‘वायसराय’ नही जननेता चुनने का समय है
भारत के एक अधिकार विहीन लेकिन अपनी सादगी के भीतर छिपे अधिकार संपन्न प्रधानमंत्री के अवसान का समय आ गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जा रहे हैं, लेकिन शिकन उनके चेहरे पर न होकर सोनिया गांधी के चेहरे पर हैं। डा. मनमोहन सिंह को राजनीतिक अधिकार विहीन करके बैठाया गया और ‘सोनिया कीर्तन मंडली’ ने उनके हर गीत पर नजर रखी। यदि मनमोहन सिंह ने कहीं कोई शब्द भी गलत बोल दिया तो उसकी शिकायत बढ़ा चढ़ाकर ‘सोनिया दरबार’ में की गयी। वह संभावनाओं और संदेहों के झूले में झूलते रहे और मजेदार बात ये रही कि झूला झूलते-झूलते ही वह अपना कार्यकाल 10 वर्ष तक बढ़ाकर ले गये। जिस व्यक्ति के लिए देश दस माह देने को भी तैयार नही था वह व्यक्ति देश पर दस वर्ष तक शासन कर गया। भारत के लोकतंत्र की ‘महानता’ की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है? वह एक ‘जुगाड़ की गाड़ी’ थे और ये ‘जुगाड़ की गाड़ी’ जनता की छाती पर बिना उसकी स्वीकृति के निरंतर दस वर्ष तक दौड़ती रही। लोकतंत्र का इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है कि देश की जनता को जहां जनार्दन कहा जाता हो वहीं एक ‘अयोग्य व्यक्ति’ उस पर ‘जनार्दन’ बनकर शासन करता रहे? क्या यह सामन्ती व्यवस्था थी या देश की जनता की बिना मर्जी के भेजे गये ‘वायसराय’ की ब्रिटिश परंपरा का भारत के लिए एक ‘विदेशी महिला’ द्वारा अपनाया गया ऐसा ओच्छा हथकंडा था, जो उसे एक विदेशी शक्ति ने अपनाने के लिए विवश किया।
कुछ भी हो अब डा. मनमोहन सिंह एक ‘इतिहास’ बनने जा रहे हैं, इतिहास की कब्र में वह जाने ही वाले हैं और उनके विषय में यह सत्य है कि वे वहां भी नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी से नजरें मिलाकर बात नही कर पाएंगे, क्योंकि वह एक परिवार के ‘चाकर’ बनकर रहे। इसलिए उस परिवार के बड़ों की चाकरी करना उनके स्वभाव में सम्मिलित हो गया है। अत: इतिहास की कब्र में भी वह अपनी ‘आका के आकाओं’ के प्रति वफादारी का प्रदर्शन ही करेंगे। इंदिरा गांधी के समक्ष तो वह बोल भी नही पाएंगे कि मैं उसी कुर्सी पर बैठकर आया हूं जिस पर कभी आप बैठा करती थीं। इस प्रकार जो व्यक्ति अपने बॉस से यहां दस वर्ष तक डरता ही रहा और भीगी बिल्ली की तरह समय काटता रहा, वह इतिहास की कब्र में भी चैन से नही रह पाएगा।
डा. मनमोहन सिंह जब रिजर्व बैंक के गर्वनर थे तब से ही वह अमेरिकापरस्त रहे हैं, इसलिए पी.वी. नरसिम्हाराव ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में देश का वित्तमंत्री अमेरिका के कहने पर बनाया। उन्होंने ‘डंकल प्रस्तावों’ की वकालत की और देश को ‘गैट’ जैसे राष्ट्रविरोधी अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश कर दिया। इसी के पुरस्कार स्वरूप अमेरिका उन्हें देश का पी.एम. बनाने के लिए षडयंत्र और जुगाड़ ढूंढने लगा।
देश का दुर्भाग्य देखिए कि देश की जनता पर हुकूमत करने वाले व्यक्ति का चयन सात समंदर पार देश विरोधी ताकतें कर रही थीं और 2004 में हो रहे चुनावों में देश की जनता को बताया जा रहा था कि तुम अपने नेता का चुनाव करो। यह लोकतंत्र का मजाक नही तो और क्या था? देश की भोली जनता ने अपना मत दिया और 2004 के चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आयी। जब ‘राजा’ के चुनाव की बारी आयी तो अमेरिका से पत्ते हिलने लगे। कांग्रेस के ‘राजभवन’ की नजरें उधर उठीं। देखा तो साफ संकेत आ रहा था कि मनमोहन को पी.