सहमति दे दी और वह स्वयं भारत की इन दोनों वीर बालिकाओं को अपने राजभवन के कंगूरे पर लेकर पहुंच गया। बस, यह कंगूरा ही दोनों वीर बालिकाओं और काजी की अंतिम यात्रा लिखने का अंतिम स्थान था। भारत की इन पुत्रियों ने ‘चोटी’ की  रक्षा के लिए चोटी वाले स्थान को ही चुना और चोटी पर पहुंचकर ही ‘चोटी’ के लिए प्राण दे दिये।

हुआ यूं कि काजी जैसे ही कंगूरे पर पहुंचा, उसे आश्चर्यजनक व्याकुलता सी अनुभव होने लगी। उसके कपड़ों में अपने आप ही आग जलने लगी। वस्तुत: ये कपड़े चंद्रबरदाई द्वारा इसी विद्या के साथ बनवाये गये थे कि इन्हें पहनने के कुछ काल पश्चात इनमें आग लग जाएगी। ये वस्त्र तीक्ष्ण विष से सने हुए थे। आग लगती देख काजी पागलों की भांति इधर उधर भागने लगा। कल्याणी और बेला अपनी योजना की सफलता से अत्यधिक प्रसन्न थीं, पर अब समय नही था, अधिक प्रसन्नता दिखाने का। अत: बेला  ने कह दिया कि ”अरे, दुष्टï काजी तू हमारी अस्मत लूटना चाहता था ना देख हमने अपनी भारत माता के अपमान का प्रतिशोध तुझसे किस प्रकार ले लिया है? अब हम स्वयं भी हिंदुत्व की रक्षा के लिए स्वयं ही बलि दे रही है।”

….और यह कहकर उन दोनों वीर बालाओं ने एक दूसरे की छाती में विष बुझी कटार घोंप दी। उनकी प्राणहीन देह राजमहल के कंगूरे से नीचे आ पड़ी। उपस्थित म्लेच्छ जब तक सारे रहस्य को समझते, तब तक तो सारा खेल पूर्ण हो चुका था।

कितनी पुरानी परंपरा है भारत की-‘डायर’ को उसी के घर में जाकर मारने की? स्वतंत्रता आंदोलन को लडऩे के कई प्रकार होते हैं। कोई सुविधा और साधनों से पूर्ण होकर बड़ी सेना बनाकर युद्घ करता है तो कोई सुविधाविहीन और  साधन विहीन होकर भी अपने बलबूते पर अकेला युद्घ करता है। उद्देश्य सबका एक ही होता है, विदेशी की दासता स्वीकार न करना और उसे खदेड़ कर बाहर भगा देना। उद्देश्य पवित्र दोनों का है। पर जब अकेले व्यक्ति को ऐसे क्षणों में युद्घ करना पड़े कि जब मृत्यु साक्षात दीख रही हो तो उस समय उसका बलिदान सुविधा-साधन संपन्न व्यक्ति से कही अधिक वंदनीय हो जाता है। हमारा दुर्भाग्य ही ये रहा है कि हमने अधिक वंदनीय बलिदानों की ही उपेक्षा की है और न केवल उपेक्षा की है, अपितु उन्हें यूं भुला दिया है कि जैसे वे हुए ही नहीं। कल्याणी और बेला का आत्मबलिदान हमसे केवल यही पूछ रहा है कि अंतत: ये सब कुछ कब तक चलेगा?

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