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प्रमुख समाचार/संपादकीय

रक्त-रंजित मुद्रा की चकाचौंध-3

मुजफ्फर हुसैन
गतांक से आगे…….
भारत में मांसाहार और पशु पक्षियों के कत्ल की कोई समस्या थी ही नही, लेकिन सरकार की अदूरदर्शिता ने इसे संकट में बदल दिया। मांसाहार करने वाला वर्ग कभी भी प्रताडऩा का शिकार नही होता था। उसे उदरपूर्ति में कोई कठिनाई नही आती थी। क्योंकि उस समय तक मांसाहार वह इसलिए करता था, क्योंकि यह उसकी जीवन पद्घति से जुड़ी बात थी और पशु के काट दिये जाने अथवा कुदरती रूप से मर जाने के पश्चात उसके अवयवों पर कुछ व्यवसाय आधारित थे। लेकिन बढ़ती संख्या और बढ़ते कारोबार ने जब देहात और गांव की सीमा लांघकर उसे शहरों में पहुंचाया तो फिर उसमें आशातीत वृद्घि होने लगी। पशु पर आधारित कुटीर उद्योगों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्घ दृष्टि पड़ गयी। यह वह समय था जब देश की सरकार इसके लिए कोई मजबूत, दूरदर्शी और परिपक्व नीति बना सकती थी लेकिन ऐसा तो हुआ नही, इन मुरदा जानवरों को करोड़पति अरबपति बनने का साधन और माध्यम बना लिया गया।
भारत सदियों से पशुओं से प्राप्त हड्डियों को खाद के रूप में उपयोग करता रहा है। महात्मा गांधी ने अपनी पत्रिका हरिजन में एक नारा दिया था-वह किसान अधूरा जो न उपयोग करे हड्डी का चूरा। इसलिए मरे हुए अथवा मारे गये पशुओं की हड्डियां सड़ाकर खाद के रूप में उपयोग कर ली जाती थीं। उन जानवरों से प्राप्त बाल और खाल का व्यवसाय हुआ करता था। पशु के शरीर में जो भी कुछ होता था, उसे सड़ा गलाकर पुन: खेतों में पहुंचा दिया था। यानी जीवन भर जिन जंगलों को पशु चरता था एक दिन उन्हीं जंगलों के बने रहने में मर जाने के पश्चात उसका उपयोग हो जाता था। खाल से या तो जूते बना लिये जाते थे या फिर कोई अन्य आवश्यक सामान। पशुओं की आंत का ढोल बनाने में आज भी उपयोग होता है।
लेकिन वैज्ञानिक खोज ने इस सिद्घांत को ही बदल दिया। अब मरा हुआ और कटा हुआ पशु खेती और जंगल की विरासत नही है, बल्कि वह तो रूपये कमाने की टकसाल है। हड्डियां अब जंगल में नही जातीं बल्कि बोन मिल में जाती हैं। जहां हजारों टन हड्डियों को टुकड़ों में परिवर्तित कर भिन्न भिन्न कारखानों को भेज दिया जाता है। इन हड्डियों से ग्लू और जिलेटिन निकाला जाता है। एक समय था कि मुंबई के दरिया किनारे पर समुद्र में चलने वाली छोटी बड़ी नावों के पेंटे पर चरबी लगाई जाती थी। वर्ष में एक बार यह काम होता था। इससे नाव को पानी पर चलने में आसानी होती थी और मल्लाह को उसे चलाने में अधिक करूट नही उठाना पड़ता था।
क्रमश:

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