एम. बनाओ। सोनिया गांधी को संकेत को पढऩे में देर नही लगी, यदि ऐसा नही किया गया तो उन्हें ये भी समझ आ गया कि परिणाम क्या होगा? इसलिए आका को खुश करने के लिए तुरंत निर्णय ले लिया कि-”ठीक है हम आपके निर्देश के सामने शीश झुकाते हैं।” देश के लोगों ने समझा था कि सोनिया तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे कलाम से अपने प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं पर विचार करने हेतु तब राष्ट्रपति भवन गयीं थी, परंतु सच ये था कि वो उस समय अपने आका अमेरिका के निर्देशों का पालन करने हेतु अपने द्वारा लिए गये निर्णय से अवगत कराने के लिए राष्ट्रपति भवन गयीं थी। बाहर आकर सोनिया ने पत्रकारों के सामने ऐसे संकेत दिये कि जैसे उन्होंने एक ‘बहुत बड़ी कुर्बानी’ दे दी हो। इस कुर्बानी पर सारे कांग्रेसियों ने ढोल नगाड़े बजाने आरंभ कर दिये। देश के स्वाभिमान की हत्या हुई और ‘अश्वत्थामा’ मारा गया की तर्ज पर उत्सव मनाने का क्रम कांग्रेसियों ने आरंभ कर दिया। किसी ने ना तो देखा और ना देखने दिया कि राष्ट्रपति भवन में कितना बड़ा अपघात हो चुका है। इससे सोनिया की ताकत कम हुई और मनमोहन सिंह रातों रात ताकतवर बन गये। परंतु दिखाया ये गया कि मनमोहन सिंह वही हैं जो पी.एम. बनने से एक दिन पहले थे। परंतु सच ये था कि मनमोहन वो नही थे जो पी.एम. बनने से एक दिन पहले थे। हां, उन्होंने अपनी जड़ों को समझते हुए तथा यह जानते हुए कि नेहरू परिवार के प्रति वफादारी के प्रदर्शन से ही वह देर तक पी.एम. रह सकते हैं, इतना शानदार अभिनय किया कि इस परिवार की मुखिया सोनिया गांधी की चाटुकारिता में कोई कमी नही छोड़ी। वह सोनिया को अपने राजभवन में विनम्रता पूर्वक बांधने में सफल रहे और राहुल गांधी को ऐसे हाथों में खेलने दिया जहां से उन्हें कोई राजनीतिक प्रशिक्षण नही मिल सकता था। इसलिए सोनिया उनकी कायल होती चली गयीं और सोनिया पुत्र राहुल अपने ही उल्टे सीधे बाणों से ‘घायल’ होते गये।
समय बीतता गया और एक षडय़ंत्र पूर्ण सपने को सच करते-करते मनमोहन सिंह देश पर शासन करते चले गये। पिछले दो तीन वर्ष से सोनिया गांधी और राहुल का मोहभंग मनमोहन से हुआ है, और उधर अमेरिका भी उनसे जितने काम ले सकता था वह ले चुका है। इसलिए सोनिया राहुल और अमेरिका अब तीनों ही मनमोहन से मुक्ति चाहते थे। इस सत्य को मनमोहन सिंह भी जान गये, इसलिए कई बार उन्होंने राहुल गांधी के लिए कुर्सी छोडऩे की सार्वजनिक इच्छा व्यक्त की। इसे उनकी ‘सादगी’ समझा गया, परंतु उनकी इसी सादगी में ही उनकी सफल राजनीति छिपी हुई थी। वह ये जानते थे कि उनके बोये बीजों को काटने के लिए इस समय राहुल गांधी कतई भी पी.एम. बनना नही चाहेंगे। इसलिए कहते रहो पर निस्संकोच शासन भी करते रहो। यही कारण था कि उन्होंने कभी भी पद छोडऩे की इच्छा सार्वजनिक नही की। अब वह जा रहे हैं और अमेरिका की नजरों में मोदी आ रहे हैं। मोदी देश की मिट्टी से तैयार हुए नेता हैं, इसलिए अमेरिका की इच्छा उन्हें पी.एम. बनने से रोकने की है। सोनिया गांधी, राहुल और सारे छदम धर्मनिरपेक्षतावादी बृहन्नला फिर अमेरिका के संकेत पर नाच सकते हैं और यदि मोदी अपेक्षित बहुमत नही ले पाये तो मनमोहन सिंह का तो कब्र में जाना तय है परंतु 2004 के वर्ष की भांति फिर देश के स्वाभिमान की हत्या करने के लिए देश के राष्ट्रपति भवन को प्रयोग किया जा सकता है। यद्यपि यह भी सत्य है कि इस समय देश का राष्ट्रपति एक तपा-तपाया राजनेता है जो किसी छोटी और घटिया राजनीति पर पूरी पकड़ और समझ रखता है।
भारत की जनता अब समझदार हो चुकी है अब वह ‘आयातित वायसरायों’ के लिए वोट नही दे रही है, अपितु अपना जननेता चुनने के लिए वोट दे रही है। सारे षडय़ंत्रों और षडय़ंत्रकारियों का भण्डाफोड़ का समय है देश की अस्मिता का प्रश्न है। जरा संभल के।