भारत के दिव्य भव्य और स्वर्णिम इतिहास की एक झलक : आर्यों का विदेश गमन
पश्चिमी एशिया
भारत में पश्चिम की ओर सबसे प्रथम अफरीदी काबुली और बलूची देश आते हैं । इन देशों में इस्लाम के प्रचार के पूर्व आर्य ही निवास करते थे । यहीं पर गांधार था। गांधार को इस समय कंधार कहते हैं। जिसका अपभ्रंश कंदार और खंदार भी है।
इसी के पास राजा गजसिंह का बसाया हुआ गजपुर वर्तमान में गजनी नगर अब तक विद्यमान है। काबुल में जो पठान जाति रहती है , वह प्रतिष्ठान( झूसी) राजधानी की रहने वाली चंद्रवंशी क्षत्रिय जाति है ।झूसी से आकर पहले यह सरहद में बसी और वहाँ इसने प्रजासत्तामक शासन पद्धति स्थापित की ।प्रजासत्तामक शासन पद्धति को उस समय गणराज्य कहते थे। अफरीदी लोग उसी समय के हैं ।रायबहादुर चिंतामणि विनायक वैद्य ने अपने ‘महाभारत मीमांसा’ नामक ग्रंथ में इस विषय पर प्रकाश डाला है । आप कहते हैं कि महाभारत में लिखा है कि सप्तगणों को पांडवों ने जीत लिया था ।इन्हीं गणों ने थोड़ा आगे बढ़कर उप- गण -स्थान या राज्य स्थापित किया । इसी को इस समय अफगान कहते हैं । इस प्रकारउनके निवास स्थान का नाम वर्तमान में अफगानिस्तान है । इसका असली उच्चारण स्थान है। यह पहले गणराज्य के अधीन था। यह गण अर्थात अफरीदी आर्यों से द्वेष भाव रखने के कारण ही आर्यों के शासन से अलग रहते थे । इसी प्रकार बलूचिस्तान भी बल _उच्च_ स्थान अर्थात बलोच्चस्थान का अपभ्रंश है ।
इसमें केलात नामक नगर अब तक विद्यमान हैं । यह केलात तब का है जब किरात नामी पतित आर्य क्षत्रिय यहां आकर बसे थे ।
आज भी ग्रामीण क्षेत्र में हमारे लोग किसीअसामाजिक क्रियाकलाप करने वाले व्यक्ति को गण कहते हैं यह शब्द वहीं से प्रचलित है। यह क्षत्रिय होने से ही बल में उच्च स्थान प्राप्त कर सके थे ।
‘मनुस्मृति’ में जहां अन्य पतित क्षत्रियों के नाम कहे हैं वहां किराता यवना शका कहकर किरात भी गिनाए गए । यह किरात नेपाल और भूटान आदि में जाकर मंगोलिया जाति के मूल पुरुष बने ।
अफगानिस्तान के आगे ईरान है। जिसको पर्शिया देश भी कहते हैं । यहाँ पहले वह जाति बसी हुई थी जो आजकल हिंदुस्तान में पारसी नाम से प्रसिद्ध है। यह जाति प्राचीन काल में ही आर्यों से पृथक होकर ईरान में बसी थी । मैक्समूलर कहते हैं कि यह बात भौगोलिक प्रमाण से सिद्ध है कि पारसी लोग फारस में बसने से पहले भारत में बसे हुए थे। उत्तर भारत से जाकर ही पारसियों ने ईरान में उपनिवेश बसाया था । अपने साथ यहां की नदियों के नाम ले गए । उन्होंने सरस्वती के स्थान पर हरह्वती और सरयू के स्थान पर हरयू नाम रखा। वे अपने साथ शहरों के नाम भी लेकर गए। उन्होंने भरत को फरत कहा । वही फरत युफरत हो गया। उन्होंने भोपाल को बेबीलोन और काशी को कास्सी तथा आर्यन को ईरान से प्रसिद्ध किया । इस प्रकार पारसी भी भारतीय आर्यों की ही शाखा हैं ।
