मानव जाति की सबसे उत्तम संपत्ति ईश्वर और वेद
ओ३म
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वर्तमान समय में मनुष्य का उद्देश्य धन सम्पत्ति का अर्जन व उससे सुख व सुविधाओं का भोग बन गया है। इसी कारण से संसार में सर्वत्र पाप, भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण, अभाव, भूख, अकाल मृत्यु आदि देखने को मिलती हैं। इसके अतिरिक्त अविद्यायुक्त मत-मतान्तर अपने प्रसार की योजनायें बनाकर भारत जैसे देश की सत्ता पर नियंत्रण करना चाहते हैं। विगत बारह सौ वर्षों से यह कृत्य देखने को मिल रहा है। आर्य जाति के विरोधियों को इसमें सफलता भी मिली है। इस अवधि में अनेक ऐसे देश हैं जहां वेदों वा सनातन मत की अनुयायी प्रजा का प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया और वहां वैदिक मत को मानने वाली जनसंख्या लुप्त होती गयी। यह सत्य एवं यथार्थ है कि वेद मानवता के प्रसारक ग्रन्थ हैं। वेदों की उत्पत्ति किन्हीं अल्पज्ञ, अपढ़ व अज्ञानी मनुष्यों ने नहीं अपितु इस सृष्टि के रचयिता, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने की है। आर्यों व सज्जन पुरुषों के आलस्य व प्रमाद के कारण ही आज की विषम परिस्थितियां उत्पन्न हुईं हैं। कई बार विचार करने पर वेद एवं वैदिक धर्म एवं संस्कृति का भविष्य निराशाजनक प्रतीत होने लगता है। हमें अपनी चिन्ता नहीं है। हम तो कुछ महीनों व वर्षों में इस संसार से चले जायेंगे परन्तु चिन्ता सत्य व तथ्यों पर आधारित सनातन धर्म व संस्कृति जिसका सृजन व आविर्भाव स्वमेव परमात्मा ने किया, उसकी रक्षा व विनाश से बचाने सहित भावी पीढ़ियों की है। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने जब योग के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार किया, उन्हें विद्यागुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी के चरणों में बैठकर सत्यासत्य को जानने का अवसर मिला और जब उन्होंने वेदों का पावन सत्य स्वरूप जाना व प्राप्त किया, तब वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ईश्वर प्रदत्त वेद और वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा मानवता की रक्षार्थ मानव मात्र का सर्वोपरि कर्तव्य है।
देश व संसार के जो लोग वेद एवं वैदिक धर्म व संस्कृति के विरोधी हैं वह अविद्या से युक्त हैं। अविद्या से युक्त मनुष्य न केवल दूसरों की हानि करता है अपितु स्वयं की भी हानि भी करता है। ऐसा ही हो रहा है। आज संसार में धार्मिक जगत में अविद्या व्याप्त है। सत्य व यथार्थ धर्म का ज्ञान वेदों व वेदों के अनुयायी ऋषियों के ग्रन्थों यथा दर्शन एवं उपनिषदों आदि में प्राप्त होता है। इन साहित्य की देश-विदेश में सर्वत्र उपेक्षा हो रही है। ईश्वर का सत्य व यथार्थ स्वरूप हमें प्राप्त है परन्तु विश्व के लोग इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। इस कारण से वह अपने-अपने मतों की मान्यताओं पर स्थित हैं। जैसा उनके आचार्य व धर्मगुरु उन्हें कहते व बताते हैं, उससे बाहर सत्यासत्य के विषय में वह नहीं सोचते। परमात्मा ने प्रत्येक व्यक्ति वा मनुष्य को चिन्तन व विचार करने के लिये पृथक-पृथक बुद्धि दी है। अपनी अपनी बुद्धि का उपयोग करना, ज्ञान प्राप्त कर इसकी वृद्धि करना व इसे सत्यासत्य के निर्णय करने में समर्थ बनाना प्रत्येक व्यक्ति वा मनुष्य सहित देश, समाज व सभी सरकारों का कर्तव्य होता है। पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध के बाद उत्पन्न अविद्या व अविद्यायुक्त मतों ने इस कार्य में बाधा खड़ी की है। यही कारण हैं कि लोग सत्य को स्वीकार करने में तत्पर नहीं है। इसी कारण ऋषि दयानन्द को आर्यसमाज के नियमों में सत्य को सर्वाधिक महत्व देना पड़ा। आर्यसमाज का नियम है कि सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिये।
