भारतीय राजनीतिक दर्शन में चाणक्य की उपयोगिता
कन्हैया झा
अगले माह देश में आम चुनाव होने वाले हैं। देश की दो मुख्य पार्टियों के अलावा अनेक राज्य स्तरीय पार्टियां मैदान में हैं। पिछले एक वर्ष में सभी पार्टियों के छोटे-बड़े सभी नेताओं ने एक दूसरे के प्रति खूब विष-वमन किया है और चुनाव के बाद भी संसद में एक दूसरे के प्रति यह विष-वमन हमेशा की तरह जारी रहेगा। स्वतंत्र भारत में सन् 1950 में गठित हुई पहली संसद से आज तक इस विष-वमन में वृद्धि ही हुई है। प्रश्न उठता है कि क्या एक प्राचीन सभ्य देश की शासन व्यवस्था ऐसी होनी ही चाहिए ?
भारत का अपना एक गौरवपूर्ण इतिहास है। इस देश ने शस्त्र एवं शास्त्र दोनों ही विषयों पर अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किये हैं। शस्त्र का सम्बन्ध राजा एवं राजनीति से है तथा शास्त्र का सम्बन्ध लोक कल्याणकारी शिक्षण व्यवस्था से है। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि श्रीराम की राज्य सभा में वैसे ही हुड़दंग होते थे जो आज की संसद में होते हैं ? जिस दिन अंधे राजा धृतराष्ट्र की सभा में द्रौपदी का चीरहरण हुआ, उस दिन उनके साम्राज्य का अंत निश्चित हो गया था।
चाणक्य के समय ईसा-पूर्व (बी.सी) 320 में देश के अनेक जनपद अपनी क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं के कारण आपस में झगड़ रहे थे। देश के सर्वशक्तिशाली राज्य मगध में विलासी धनानंद का शासन था। किसी को भी अलक्षेन्द्र के भारत पर आक्रमण को रोकने की चिंता नहीं थी। यह चाणक्य की शिक्षा ही थी जिसने अपने विद्यार्थी और मयूरपोषक एवं चरवाहे कुल के बेटे चन्द्रगुप्त मौर्य को राज्य की रक्षा करने के लिए प्रेरित कर मगध के विलासितापूर्ण शासन का अंत किया। एक शिक्षक चाणक्य के इसी प्रयास के कारण विदेशी अलक्षेन्द्र इस देश में अपने पैर नहीं जमा पाया था।
राजनीतिक एकता की जिम्मेवारी राजा पर अथवा शासन पर होती है। आज अनेक प्रदेशों में पार्टियों ने स्थानीय अस्मिता को मुद्दा बनाया हुआ है। कश्मीर एवं उत्तर-पूर्व राज्यों में विघटनकारी शक्तियां प्रबल हैं। नेपाल सीमा से उड़ीसा तक माक्र्सवादी एक लाल-कोरिडोर बनाकर देश को विभाजित करने हेतु तत्पर हैं। ऐसा क्यों है कि आजादी के 66 वर्ष पश्चात भी भारत में राजनीतिक एकता नगण्य है ?
राजनीतिक एकता से भी अधिक सांस्कृतिक एकता का महत्व होता है। चाणक्य के समय गुरुकुलों ने शिक्षा द्वारा देश की सांस्कृतिक एकता बनायी हुई थी, जबकि उस समय भी देश आज की ही भांति हिन्दु, बौद्ध, जैन आदि अनेक सम्प्रदायों में विभक्त था। इस प्रकार यदि शस्त्र अथवा राजा शक्तिहीन था तो शास्त्र अथवा शिक्षक के प्रयास से देश पुन: एक सूत्र में बंधकर शक्तिशाली बना।
विदेशी ख़तरा आज भी उतना ही है जितना उस समय था, यद्यपि आज उसका स्वरुप प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष ज्यादा है। शस्त्र एवं शास्त्र – इन्हीं दो विषयों की विवेचना कर भारत जोड़ो अभियान के स्वरुप को निखारने का प्रयास इस पुस्तक में किया गया है। सन 1991 में डॉक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित चाणक्य नाम से एक सीरिअल दूरदर्शन पर दिखाया गया था। यद्यपि यह सीरियल उस समय की घटनाओं का एक काल्पनिक चित्रण है, परन्तु राजनीति एवं शिक्षा के विषयों पर भारतीय चिंतन को समझने में सहायक रहा है।
राजनीति राजा अथवा शासन की नीति है। चाणक्य (भाग 2/8, समय 1।10।34) में एक ज्ञानसभा का दृश्य है जिसे मगध के राज-दरबार द्वारा आयोजित किया है। इसमें देश के विभिन्न गुरुकुलों से आये छात्रों से आचार्य राजनीति से सम्बंधित प्रश्न पूछते हैं। राजा घनानंद ज्ञानसभा में जाने के प्रति बहुत उत्साहित नहीं थे। उनके अनुसार, आचार्य एवं छात्र मुझपर अपने खोखले आदर्शों एवं नीतियों को थोपने का प्रयास करेंगे। परन्तु अपने अमात्य के कहने पर वे उस सभा में उपस्थित हुए।
आचार्य धर्म और अर्थ का स्रोत क्या है ?