ईरान के पास ही अरब है । वैदिक भाषा में ‘अर्व’ घोड़े को कहते हैं। जहां घोड़े रहते हैं उस स्थान को अरबस्थान कहते हैं । जैसे अश्वस्थल से बिगड़कर अस्तबल बन गया , वैसे ही अर्व से बिगड़कर अरबीस्थान या अरब बन गया । जिस प्रकार गौवों की पड़ी गोचर भूमि को ब्रज और भेड़ बकरी वाले देश को गंधार कहते हैं । उसी प्रकार जहाँ अच्छी जाति के घोड़े रहते हैं , उसको अरब कहते हैं। आज भी अरबी घोड़ा सर्वोपरि समझा जाता है । उत्तम घोड़े उत्पन्न होने से ही आर्यों ने इस देश का नाम अरब रखा था।
स्मृतियों के पढ़ने वाले जानते हैं कि आर्यों से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति को ‘शैख’ कहते हैं। यह शंकर जाति ब्राह्मण के योग से उत्पन्न होती है । प्रतीत होता है कि वही जाति अरब में बसकर शेख हो गई है। क्योंकि शेखों का अरब में वही मान है जो भारत में ब्राह्मणों का है ।यह प्रसिद्ध बात है कि मुसलमान होने से पहले वहाँ के निवासी अपने आपको ब्राह्मण ही कहते थे ।
अरब से ही रामानुज संप्रदाय का मूल प्रचारक यवनाचार्य लगभग नौवीं शताब्दी में आया था। क्योंकि 11वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य का जन्म हुआ । इनके 200 वर्ष पूर्व मद्रास प्रांत में शूद्र जाति पर महान अत्याचार होता था। उसी समय अरब देश निवासी ब्राह्मण कुलोत्पन्न दयालु यवनाचार्य का आना हुआ। उस समय वहाँ महात्मा शतकोप आदि आन्दोलन करने वालों की यवनाचार्य ने सहायता की।
अरब में अब तक बहुत से आर्य निवास करते हैं। परंतु इनका आचार यहाँ के हिन्दुओं का सा नहीं है। जर्मन युद्ध के समय यहाँ के कई फौजी सिपाही बगदाद , बसरा और मेसोपोटामिया आदि में रहकर यहां आए हैं । बह बतलाते हैं कि वहाँ अब तक पुराने हिंदुओं के चिह्न पाए जाते हैं । इन घटनाओं से अच्छे प्रकार सिद्ध होता है कि अरब निवासी मूल आर्य ही हैं।
फिनिशिया प्रदेश भूमध्य सागर के किनारे पर स्थित है। ।कुछ वैश्य , बनिए आसुरी प्रवृत्ति के थे । जिनको ‘पण’ कहते थे । वैदिक भाषा में वैश्य वर्ण के बदमाश, ठग , धोखेबाज और धनलोलुप को उक्त प्रकार से कहते हैं । यह आर्यों द्वारा निकाल दिए गए थे और दक्षिण प्रदेश में एक अच्छा बाजार बनाकर बस गए। इस बाजार को लोग पण्य या पांड्या कहते थे।
इन्हीं के नाम से पंड्या प्रदेश (जिसे वर्तमान में पांडिचेरी, पुडुचेरी कहते हैं )कायम हो गया जो अब पुडुचेरी भी कहा जाता है । इन्हीं की एक दूसरी जाति शाखा चोर होने के कारण इनसे भिन्न स्थान में बसी और चोल कहलाने लगी। इसी के नाम से चोल प्रदेश प्रसिद्ध हुआ। यह पांड्या और चोल दोनों प्रदेश मद्रास प्रांत में अब तक विद्यमान हैं। यह लोग लोभी थे ।बहुत बड़े व्यापारी थे ।जहाज बनाना भी जानते थे ।मद्रास प्रांत में सागवान की लकड़ी अधिक होती थी ।अतः उसके जहाज बना बनाकर यह दूर देशों को प्रस्थान कर गए और पश्चिम एशिया में भूमध्य सागर के किनारे पर आबाद हुए । जिस प्रकार के नाम से यहां पण और चोल प्रसिद्ध हुए थे उसी प्रकार ‘पण’ से पनिशिया, अर्थात् फिनिशिया और चोलो से चिल्डिया देशों के नाम प्रसिद्ध हो गए । फिनिशिया वाले ये ही हैं ।