आर्यसमाज के इन नियमों का तात्पर्य यही है कि सब सत्य को जानें और सत्य को अपने आचरण में लायें। सत्याचरण ही मनुष्य का धर्म है। वेद क्योंकि सर्वांश में सत्य मान्यताओं से युक्त ग्रन्थ हैं, इसीलिये वेदों के अध्ययन, चिन्तन, मनन, उनका आचरण एवं व्यवहार करने को ही धर्म वा परमधर्म की संज्ञा हमारे प्राचीन ऋषियों ने दी थी जिसका अनुकरण व अनुगमन आधुनिक काल में सृष्टि के सभी ऋषियों के प्रतिनिधि व उत्तराधिकारी महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने आदर्श व मर्यादित रूप में अपने जीवन में किया है। हमारा व मानव जाति का सौभाग्य है कि महाभारत के पांच हजार वर्ष बाद हमें एक आप्त पुरुष, वेदों का मर्मज्ञ, उनका प्रचारक तथा वैदिक मान्यताओं से युक्त सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य आदि अनेकानेक ग्रन्थ व उपदेश देने वाला विश्व का सर्वोपरि महान व महानतम पुरुष मिला। भारत के कुछ विवेकी मनुष्यों ने उनके वेदों के सन्देश को मानवमात्र व प्राणीमात्र का कल्याण करने वाला जानकर उसका अनुगमन किया परन्तु विश्व की एक बड़ी जनसंख्या ने उनके सत्य सन्देश पर ध्यान नहीं दिया। इससे हानि यह हुई विश्व के सभी लोग वेदों के ज्ञान से लाभान्वित नहीं हो सके। विश्व से हिंसा सहित अज्ञान, अन्याय, अत्याचार, शोषण, अभाव एवं अविद्यायुक्त मतों की विश्व पर अधिकार करने की प्रवृत्ति दूर नहीं हुई।
आर्यसमाज ने अपने आरम्भ काल सन्1875 से आरम्भ करके उसके बाद अनेक वर्षों तक देश व विश्व के लोगों को जगाने का कार्य किया, हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में अनेक उच्च कोटि के ग्रन्थों का प्रणयन व प्रचार किया परन्तु समय के साथ आर्यसमाज में भी शिथिलता आ गई। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ देशी-विदेशी वेद विरोधी शक्तियों ने भी आर्यसमाज को निष्क्रिय एवं निष्प्रभावी करने का गुप्त रूप से प्रयत्न व कार्य किया है जिसका परिणाम हम वर्तमान समय में एक प्रकार की अन्तर्कलह के रूप में आर्यसमाज में देख रहे हैं। ईश्वर को मानने वाले एक विचारों के लोग भी जब आपसे में संगठित नहीं हो सकते, तो आश्चर्य होता है और इसके परिणामों को सोचकर चिन्ता होती है। यदि अन्तर्कलह को कुचल कर ईश्वर, वेद, ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के सभी अनुयायी सत्य को ग्रहण व धारण करने का संकल्प लेकर संगठित रूप से प्रचार करने निकल पड़ते तो हमें लगता है कि आज देश व विश्व की वर्तमान से भिन्न तस्वीर होती। आर्यसमाज अपनी इतनी अधिक हानि करने पर भी संभल नहीं पा रहा है। हमें यह देखकर भी पीड़ा होती है कि जब आर्यसमाजी नेता कहलाने वाले लोग देश, समाज व आर्यसमाज की मान्यताओं के विरोधी सार्वजनिक बयान देते दिखाई देते हैं। आर्यसमाज में इतनी शक्ति नहीं की इन्हें बाहर का रास्ता दिखा सकें। ऐसे लोगों को भी जब एषणाओं से युक्त अनुयायी मिल जाते हैं।
ऐसी स्थिति में ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश में लिखे यह शब्द स्मरण हो आते हैं। ऋषि दयानन्द जी कहते हैं‘अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों(अंग्रेजो व यवनों) के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय(वेदसम्मत आर्यों का) राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। किन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। विना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था वा इतिहास लिखे हैं उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों का काम है।’
