उत्तर प्रदेश पर है सब पार्टियों की नजर
राजनीतिक विश्लेषण (उ. भा.)
गाजियाबाद। उत्तर प्रदेश ने भारतीय राजनीति में पहले दिन से ही अपनी खासी जगह बनायी है। इस प्रदेश ने अब तक कुल 8 प्रधानमंत्री देश को दिये हैं। इन प्रधानमंत्रियों में जहां देश के पहले तीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी सम्मिलित रहे हैं, वही चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं। पहले तीन प्रधानमंत्री देते ही उत्तर प्रदेश के विषय में देश के राजनीतिक क्षेत्रों में एक मुहावरा बन गया कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। उत्तराखण्ड के निर्माण से पहले उत्तर प्रदेश देश की संसद के लिए 85 सांसद बनाकर भेजता था। अब भी 80 सांसद पार्लियामेंट में भेजकर उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा प्रदेश होने का गौरव रखता है। सामान्यत: 40-50 सांसद यहां से जिस पार्टी या गठबंधन को मिले वही सत्ता का पलड़ा अपनी पार्टी या गठबंधन के नेता की ओर मोडऩे में आसानी से कामयाब हो जाते हैं।
भाजपा ने अपने पीएम पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी को बनारस से पार्टी प्रत्याशी बनाकर उत्तर प्रदेश की जनता को फिर यह संदेश देने का प्रयास किया है कि यूपी को मोदी की झोली में डालते ही दिल्ली फतह हो जाएगी। इसका सकारात्मक प्रभाव प्रदेश की जनता पर गया है, यद्यपि मोदी गुजरात से भी जीत सकते थे, परंतु उन्होंने बनारस से ही टिकट लेकर एक तीर से कई निशाने साधे हैं और उत्तर प्रदेश में आकर अपने विरोधियों और कई राजनीतिक धुरंधरों का पसीना छुड़ा दिया है। जिससे राजनीतिक और चुनावी जंग प्रदेश में रोचक हो गयी है। मतों का तेजी से धु्रवीकरण हुआ है और यदि भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों की मानें तो भाजपा को अकेले उत्तर प्रदेश से ही इस बार 55-60 सीटें मिलने जा रही हैं। यदि इनमें गुजरात की 26 में से संभावित बीस सीटें और जोड़ दें तो मोदी को इन दोनों प्रदेशों से (जहां वे दो सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं) 75-80 सीटें मिलती नजर आ रही हैं। परंतु उत्तर ्रप्रदेश में तीन राजनीतिक दल सपा, बसपा और कांग्रेस भी हैं। इनकी हालत तो पतली है, परंतु इतनी पतली भी नही है कि उन्हें कुछ भी न माना जाए। सपा अपना आंकड़ा ही 20-25 सीटों का मान रही है और इतनी सीटों के माध्यम से ही 16 मई के बाद तीसरे मोर्चे की सरकार का नेतृत्व करने का सपना संजो रही है, जबकि कु. मायावती भी 25-30 सीटें पाकर सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने की जुगत भिड़ाते हुए चुनाव लड़ रही है।
चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो समय ही बताएगा, परंतु इस समय चुनावी शतरंज जिस प्रकार बिछ चुकी है, उसे देखकर चुनावी परिदृश्य रोचक अवश्य हो गया है और देखकर यही लग रहा है कि सारे राजनीतिक दल उत्तर प्रदेश से ही अपने भाग्य के बनने या बिगडऩे का सपना देख रहे हैं। परंतु भाजपा से अलग किसी पार्टी का मनोबल बनता सा नही दिख रहा है। कांग्रेस के राहुल गांधी केवल अपने श्रोताओं का मनोरंजन कर रहे हैं और कांग्रेस ही है जो केवल अपना अस्तित्व बचाने के लिए उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ रही है, सत्ता प्राप्ति के लिए नही। जबकि अन्य दल भी अपना अस्तित्व उत्तर प्रदेश से बनता बिगड़ता देख रहे हैं। राजनीति में कभी भी आत्मविश्वास खोया नही जाता, क्योंकि यदि आपने आत्मविश्वास खो दिया या अपने विरोधी की बढ़त आपने मान ली तो इसका अर्थ होगा कि आपने बिना युद्घ किये ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली है। इसलिए राजनीति ही वह क्षेत्र है जिसमें परिणाम प्राप्त करने के लिए युद्घ अनिवार्य होता है। युद्घ से पहले न आप परिणाम ले सकते हैं और न ही आपको कोई परिणाम लेने देगा।
इसलिए युद्घ के लिए राजनीति ही एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें सेनाएं सजायी ही जाती हैं। भारत में लोकतंत्र के सोलहवें महासमर की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। सभी महारथी अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी सेनाएं सजाकर मैदान में आ चुके हैं। समर कमल, साईकिल, हाथी, और हाथ के पंजे की चतुरंगिणी सेना के मध्य है। निश्चित रूप से कई महारथी मैदान में ‘खेत’ रहेंगे तो कईयों के माथे सेहरा भी सजेगा। अब देखना यह है कि उत्तर प्रदेश जीत का सबसे बड़ा सेहरा किसके सिर सजाएगा?