जो बोलते हैं भारतवंशी ही हैं।
इसमें संदेह नहीं है क्योंकि बेबीलोनिया वालों के मूल पुरुषों के विषय में ‘हिस्टोरिकल हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड’ में लिखा है कि बेबीलोनिया वालों के वायु देवता का नाम मतु या मर्तू है । यह हमें वैदिक शब्द मरुत ही प्रतीत होता है । यह पनियोंऔर चोलों के द्वारा ही बेबीलोनिया में लाया गया है । इससे यह स्पष्ट होता है कि पणियों का चोलों के साथ संबंध है। यह भी निश्चय हो गया कि उन्होंने ही बेबीलोनिया को भी बसाया था ।’राजनिघंटू’ में लिखा है कि व्यवहर्ता ,विट , वार्तिक , पानिक, वणिक वैश्य के भेद हैं। इस प्रमाण से सुलझ गया कि ये लोग आर्य ही हैं । इसके अतिरिक्त तिलक महोदय ने लिखा है कि वैदिक मना और फिनिशिया का मनह शब्द एक ही है और वह भारत से ही गया ।मन के लिए ऋग्वेद में आया मन वजन के लिए प्रयोग किया जाता था। जो अब भी प्रयोग किया जाता है इसको लैटिन में मिन ,ग्रीक में मिना, बेबीलोनियन में मिन और वर्तमान अंग्रेजी में माउण्ड कहते हैं ।
इसी प्रकार फिनिशिया की भाषा में ऊंट को जिमेल कहते हैं। वही अंग्रेजी में कैमल कहलाता है ।यह संस्कृत के ‘क्रमेल’ शब्द का ही अपभ्रंश है। जिसका कमेलक और इसी से केमल हो गया है।परंतु अफ्रीका का प्राणी नहीं है । इससे ज्ञात होता है कि उसका वाचक शब्द दोनों भारत से ही गए और इनके ले जाने वाले उक्त आर्य लोग ही हैं।
इससे यह भी सिद्ध हुआ कि आर्यों ने उत्तरी भारत से जिन अनार्यों को ,जिनके कार्य उच्च स्तर के नहीं थे उनको भगाया था ।जो दक्षिण में जाकर बस गए थे ।जिसके विषय में अनेक भ्रांतियां विदेशियों द्वारा फैलाई जाती हैं कि आर्यों ने उत्तरी भारत में राज्य कायम करने के लिए बाहर से आकर के वहां के मूल निवासियों को भगा दिया था। यह कहानी निर्मूल साबित होती है।
इस प्रकार आर्य लोग अपनी आर्य सभ्यता के साथ पूर्व से पश्चिम में पहुंचे ।
आज के अरब देश प्राचीन काल में ऋषि जैमिनी और गौतम ऋषि की कर्मभूमि रही है।
चिल्डीया और फिनिशिया जिनके साथ हजारों वर्षों तक व्यापार होता रहा है।
भारत का ही भूभाग रहा
जुड़िया यहूदियों का देश है इसी में हजरत मूसा, हजरत ईसा जैसे जगत प्रसिद्ध धर्माचार्य उत्पन्न हुए । बाइबल में लिखा है कि पश्चिम में आने वालों की एक ही भाषा थी और वह सब पूर्व से ही आए । इनके विषय में पोकाक नामी विद्वान अपने ‘इंडिया इन ग्रीस’ नामक ग्रंथ में लिखता है कि युड़ा अर्थात जुड़ा जाति भारत की यदुवंशी क्षत्रिय जाति ही है ।संस्कृत में शब्द यहव होता है । जिसको चाइल्डन वाले यहवे कहते हैं ।जिसका अर्थ महान होता है। यहूदी शब्द यदु शब्द का ही अपभ्रंश है जो यदु से उत्पन्न उत्पन्न होता है । बाबू उमेशचंद्र विद्यारतन कहते हैं कि ‘ज्यू ‘ शब्द संस्कृत का ही है । इसके लिए ‘मेदिनी कोष’ को उद्धरत करते हैं।इस प्रकार ‘जू’ शब्द ‘यवन’ शब्द का ही अपभ्रंश है।
