साहसी पुरूष ही जगत में, करते ऊंचे काज
गतांक से आगे….
पति की सेवा में निहित,
स्त्री का कल्याण।
कटु भाषण करती नही,
आये का राखे मान।। 590।।
सृष्टि का कारण वही,
वही है आदि अंत।
पालक, रक्षक, रचयिता,
सबसे बड़ा महन्त ।। 591।।
अत्याचारी हो पति,
शोकातुर रहै नार।
सुख समृद्घि का नाश हो,
उजड़ जाए संसार ।। 592।।
मन, ज्ञान और इंद्रियां,
प्रभु की अदभुत देन।
बिरले लोगों को मिले,
मुस्कान और मीठे बैन ।। 593।।
व्याख्या : परमपिता परमात्मा की यह बहुत बड़ी महिमा है कि वह जीवात्मा को मन, ज्ञान और पांच ज्ञानेन्द्रियों तथा पांच कर्मेन्द्रियों की अनोखी भेंट प्रदान करता है। जरा इंद्रियों की सामथ्र्य पर ध्यान दो। जीव तो वेद के शब्दों में अव्यस: है अर्थात अव्यापक है, बाल के एक सूक्ष्म कोने से भी अत्यंत सूक्ष्म है, किंतु उसकी शक्तियां तो देखो, करोड़ों किलोमीटर दूर सूर्य को वह अपने नेत्र से देखता है। यहां अमेरिका के गाने सुनता है। जीवात्मा की कितनी अदभुत शक्ति है, लेकिन क्या यह सब कुछ जीवात्मा का है? वेद कहता है नही….यह तो सब कुछ भगवान का है। वही इंद्रियों को बल दे रहा है। यदि भगवान इंद्र (आत्मा) और इंद्रियों का मेल न कराये तो इंद्र (जीवात्मा) कुछ भी न कर पाए। इंद्र के इंद्रपन का ज्ञान तो इंद्रियों के द्वारा होता है अर्थात जीवात्मा की शक्तियों का अहसास होता है। यदि इंद्रियां न हों तो इंद्र (जीवात्मा) की शक्ति (सत्ता) का विश्वास किसी को न हो। जरा गंभीरता से सोचो, इंद्र (आत्मा) की सत्ता का विश्वास कराने वाले, इंद्रियों के निर्माता अर्थात उस स्रष्टा का कितना महान महत्व होगा?
मन भी प्रभु की महान देन है। जब मनुष्य मन में संकल्प कर लेता है तो वह निडर होकर अंगारों के ऊपर से गुजर जाता है।
यहां तक कि सागर का सीना चीरकर उसकी गहराई मापता है, अनंत व्योम की ऊंचाई मापता है चांद और मंगल जैसे ग्रहों और उपग्रहों के गूढ़ रहस्यों का पता लगाने का साहस करता है।
ज्ञान से अभिप्राय यहां बुद्घि से है। मन और इंद्रियों के अतिक्ति तीसरी अनुपम देन जीवात्मा को जो प्रदान की है-वह बुद्घि है, (ज्ञान) प्रज्ञा है। इसी से संसार का समस्त व्यापार चलता है, प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का पता चलता है, नये नये आविष्कार होते हैं। अत: मन, ज्ञान और इंद्रियां तो जीवात्मा को भगवान की अनुपम देन हंै ही इसके साथ साथ मनुष्य को मीठी वाणी और मीठी मुस्कान भी परमपिता परमात्मा के अनुपम उपहार हैं, जो अन्य प्राणियों को उपलब्ध नही है।
दीप जलाना बांबी में,
जितना मुश्किल काम।
मन को रखना काबू में,
इतना ही दुष्कर काम ।। 594।।
साहसी पुरूष ही जगत में,
करते ऊंचे काज।
नचिकेता की निडरता,
देख भग्यो यमराज ।। 595।।
संस्कार जिसमें प्रबल,
गहै ध्यान दे धीर।
पाथर उल्टा मोड़ दे,
कितना ही पैना तीर ।। 596।।
भाव यह है कि संस्कार सहज भाव से ही स्वीकार किया जाता है अर्थात जिसमें जैसे संस्कार होते हैं वह उन्हें संकेत मात्र से ही ग्रहण करता है, अन्यथा जिसका मन कुसंस्कारों से भरा है उस पर सुसंस्कार भी ऐसे प्रभाव हीन हो जाते हैं जैसे पत्थर पर तीर मारने पर उल्टा तीर ही मुड़ जाता है और पत्थर लेशमात्र भी प्रभावित नही होता है।