प्रमोद भार्गव
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित तकनीकें अब निजी क्षेत्र की भारतीय कंपनियों के लिए ही नहीं, देशी कंपनियों को भी हस्तांतरित कि जा सकेंगी। इसरो इसकी कीमत वसूलेगी। अंतरिक्ष सुधारों के तहत इसरो ने पुनर्संशोधित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण नीति-2020 जारी कर दी है। इसमें पहली बार विदेशी फर्म को भी प्रत्यक्ष रूप से इसरो ने तकनीक हस्तांतरित करने की बात की है। दरअसल इसरो के पास 500 से अधिक ऐसी तकनीक हैं, जिसमें से 400 निजी क्षेत्र की 233 भारतीय तकनीकें कंपनियों के पास हैं। अब इसमें और अधिक कंपनियां जुड़ जाएंगी। इस नीति में दोहराव से बचने और संवेदनशीन पेटेंट तकनीक की सुरक्षा भी सुनिश्चित की गई है। इस सिलसिले में इसरो के अध्यक्ष के सिवन का कहना है कि ‘पहले इसरो की तकनीक केवल भारतीय कंपनियों के लिए सीमित थीं, लेकिन अब समय आ गया है कि कुछ और तकनीकों का व्यवसायीकरण किया जाए। विदेशी कंपनियों को भी अंतरिक्ष विभाग की तकनीक मुहैया कराने का फैसला इसमें मददगार साबित होगा। विदेशी कंपनियों को तकनीक देने के पीछे दो प्रमुख उद्देश्य हैं। पहला, भारत में अधिक पूंजी निवेश और प्रतिभाओं को आकर्षित करना। दूसरा लक्ष्य भारतीय उत्पादों को वैश्विक बाजार उपलब्ध कराना है।’
भारत स्वदेशी तकनीक के जरिए उपग्रह प्रक्षेपण की शुरूआत 2018 में ही कर चुका था। इसरो ने एक साथ 104 उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके विश्व इतिहास रचकर पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक अहंकार को जबरदस्त चुनौती दी थी। दुनिया के किसी एक अंतरिक्ष अभियान में इससे पूर्व इतने उपग्रह एक साथ पहले कभी नहीं छोड़े गए हैं। दरअसल प्रक्षेपण तकनीक दुनिया के चंद छह-सात देशों के पास ही है। लेकिन सबसे सस्ती होने के कारण दुनिया के इस तकनीक से महरूम देश अमेरिका, रूस, चीन, जापान का रुख करने की बजाय भारत से अंतरिक्ष व्यापार करने लगे हैं। इसरो इस व्यापार को अंतरिक्ष निगम (एंट्रिक्स कार्पोरेशन) के जरिए करता है। इसरो पर भरोसा करने की दूसरी वजह यह भी है कि उपग्रह यान की दुनिया में केवल यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को छोड़ कोई दूसरा ऐसा प्रक्षेपण यान नहीं है, जो हमारे पीएसएलवी-सी के मुकाबले का हो। दरअसल यह कई टन भार वाले उपग्रह ढोने में दक्ष है। व्यावसायिक उड़ानों को मुंह मांगे दाम मिल रहे हैं। यही वजह है कि अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, फिनलैंंड, दक्षिण कोरिया, इजराइल और ब्रिटेन जैसे विकसित देश अपने उपग्रह छोड़ने का अवसर भारत को दे रहे हैं। हमारी उपग्रह प्रक्षेपित करने की दरें अन्य देशों की तुलना में 60 से 65 प्रतिशत सस्ती हैं, लेकिन इसरो की साख को कभी चुनौती नहीं मिली। बावजूद भारत को इस व्यापार में चीन से होड़ करनी पड़ रही है। मौजूदा स्थिति में भारत हर साल 5 उपग्रह अभियानों को मंजिल तक पहुंचाने की क्षमता रखता है। जबकि चीन की क्षमता दो अभियान प्रक्षेपित करने की है। बावजूद इस प्रतिस्पर्धा को अंतिरक्ष व्यापार के जानकार उसी तरह से देख रहे हैं, जिस तरह की होड़ कभी वैज्ञानिक उपलब्धियों को लेकर अमेरिका और सोवियत संघ में हुआ करती थी। नई नीति के अनुसार भारत अब प्रक्षेपण की तकनीक हस्तांतरित भी कर सकता है।
