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कविता

भजन : सदियों से जीव भटकता….

सदियों से जीव भटकता
पर चैन कभी ना आया
कई बार जिया मर-मर कर
फिर भी जीना ना आया

वृक्षों पशुओं में भटका
पर उपकार न सीखा
नित नया पाप करने का
सीखा इक नया तरीका
पशु पुरुष में अन्तर क्या है
ये भेद जान न पाया
कई बार जिया मर-मर कर
फिर भी जीना ना आया

तूने मोर-पपीहा बन कर
पीय-पीय को कभी न पुकारा
सत्संग की वर्षा ऋतु में
जीवन तन नहीं निखारा
कई बार तेरे जीवन में
सावन का महीना आया
सदियों से जीव भटकता
पर चैन कहीं ना पाया

तह कर के ताक पर धर दी
जीवन की सभी किताबें
तूने खून पिया निर्धन का
या विषयों भरी शराबें
प्रभु नाम के अमृत रस का
इक जाम न पीना आया
सदियों से जीव भटकता
पर चैन कहीं ना पाया

तेरे पुण्य-पाप का खाता
जब प्रभु ने देखा-भाला
“नत्था सिंह” सर से पाँव तक
तेरा जीवन निकला काला
सब पुण्य पड़ गए रे फीके
पापों का पसीना आया
सदियों से जीव भटकता
पर चैन कहीं ना पाया।

 

प्रस्तुति : आर्य सागर खारी

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