मेरठ की अमर क्रांति सन 1857 और कोतवाल धनसिंह चपराना गुर्जर का इतिहास
10 मई 1857 की प्रातःकालीन बेला।
स्थान _मेरठ ।
क्रांति का प्रथम नायक _ धन सिंह चपराणा गुर्जर कोतवाल।
नारा _ मारो फिरंगियों को।
मेरठ में ईस्ट इंडिया कंपनी की थर्ड केवल्री की 11 और 12 वी इन्फेंट्री पोस्टेड थी ।10 मई 1857 रविवार का दिन था ।रविवार के दिन ईसाई अंग्रेज अधिकतर चर्च जाने की तैयारी प्रातः से ही करने लगते हैं ।सब उसी में व्यस्त थे।
वास्तव में दिनांक 6 मई 1857 को 90 भारतीय जवानों में से 85 ने कारतूस मुंह से खोलने से मना कर दिया था । क्योंकि इन राइफल के कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई होती थी।
इन 85 भारतीय सैनिकों का कोर्ट मार्शल करते हुए अंग्रेजों ने आजीवन कारावास की सजा दी। जो मेरठ की जेल में बंद थे । इसके अलावा 800 भारतीय लोग इसी विक्टोरिया जेल में बंद थे।
तभी सुबह-सुबह कोतवाल धन सिंह चपराणा ने अंग्रेजों पर यकायक गोलियां चलानी शुरू कर दी । जब तक वह समझ पाते और संभल पाते तब तक बहुत सारे अंग्रेज मार दिए गए और विक्टोरिया जेल का फाटक खोल कर वह 85 सैनिक तथा शेष 800 लोग जेल से मुक्त कर दिए गए। यह सभी लोग एक साथ हथियार लेकर अंग्रेजों पर टूट पड़े। इस प्रकार मेरठ से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का विगुल बज गया। इस प्रकार इस क्रांति के नायक कोतवाल धन सिंह चपराणा बने।
संक्षिप्त इतिहास
बाबर का जन्म 14 फरवरी 1483में हुआ। जो दिनांक 17 नवंबर 15 25 को पांचवीं बार सिंध के रास्ते से भारत आया था।जिसने 27 अप्रैल 1526 को दिल्ली की बादशाहत कायम की। 29 जनवरी 1528 को राणा सांगा से चंदेरी का किला जीत लिया।
लेकिन 4 वर्ष पश्चात ही दिनांक 30 दिसंबर 1530 को धौलपुर में बाबर की मृत्यु हो गई। महारानी विक्टोरिया ने 31 दिसंबर 1599 को ईस्ट इंडिया कंपनी की स्वीकृति दी। 2 जनवरी 1757 को लखनऊ के तत्कालीन नवाब सिराजुद्दौला से ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोलकाता छीन लिया ।9 फरवरी 1757 को संधि हुई ।जिसमें काफी रियासत अंग्रेजों को दी गई। लेकिन 13 फरवरी 1757 को लखनऊ सहित अवध पर अंग्रेजों द्वारा कब्जा कर लिया गया।
23 जून 1757 को प्लासी का युद्ध लॉर्ड क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना,और मुगल सेना के बीच हुआ जिसमें विशाल मुगल सेना का सेनापति मीर जाफर लॉर्ड क्लाइव से दुरभिसंधी करके षड्यंत्र के तहत विशाल सेना होते हुए जानबूछकर हार गया।
20 दिसंबर 1757 को लॉर्ड क्लाइव बंगाल का गवर्नर बना। 30 दिसंबर 1803 को दिल्ली के साथ-साथ कई अन्य शहरों पर ईस्ट इंडिया कंपनी का आधिपत्य हो गया।
26 फरवरी 18 57 को पश्चिम बंगाल के बुरहानपुर में आजादी की लड़ाई की शुरुआत हुई। जिस के प्रणेता श्री मंगल पांडे को आठ अप्रैल 1857 को खड़कपुर की बैरक में फांसी दे दी गई।
हमें क्रांतिवीर मंगल पांडे के विषय में यह जान लेना आवश्यक है कि बैरकपुर में कोई जल्लाद नहीं मिलने पर ब्रिटिश अधिकारियों ने कोलकाता से चार जल्लाद इस क्रांतिकारी को फांसी देने के लिए बुलाए थे। जिन्होंने उसे फांसी देने से मना कर दिया था। इस समाचार के मिलते ही कई छावनी में ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध संतोष भड़क उठा। इसे देखते हुए श्री मंगल पांडे को 8 अप्रैल 18 57 के सुबह ही फांसी पर लटका दिया गया।
इतिहासकार किम ए. वैग नर की किताब “द ग्रेट फियर ऑफ 1857 Rumours , condipiracies एंड मेकिंग ऑफ द इंडियन uprising ” में बैरकपुर में अंग्रेज अधिकारियों पर हमले से लेकर मंगल पांडे की फांसी तक के घटनाक्रम के बारे में सभी तत्वों का विस्तार से वर्णन किया गया है ।
