जब किसी विद्वान ने हिंदी साहित्य के लिए तन, मन और धन के शब्द के समुच्चय को दिया होगा तो सचमुच उसने हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी सेवा की थी। ये तीन शब्द भारत की ही नही अपितु विश्व की भी समग्र व्यवस्था को अपने आप में निहित करने वाले सार्थक शब्द हैं। परिवार से लेकर विश्व तक की सारी संस्थायें इन तीन शब्दों से संचालित हैं। इनके महत्व पर प्रकाश डालने से पूर्व हम इनके अर्थ पर विचार करते हैं। हमारी महान संस्कृति के कुशल शिल्पकारों ने समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए वेदों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के नाम से चार वर्ण बनाये थे। यथा-
उरूतदस्य यत वैश्य पदाभ्यास शूद्रो अजायत:।।
इन्हें आप क्रमश: शिक्षक, रक्षक, पोषक और सेवक कह सकते हैं। समाज की व्यवस्था को चलाये बनाये रखने के लिए हमें ब्राह्मण के रूप में शिक्षक चाहिए जो अज्ञान को मिटाकर शिक्षा का प्रसार कर सके और संसार को अज्ञानांधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर चल सके। दूसरे हमें रक्षक चाहिए। ऐसा रक्षक जो समाज की व्यवस्था में विघ्न डालने वाले दुष्ट व आततायी लोगों से समाज की रक्षा कर सके। तीसरे हमें अभाव (अकालादि या भोजन, वस्त्र और आवास की मूलभूत समस्या) से मुक्ति दिला सके, ऐसा पोषक चाहिए। इसके पश्चात चौथा व्यक्ति सेवक है। वह उपरोक्त तीनों कार्यों में से कोई सा कार्य न करने वाला व्यक्ति है। यह सेवा को अपना कार्य मान लेता है।
समाज में मुख्यत: तीन प्रकार की प्रतिभायें हैं- एक ऐसे व्यक्ति की जो संसार का अपने बौद्घिक बल से या बौद्घिक प्रतिभा से मार्गदर्शन करते हैं। इन्हें ब्राह्मण कहा जाता है।
मानसिक मार्गदर्शन देने के कारण इन्हें उपरोक्त शब्द समुच्चय (तन, मन और धन) में मन का प्रतिनिधि माना जा सकता है। इसके उपरांत समाज के आततायी लोगों से जो व्यक्ति संघर्ष करता है, वह संसार के इस विशाल यज्ञ में अपने तन की आहुति (इस संसार की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए) देता है। पहले वाला यदि अपना मन होम करता है, तो दूसरे वाला अपना तन होम करता है। किंतु संसार तन और मन (क्षत्रिय और ब्राह्मण) से भी नही चल सकता।
अकबर के विशाल सैन्य बल का सामना महाराणा प्रताप के लिए संभव नही था। उनका क्षात्रबल और उनके पुरोहितों और सेनापतियों का बौद्धिक बल रखा रह जाता यदि उनके साथ ‘भामाशाह’ न आकर जुड़ता। जब ‘भामाशाह’ ने राष्ट्र की सेवा के लिए अपने कोष के द्वार खोल दिये तब ही महाराणा प्रताप का क्षात्रबल और उनके पंडितों (उच्चाधिकारियों) का बौद्घिक बल काम आ सका था। इसलिए धनपोषक (वैश्य का) प्रतिनिधि है। इस प्रकार शिक्षक (मन) रक्षक (तन) और पोषक (धन) हमारी सारी सामाजिक व्यवस्था के प्रतिनिधि शब्द हैं। व्यवस्था के आधार हैं।