हम अनुभव करते हैं कि देश पर वैदिक धर्म एवं संस्कृति के पराभव के बादल मंडरा रहे हैं और इसके मानने वाले अधिकांश लोग इससे बेपरवाह होकर सुख-सुविधाओं के लिये पुरुषार्थ करने में लगे हैं। किसी के पास अपने अज्ञान, असंगठन, परस्पर विरोधी विचारों, मान्यताओं व परम्पराओं पर विचार करने व बुराईयों को दूर कर वैदिक सत्य परम्पराओं को अपनाने व उनका प्रचार करने का समय ही नहीं है। आर्य-हिन्दुओं की जनसंख्या देश की आजादी के बाद से निरन्तर घट रही है। विरोधी लोग हमारे अपने भाईयों को जातिवाद व भेदभाव के आधार पर हमारे भाईयों को हमसे दूर व अपने निकट कर रहे हैं। यह खतरे की घंटी है। यदि अब भी हम अज्ञान, अन्धविश्वास, जन्मना जातिवाद तथा सामाजिक भेदभावों को छोड़कर संगठित नहीं हुए, विरोधियों की चुनौतियों को स्वीकार उनका उपयुक्त उत्तर नहीं देंगे, तो आने वाले समय में हमारे बन्धुओं की वही दुर्गति हो सकती है जो आज पाकिस्तान, बंगलादेश व अफगानिस्तान में आर्य-हिन्दू जाति के मानने वाले लोगों की हो रही है। ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. लेखराम जी आदि महापुरुषों ने हमें चेताया था, परन्तु हमने उनकी चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया। हम धन कमाने व सम्पत्ति बढ़ाने के कार्यों में ही लगे रहे व अब भी लगे हुए हैं। हमें अपने उन भाईयों की भी चिन्ता नही है जिन्हें दो समय सूखी रोटी और नमक भी खाने को नसीब नहीं होता। हम मनुष्य किस प्रकार से, कैसे व क्यों कहलाते हैं, पता नहीं? ऋषि दयानन्द ने तो मनुष्य की परिभाषा में कहा है कि मनुष्य वही है जो मननशील हो और स्व-आत्मवत् दूसरों को अपने समान, अपनी आत्मा के समान, समझे। हमें लगता है कि हम अपने अन्य भाईयों को इस विचार के अनुरूप नहीं समझते। यदि समझते होते तो देश में आज इतना अन्तर न होता। यदि हमें इतिहास में बने रहना है तो हमें विचार करना होगा और वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के उपाय करने ही होंगे। वह यही हैं कि हम वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करें और वेदों की शिक्षाओं के अनुरूप आचरण करते हुए दूसरों को भी इसकी महत्ता का उपदेश व प्रचार करते रहें।
ईश्वर इस सृष्टि का सृजनकर्ता है। उसका सत्य ज्ञान वेदों व ऋषियों द्वारा रचित ग्रन्थों से प्राप्त होता है। उस ईश्वर का सत्यस्वरूप जानना, उसकी उपासना से अपने अवगुणों को दूरकर सद्गुणों से युक्त होना और साधना कर उसका साक्षात्कार करना सब मनुष्यों का धर्म है। जो ऐसा नही करता वह संसार के स्वामी ईश्वर का कृतघ्न होता है और जन्म-जन्मान्तरों में अपने इस पाप का दुःख रूपी दण्ड प्राप्त करता है। ईश्वर व वेद ही हमारी सबसे बड़ी सम्पत्ति है जिससे हम कल्याण को प्राप्त होते हैं। हमारे जिन बन्धुओं के पास प्रभूत भौतिक सम्पत्ति है परन्तु जिनके पास वेद और वेदाचरण नही है, वह धनी तो हो सकते हैं परन्तु सफल मनुष्य कदापि नहीं हो सकते। यह ज्ञान ऋषि दयानन्द का ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश तथा वेद दोनों ही कराते हैं। सम्पत्ति और वेदाचरण दोनो का समन्वय ही मनुष्य को मर्यादित व सफल मनुष्य बनाता है। ईश्वर की उपासना व दुर्गुणों के त्याग से ही मनुष्य सुखी, सन्तुष्ट एवं सफल हो सकता है। उसके परजन्म सुधर सकते हैं। मनुष्य की सबसे उत्तम सम्पत्ति ईश्वर व वेदज्ञान ही है। अन्य सम्पत्तियां महत्वपूर्ण परन्तु इन दोनों के समक्ष गौण हैं। हमें ईश्वर व वेद से जुड़ना है। इसके लिये सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ सबसे दृण सेतु के समान है। इस ग्रन्थ का स्वाध्याय हमारे इस प्रयोजन को पूरा कर सकता है। इससे हमें जन्म-जन्मान्तरों में आत्मा व शरीर दोनों की ही उन्नति का लाभ प्राप्त होंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य