छात्र धर्म और अर्थ का स्रोत राज्य है।
यहां धर्म से तात्पर्य किसी जाती, सम्प्रदाय अथवा पूजा-पद्वति विशेष से नहीं था। गुरुकुल छात्रों को धर्म की शिक्षा दे शेष जीवन यापन के नियमों का ज्ञान कराते थे।
आचार्य राज्य का मूल क्या है ?
छात्र राज्य का मूल राजा है।
आगे राज्य की उपमा एक वृक्ष से देकर छात्र ने राजा, मंत्री-परिषद्, सेना आदि शासन के विभिन्न अंगों को प्रजा एवं देश की सम्पन्नता के लिए उत्तरदायी ठहराया। परंतु देश की सम्पन्नता से प्रत्येक का सुख सुनिश्चित नहीं होता।
आचार्य: सुख का मूल क्या है ?
छात्र सुख का मूल धर्म है।
आचार्य धर्म का मूल क्या है ?
छात्र ; धर्म का मूल अर्थ है।
आचार्य अर्थ का मूल क्या है ?
छात्र अर्थ का मूल राज्य है।
राज्य में यदि कोई व्यक्ति जाती, योग्यता आदि किसी भी कारण से अर्थोपार्जन नहीं कर सकता तो वह अधर्म को बढ़ावा देगा और दूसरों के दु:ख का कारण भी बनेगा। यदि प्रत्येक जनपद केवल अपनी प्रजा के सुख के लिए प्रयास करता तो सीमा विवाद आदि के कारण संघर्ष की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। शासन को ओर अधिक सुलभ करने के लिए प्रजा में कुल एवं परिवार की व्यवस्था से अपंगों का भी भरण-पोषण सुनिश्चित किया गया। गुरुकुलों को गृहस्थों से सहयोग मिलता था। फिर शासन की भी इन सामाजिक व्यवस्थाओं पर नजऱ रहती थी।
सभा में आगे इन्हीं विषयों पर;
आचार्य राजा का हित किसमें है ?
छात्र राजा का हित प्रजा के हित मैं है।
इस पर राजा धनानंद ने क्रोधित होकर कहा, यदि में प्रजा का अहित करूं तो मेरा भी अहित होगा। तो क्या शास्त्रों के आगे में मेरी सामथ्र्य कुछ भी नहीं ?। छात्र के यह कहने पर कि शास्त्रों में राजा प्रजा के लिए केवल एक वेतनभोगी सेवक है, धनानंद क्रुद्ध हो गया और छात्र के आचार्य चाणक्य से उसने कहा, क्यों ब्राह्मण, तू शास्त्रों की चर्चा नहीं करेगा, किसी राजपद अथवा धन के लिए धनानंद के आगे हाथ नहीं पसारेगा ?। इस पर चाणक्य ने कहा
मेरा धन ज्ञान है। यदि मेरे ज्ञान में शक्ति रही तो मैं अपना पोषण करने वाले सम्राटों का निर्माण कर लूँगा। मुझे धन एवं पद की कोई लालसा नहीं। राजा एवं राज्य प्रजा के लिए अर्थोपार्जन सुलभ कराता है। उस धन से शिक्षा एवं शिक्षकों द्वारा छात्रों में धर्म स्थापित किया जाता है, जो वास्तव में राज्य का एक संचित धन है। यदि किसी कारणवश प्रजा के अथोपार्जन में कोई कमी आती है तो यह धर्म रूपी संचित धन ही राज्य की सत्ता को पुनस्र्थापित कर सकता है। शिक्षा एवं शिक्षक की गुणवत्ता भी इसी कसौटी पर सुनिश्चित की जा सकती है। ऋग्वेद में इस प्रकार से तैयार किये गए छात्रों को सोम संज्ञा से विभूषित किया है।