हर व्यक्ति का निजी जीवन उसके तन के स्वास्थ्य, मन के बौद्घिक (मानसिक) बल और आर्थिक संसाधनों पर ही आधारित होता है। निजी जीवन में भी तन यदि स्वस्थ नही है या व्यक्ति का बौद्घिक स्तर ऊंचा नही है या उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नही है तो भी वह संसार की उपेक्षा, तिरस्कार और उत्पीडऩ का शिकार बना जाता है। जीवन को सही प्रकार से जीने के लिए अच्छा तन, अच्छ मन और अच्छा (पर्याप्त) धन तीनों ही आवश्यक हैं।
अब हम समाज की व्यवस्था पर विचार करते हैं समाज को उन्नत और प्रगतिशील बनाये रखने के लिए समाज के जागरूक लोग सदा प्रयत्नशील रहते हैं। ये लोग एक सजग प्रहरी की भांति अपने कत्र्तव्यबोध से सदा प्रेरित रहते हैं। समाज की व्यवस्था के बांध में हो रहे क्षरण को रोकने के लिए ये लोग सदा क्रियाशील रहते हैं। ये लोग अपने संबोधनों से, प्रवचनों से, भाषणों से, लेखों से समाज को सदा सही दिशा देने का कार्य करते रहते हैं। ये लोग अपनी बुद्धि और बल से (मन से) समाज का मार्गदर्शन करते हैं। ऐसे रचनात्मक और सकारात्मक चिंतन में लगे लोगों को आप ब्राहमण कह सकते हैं, चाहे वह किसी भी जाति संप्रदाय में पैदा क्यों न हुए हों।
किसी जाति विशेष में जन्म लेना ब्राह्मण हो जाना नही है। ब्राह्मण धर्म के अनुकूल कार्य संपादन को न्याय संगत और धर्मानुकूल बनाये रखने के लिए सचेष्ट लोग अपने बुद्घि बल से जो कार्य निष्पादन करते हैं वही वास्तविक ब्राह्मण हैं। इसके पश्चात भी यदि व्यवस्था में निरंतर क्षरण जारी रहे तो उस क्षरण होती हुई व्यवस्था को क्षत्रिय संभालने का प्रयास करता है। दुष्ट लोगों पर ब्राह्मण वर्ग के उपदेशों का, प्रवचनों का, लेखों का, कविताओं का प्रभाव नही पड़ा करता। प्रसुप्त संस्कार भी उसी के जागते हैं जिसके अंत:करण में सुसंस्कार के कुछ अणु पड़े होते हैं। ये अणु बीज रूप में भीतर होते हैं और समय आने पर उपज कर प्रकट होते हैं। इसलिए समाज की व्यवस्था, ब्राह्मणों के द्वारा चलती रहती है। किंतु दुष्ट उसमें विघ्न डालने का हर संभव प्रयास करते हैं तब उन्हें नियंत्रण में लाने के लिए दण्ड (डण्डा) की व्यवस्था की जाती है। यह दण्ड (डण्डा) ज्ञान की लौ को बुझाने के लिए उठने वाले हाथों को तोडऩे के काम आता है। जिससे कितने ही दुष्ट आंदोलित हो उठते हैं। तब उन दुष्टों के आंदोलन को शमित करने के लिए ऐसा क्षत्रिय वर्ग अपना तन समर्पित करता है। यह तन का समर्पण सर्वोत्कृष्ट बलिदान के नाम से महिमामंडित किया जाता है।
हमारी सरकारें इन तीनों शब्दों को अपनी व्यवस्था का आधारभूत स्तंभ मानकर चलती हैं। लोक कल्याण के दृष्टिगत प्रत्येक व्यक्ति के तन (अच्छी स्वास्थ्य सेवायें), मन (शिक्षा की व्यवस्था), धन (संपत्ति प्राप्त करने के लिए समान अवसरों की उपलब्धता सुनिश्चित करना) की रक्षा करना राज्य का सर्वोपरि कत्र्तव्य है। जब हम राज्य के संबंध में इन तीनों शब्दों पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होना चाहिए कि लोक कल्याण के लिए राज्य को सदा ही ज्ञानवान लोगों (ब्राह्मणों) की, वीर्यवान लोगों (क्षत्रियों) की और धनवानों (वैश्यों) की आवश्यकता होगी। इसलिए राज्य सदा इसी प्रकार की व्यवस्था को संपादित और स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहता है। जो राज्य ऐसा नही कर पाता उसमें आतंकवादी-असुर प्रवृत्ति के लोगों की वृद्घि होती है।