आज का पेलेस्टाइन भी आर्यों का ही देश है ।
राजा सगर की आज्ञा से जब उन्होंने जिस पल्ली स्थान( पेलेस्टाइन,)पर निवास किया था वही वर्तमान में पेलेस्टाइन हो गया है। यह यवन शब्द का ही विकार यवन, जॉन, जू है। । यदुवंशी क्षत्रिय राजा सगर के द्वारा यवन करके निकाले गए जो पेलेस्टाइन में बसे। यही बात बाइबल में पोकाक के वचनों से सिद्ध होती है । बाइबिल का नूह का वर्णन मनु के तूफान की सूचना देता है । अतः यहूदियों के आर्य होने में कुछ भी संदेह नहीं रह जाता है ।साथ ही भारत से जाकर के वहां बसे हैं यह भी सिद्ध होता है।
असीरिया में भी आर्यों का ही निवास था। ए, बेरी डेल कीथ ने वहां के सुवर दत्त, जस दत्त , सुबंधी आदि राजाओं के नामों से सिद्ध किया है कि ये आर्य ही थे। जिन देशों के निवासियों को आर्य असुर कहा करते थे । इसलिए वह सदैव अपने नाम के साथ असुर शब्द का प्रयोग करते रहे । प्रसिद्ध बादशाह असुर नासिर पाल और असुर बेनीपाल इस बात का उदाहरण हैं । इनके नाम ‘असुर’ शब्द के साथ आर्य भाषा के ही हैं । आर्यों ने गुण दोषों को सूचित करने वाले नामों को रखकर दुष्ट अनार्यों को अपने से अलग किया था । वे नाम इन्होंने भी स्थिर रखे थे और उन्हीं नामों से देशों को भी प्रसिद्ध जैसे चीना से चीन, आंध्या से आंध्रालय, ऑस्ट्रेलिया आदि।कहने का तात्पर्य यह है कि असीरिया निवासी भी आर्य ही हैं और भारत से जाकर वहां बसे हैं।
मेसोपोटामिया वाले भी आर्य ही हैं।इनके विषय में ए बेराइडल कीथ ने लिखा है कि ‘दशरथ’ नाम का मित्तानी राजा इजिप्ट के एक राजा का साला था। यह आर्य था और ईसवी सन के तेरह या चौदह सौ वर्ष पूर्व राज्य करता था। इसी प्रकार मित्तानियों के दूसरे राजा का नाम हरि था । यह नाम भी आर्यों का सिद्ध होता है ।अभी हाल में जो मेसोपोटामिया के पुराने मकानों की खुदाई से मिट्टी की पकी हुई लिखित ईंट प्राप्त हुई हैं । ईंन ईंटों में मितानी और हिती राजाओं का संधि पत्र लिखा हुआ मिला है । जिसमें मित्र , वरुण , इंद्र और ना सत्य आदि वैदिक देवताओं के नाम लिखे हुए हैं । इस घटना से यह बात पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाती है कि दोनों जातियां आर्य ही थी । क्योंकि हिती लोगों के लिए अब सिद्ध हो गया है, यह क्षत्रिय थे । क्षत्रिय का ही अपभ्रंश खत्री है । जिस प्रकार पंजाब के रहने वाले लोग खत्री अपनी उत्पत्ति क्षत्रियों से ही बतलाते हैं। उसी प्रकार यह खत्ती भी जो इस समय हट्टी लिखे जाते हैं , क्षत्रिय ही हैं।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।