ब्रिटिश इतिहासकार रोजी लिल बेलन जोंस की किताब “द ग्रेट अप्राइजिंग इन इंडिया 18 57 _58 अनटोल्ड स्टोरी इंडियन एंड ब्रिटिश” में बताया गया है कि 29 मार्च की शाम मंगल पांडे यूरोपीय सैनिकों के बैरकपुर पहुंचने को लेकर बेचैन थे ।उन्हें लगा कि वह भारतीय सैनिकों को मारने के लिए आ रहे हैं ।इसके बाद उन्होंने अपने साथी सैनिकों को उकसाया और ब्रिटिश अफसर पर हमला किया। उन्हें नाम मात्र का मुकदमे का ट्रायल चलाकर 18 अप्रैल 18 57 के दिन फांसी देना निश्चित किया गया था। परंतु जब जल्लादों ने फांसी देने से इंकार कर दिया तो नियत तिथि से 10 दिन पहले ही क्रांतिकारी मंगल पांडे को फांसी की सजा दे दी गई थी। हम क्रांतिकारी मंगल पांडे का पूरा सम्मान करते हैं ।उनकी देश के प्रति समर्पण की भावना को नमन करते हुए यहां यह फिर भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ उनका 1857 की क्रांति से कोई संबंध नहीं था।
10 जनवरी 1818 को मराठों और अंग्रेजो के बीच तीसरी और अंतिम लड़ाई हुई थी।
वास्तव में शूरवीर महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराजा रणजीत सिंह आदि भी आजादी के दीवाने थे । उन्हीं से प्रेरणा लेकर मई 1857 का स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ था। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, चांद बेगम ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।राजस्थान के शहर कोटा में लाला जयदयाल कायस्थ, मेहराब खान पठान ने 15 अक्टूबर 18 57 को विद्रोह किया। जिनको अंग्रेजों ने फांसी लगाई थी। अदालत के सामने शहीद चौक उसी स्थान पर बना है।
इसके अलावा गुर्जर सम्राट नागभट्ट प्रथम, सामंत बप्पा रावल, नागभट्ट द्वितीय, गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, गुरु तेग बहादुर ,गुरु गोविंद सिंह, बंदा वीर बैरागी ,वीर हकीकत राय ये सभी कोतवाल साहब के लिए प्रेरणा स्रोत बने।
10 मई 1857 को मेरठ से इस क्रांति का जब बिगुल बजा तो इस स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी पूरे भारतवर्ष में बहुत ही शीघ्रता के साथ फैल गई और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महान सैनिक धन सिंह कोतवाल साहब के नेतृत्व में 11 मई 1857 को तत्कालीन मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर से दिल्ली में मिले । उन्होंने बहादुर शाह जफर को नेतृत्व संभालने के लिए आग्रह किया ।लेकिन उस
समय भारत पर शासन करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी पराजय के बाद शीघ्रता से कार्यवाही कर क्रांतिकारियों का दमन करते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ बनाने के प्रयास किया। दिल्ली में अंग्रेज अपने आप को बचाने के लिए कोलकाता गेट पर पहुंच गए। यमुना किनारे बनी चुंगी चौकी में आग लगाए जाने और टोल कलेक्टर की हत्या की जानकारी मिलने के बाद दिल्ली में तैनात लगभग सभी प्रमुख अंग्रेज तथा अधिकारी अपने नौकरों सहित कोलकाता गेट पहुंच गए।
कोलकाता गेट यमुना पार कर दिल्ली आने वालों के लिए सबसे नजदीकी गेट था ।11 मई की सुबह मेरठ से क्रांतिकारी सैनिकों के दिल्ली में प्रवेश करने के बाद अंग्रेज इस बात को सोचने के लिए विवश हो गए कि क्रांतिकारी फिर इसी गेट से दिल्ली में घुसने का प्रयास करेंगे । इसलिए यहां अतिरिक्त फौज की तैनाती का हुक्म दिया गया। आज के यमुना बाजार के निकट कोलकाता गेट हुआ करता था। लेकिन आज वह वहां पर उपलब्ध नहीं है । क्योंकि बाद में जब अंग्रेजो के द्वारा रेलवे लाइन यहां से निकाली गई तो वह गेट तोड़ना पड़ा था। 11 मई 18 57 को दिल्ली के ज्वाइंट कमिश्नर थियोफिलस मैटकॉफ जान बचाकर भागे थे। कोलकाता गेट के पास क्रांतिकारी सिपाहियों के साथ हुई मुठभेड़ के बाद कैप्टन डग्लस और उसके सहयोगी भागते हुए लाल किले के लाहौरी गेट तक पहुंचे थे। उसके बाद दिल्ली में जो स्थितियां पैदा हुई उसमें अंग्रेजों को जान के लाले पड़ गए । जिसे जहां अवसर प्राप्त होता था वहीं अंग्रेजों पर हमला कर देता था । अंग्रेजों को इससे बचने के लिए इधर-उधर शरण लेनी पड़ी।