वेद ने भी इन तीनों शब्दों को व्यक्ति के जीवन और राष्ट्र की प्रगति का आधार माना है। इसलिए उसने व्यवस्था दी है-
”पुनर्ददताअघ्नता जानता संगमेमहि”
कि हमारी संगति दानियों से (ऐसे धनवानों से जो समाज और राष्ट्र के लिए कुछ दान करते हों) अघ्नता, अहिंसा की स्थापनार्थ अपना तन न्यौछावर करने वाले वीरों से और ज्ञानियों (ब्राह्मणों) से हो। क्योंकि ये ही हमारी सारी व्यवस्था का आधार हैं।
हम परिवार में देखें कि सभी लोग कमाने वाले नहीं होते, कुछ लोग कमाते हैं बाकी खाते हैं। ये कमाने वाले धन के देने वाले हैं। इसी प्रकार परिवार में सभी लोग बाहरी शत्रुओं से लडऩे वाले नहीं होते, कुछ ही होते हैं, बाकी सब उनके कारण सुरक्षित रहते हैं। ये लडऩे वाले योद्घा अपना तन समर्पित करने वाले होते हैं। इसी प्रकार सब लोग परिवार को अपने बुद्घि बल से नियंत्रण में लेकर नही चल सकते, एक मुखिया ही चला करता है। वह अपने ज्ञानबल में श्रेष्ठ होता है, इसीलिए वह बड़ा माना जाता है। परिवार की व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए यह अपना मन समर्पित करता है। यह मुखिया शब्द मुख्य-मुख शब्द से ही बना है। मुख सारी इंद्रियों को अपने इर्द-गिर्द रखता है और मुख सहित सारे शरीर का भार पैर उठाते हैं। मुख आपत्ति में पड़े परिवार को सुंदर बोलों के माध्यम से शत्रुओं से बचा लेता है और शरीर की रक्षा के लिए कभी कड़वी दवा भी खाता है। इस प्रकार उसका शरीर में बहुत ही प्रमुख स्थान है, वैसे ही जैसे समाज में शिक्षक आदि वर्ग का तथा राष्ट्र में न्यायाधीशों का है। अब थोड़ा विचार करें- ईश्वर की ‘भूः’ शक्ति संसार के लिए तन प्रदाता है, उत्पत्ति कर्ता है। ”भुव:” शक्ति दुखहर्ता है, वह शक्ति ज्ञान प्रदाता है, दुखों के बंधनों का विवेक कराती है और उनसे छुटकारे का उपाय बताती हैं। इसलिए ”भुव:” शक्ति ”मन” की शक्तियों को जगाती है, बुद्घिबल से विवेक का ज्ञान कराती है। इसके पश्चात है ईश्वर की ”स्व:” शक्ति। इसका अभिप्राय है ईश्वर का सुखदाता स्वरूप। सारे ऐश्वर्यों का सुख संपदा धन का देने वाला। इस प्रकार अध्यात्म क्षेत्र में भी तन, मन और धन हमारे मार्गदर्शक के रूप में उसी प्रकार खड़े हैं, जिस प्रकार परिवार, समाज और राष्ट्र में जीवन क्षेत्र में वह विभिन्न रूपों में खड़े हैं। आज आवश्यकता है अपने सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करने की है, उन्हें समझने, मानने और जानने की है। आतंकवाद के विनाश के लिए सरकारें इससे प्रेरणा ले सकती हैं।
मुख्य संपादक, उगता भारत