दूसरे देशों के छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की शुरूआत 26 मई 1999 में हुई थी। जर्मन उपग्रह टब सेट के साथ भारतीय उपग्रह ओशन सेट भी अंतरिक्ष में स्थापित किए थे। इसके बाद पीएसएलवी सी-3 ने 22 अक्टूबर 2001 को उड़ान भरी। इसमें भारत का उपग्रह बर्ड और बेल्जियम के उपग्रह प्रोबा शामिल थे। ये कार्यक्रम परस्पर साझा थे, इसलिए शुल्क नहीं लिया गया। पहली बार 22 अप्रैल 2007 को ध्रुवीय यान पीएसएलवी सी-8 के मार्फत इटली के ‘एंजाइल’ उपग्रह का प्रक्षेपण शुल्क लेकर किया गया। हालांकि इसके साथ भी भारतीय उपग्रह एएम भी था, इसलिए इसरो ने इस यात्रा को संपूर्ण वाणिज्यिक दर्जा नहीं दिया। अंतरराष्ट्र्रीय मानक के अनुसार व्यावसायिक उड़ान वही मानी जाती है, जो केवल दूसरे उपग्रहों का प्रक्षेपण करे। इसकी पहली शुरूआत 21 जनवरी 2008 को हुई, जब पीएसएलवी सी-10 ने इजारइल के पोलरिस उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में छोड़ा। इसके साथ ही इसरो ने विश्वस्तरीय मानकों के अनुसार उपग्रह प्रक्षेपण मूल्य वसूलना भी शुरू कर दिया। यह कीमत 5 हजार से लेकर 20 हजार डॉलर प्रति किलोग्राम पेलोड (उपग्रह का वजन) के हिसाब से ली जाती है।
सूचना तकनीक का जो भूमंडलीय विस्तार हुआ है,उसका माध्यम अंतरिक्ष में छोड़े उपग्रह ही हैं। टीवी चैनलों पर कार्यक्रमों का प्रसारण भी उपग्रहों के जरिए होता है। इंटरनेट पर बेबसाइट, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग और वॉट्सअप की रंगीन दुनिया व संवाद संप्रेषण बनाए रखने की पृष्ठभूमि में यही उपग्रह हैं। मोबाइल और वाई-फाई जैसी संचार सुविधाएं उपग्रह से संचालित होती है। अब तो शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, मौसम, आपदा प्रबंधन और प्रतिरक्षा क्षेत्रों में भी उपग्रहों की मदद जरूरी हो गई है। भारत आपदा प्रबंधन में अपनी अंतरिक्ष तकनीक के जरिए पड़ोसी देशों की सहयता भी कर रहा है। इसमें काई संदेह नहीं कि इसरो की अंतरिक्ष में आत्मनिर्भरता बहुआयामी है और यह देश को भिन्न-2 क्षेत्रों में अभिनव अवसर हासिल करा रही है। ये तकनीकें बेचकर भारत अरबों डॉलर कमा लेगा और तकनीक से जुड़े वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों को तकनीक हस्तांतरण हेतु विदेशों में अच्छे रोजगार मिलेंगे।
दरअसल भारत में अंतरिक्ष के क्षेत्र में अद्वितीय उपलब्धियां पिछले पांच साल के भीतर अनेक प्रकार के उपग्रह प्रक्षेपित कर हासिल की हैं। भारत ने 28 अप्रैल 2016 को भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली आईआरएनएसस-1 जी अस्तित्व में ला दी है। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘नाविक’ नाम दिया है। इसके वजूद में आने के साथ ही भारत का देसी ‘वैश्विक स्थिति पद्धति’ (जीपीएस) को विकसित करने का सपना पूरा हुआ और अमेरिका पर आत्मनिर्भरता पूरी हो गई। यह उपग्रह देश व दुनिया के बड़े भू-भाग पर नजर रखने की दृष्टि से तो अहम है ही, अब इसका उपयोग वाणिज्यक रूप में भी हो सकेगा। इसरो ने 2018 में ‘हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग सैटेलाइट (हिसआईएस) उपग्रह स्थापित किया हुआ है। यह उपग्रह भारतीय धरती के चप्पे-चप्पे पर फसलों के लिए उपयोगी जमीन की जानकारी जुटाने के साथ पर्यावरणीय हित भी साध रहा है। यह 65 प्रकार के रंगों की पहचान करने में भी सक्षम है। इसका प्रमुख उद्देश्य विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम के इनफ्रारेड और शॉटवेव अवरक्त क्षेत्रों के नजदीक दृश्य पृथ्वी की सतह का अध्ययन कर रहे हैं। दुनिया में यह तकनीक कुछ ही देशों के पास है। 2019 में भारत ऐसी मिसाइल भी बना चुका है, जो बेकार हो चुके उपग्रहों को अंतरिक्ष में ही नष्ट कर देगी। उपग्रह रोधी इस मिसाइल का उपयोग वे देश भी कर सकेंगे, जिनके उपग्रह अपनी मियाद पूरी हो जाने के कारण अंतरिक्ष में कचरा साबित हो रहे हैं। भारत ऐसी गैर-सैन्य तकनीकों को विकासशील देशों को हस्तांरित करने की प्रक्रिया इस नीति के तहत शुरू कर सकता है।
रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान (डीआरडीओ) भी अब आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। स्वदेशी तकनीक से होवित्जर तोप का परीक्षण ओड़िसा के बालासोर फायरिंग रेंज में 19 दिसंबर 2020 को किया है। यह तोप 55 किलो वजनी बारूदी गोला 48 किलोमीटर की दूरी तक फेंककर निशाना साधने में सक्षम हैं। इस तोप के विकसित हो जाने से भारत को अब बोफोर्स तोपों की तरह विदेश से तोपें खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी। फिलहाल भारत हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है। रक्षा सामग्री आयात में खर्च की जाने वाली धन-राशि का आंकड़ा हर साल बढ़ता जा रहा है। वाकई भारत दुनिया की महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे रक्षा-उपकरणों और हथियारों के निर्माण की दिशा में और स्वावलंबी होने की जरूरत है। हालांकि होवित्जर तोप के विकास व परीक्षण के साथ उम्मीद बढ़ी है कि कालांतर में भारत रक्षा क्षेत्र के अन्य हथियार बनाने में न केवल आत्मनिर्भर होगा, बल्कि निर्यात और तकनीक हस्तांतरण में भी कामयाब होगा।
यदि देश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय भी इसी तरह के वैज्ञानिक आविष्कार और व्यापार से जोड़ दिए जाएं, तो हम अंतरिक्ष तकनीक व हथियार निर्माण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होते चले जाएंगे। दरअसल अकादमिक संस्थान दो तरह की लक्ष्यपूर्ति से जुड़े होते हैं, अध्यापन और अनुसंधान। जबकि विवि का मकसद ज्ञान का प्रसार और नए व मौलिक ज्ञान की रचनात्मकता को बढ़ावा देना होता है। लेकिन समय में आए बदलाव के साथ विवि में अकादमिक माहौल लगभग समाप्त हो गया है। इसकी एक वजह स्वतंत्र अनुसंधान संस्थानों की स्थापना भी रही है। इसरो की ताजा उपलब्धियों से साफ हुआ है कि अकादमिक समुदाय, सरकार और उद्यमिता में एकरूपता संभव है। इस गठजोड़ के बूते शैक्षणिक व स्वतंत्र शोध संस्थानों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। बशर्ते इसरो की तरह विश्वविद्यालयों को भी आविष्कारों से वाणिज्यिक लाभ उठाने की अनुमति दे दी जाए। इसी मकसद हेतु ‘सरकारी अनुदान प्राप्त बौद्धिक संपत्ति संरक्षक विधेयक 2008’ लाया गया था, लेकिन इसके अभी तक कारगर परिणाम देखने में नहीं आए हैं। इसका उद्देश्य विवि और शोध संस्थानों में आविष्कारों की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना, बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों को संरक्षण देना तथा उन्हें बाजार उपलब्ध कराना है।
इस उद्यमशीलता को यदि वाकई धरातल मिलता है तो विज्ञान के क्षेत्र में नवोन्मेषी छात्र आगे आएंगे और आविष्कारों के नायाब सिलसिले की शुरूआत संभव होगी। क्योंकि तमाम लोग ऐसे होते हैं, जो जंग लगी शिक्षा प्रणाली को चुनौती देते हुए अपनी मेधा के बूते कुछ लीक से हटकर अनूठा करना चाहते हैं। अनूठेपन की यही चाहत नए व मौलिक आविष्कारों की जननी होती है।
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