दादरी, जिला बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश में एक छोटी सी रियासत हुआ करती थी ।दादरी के अलावा कठेड़ा, बढ़पुरा, चिटेहरा,बील अकबरपुर,नगला नैनसुख सैंथली,लुहार्ली , चीती,देवटा आदि गांव के क्रांतिकारियों ने एकजुट होकर अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए बिगुल बजाया था । राव दरगाहीसिंह की रियासत हुआ करती थी , जिनकी मृत्यु 1819 में हो गई थी। उनका बेटा राव रोशन सिंह था तथा राव उमराव सिंह ,राव विशन सिंह, राव भगवंत सिंह उनके भतीजे इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए थे।
जिन्होंने अंग्रेजी सेना को बुलंदशहर की तरफ से कोट के पुल से आगे नहीं बढ़ने दिया था। दिल्ली में बादशाह जफर से मिलकर उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध लड़ा ।
बुलंदशहर जिले में ही एक छोटा सा माला गढ़ ग्राम होता था। जिसका नवाब वलिदाद खान था, जो बहादुर शाह जफर का रिश्तेदार था, राव उमराव सिंह ,रोशन सिंह ने तोपखाना से 30 व 31 मई को गाजियाबाद के हिंडन नदी के पुल पर अंग्रेज सेना को दिल्ली जाने से रोका था। जहां पर नौ अंग्रेज फौज के अफसरों की कब्रें मृतकों की याद में स्मृति- स्थल के रूप में आज भी बनी हुई है ।यह कार्यवाही नवाब वलिदाद खान माला गढ़ और दादरी के रियासत दार राव उमराव सिंह के नेतृत्व में हुई थी।
अंग्रेजी सेना के काफी सैनिक एवं अधिकारी वहां पर मारे गए थे और अंग्रेजी सेना वहां से भागकर मेरठ की तरफ गई और मेरठ से उन्हें दिल्ली के लिए बागपत के रास्ते से आए थे। बागपत के रास्ते पर जिन लोगों के ग्राम बहुमत में हैं, उन्होंने अंग्रेजों को शरण दी तथा दिल्ली जाने के लिए अंग्रेजों का रास्ता सुगम किया।
लेकिन दादरी, हापुड़, मेरठ, बुलंदशहर के इन शहीदों को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला। जिसके वह हकदार हैं, इसका दुख है।
इसी लिए भारत के इतिहास के पुनर्लेखन की महती आवश्यकता है, अन्यथा इतिहास पर सदैव के लिए पर्दा पड़ा रहेगा और भविष्य की पीढ़ी कभी सत्य से जानकारी रखने वाली नहीं होगी।
क्रांतिकारियों ने सिकंदराबाद के पास अंग्रेजी सेना का खजाना लूट लिया। गुलावठी के पास दो दर्जन अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया । उनके 90 घोड़े छीन लिए। अलीगढ़ से दादरी और गाजियाबाद तक क्रांतिकारी अंग्रेजों के सामने कठिन चुनौती पेश करते रहे ।इस सबसे नाराज होकर अंग्रेजों ने एक दिन रात में दादरी रियासत पर हमला कर दिया जिसमें कई क्रांतिकारी शहीद हुए।
1857 की क्रांति के इस महानायक धनसिंह कोतवाल के शौर्य और साहस को अपना आदर्श मानकर बाद में सरदार उधम सिंह ,शहीद- ए -आजम सरदार भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त ,पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद ,राजेंद्र नाथ लाहिड़ी ,ठाकुर रोशन सिंह आदि ने देश के लिए क्रांति की इस ज्वाला को निरंतर जलाए रखा। इस प्रकार 1947 में जब देश आजाद हुआ तो उसमें 1857 की क्रांति में जलाई गई क्रांति की इस ज्वाला ने अपना सर्वाधिक और महत्वपूर्ण योगदान दिया।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन उगता भारत