भारत के इतिहास के विषय में कितना प्रामाणिक है यूरोपियन लेखन, भाग 2

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लेखक:- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

यूरो-ईसाई लेखन को कैसे पढ़े?

पूर्व में हमने 19वीं शती ईस्वी के यूरोप की पृष्ठभूमि बताई है। इस पृष्ठभूमि की जानकारी के साथ हमें इन यूरोपीय ईसाई कथित इतिहास लेखकों के लेखन को पढ़ना चाहिये। इनके लिखने का प्रयोजन क्या है, यह सदा समझ लेना चाहिये। इसके लिये एक तो यूरोप की सामान्य जानकारी जो उस समय की स्थिति की है, वह जाननी आवश्यक है। साथ ही प्रत्येक पुस्तक की भूमिका (प्रिफेस) अवश्य पढ़ना चाहिये और लेखक के बारे में जो संक्षिप्त जानकारी छपी रहती है, वह भी ध्यान से पढ़ना चाहिये। इन दोनों को पढ़ने पर अपने विवेक का प्रयोग करते हुये किसी भी पुस्तक के लेखक का प्रयोजन समझ लेना चाहिये, उसके बाद पुस्तक पढ़नी चाहिये। अपने यहां विद्या की अत्यन्त प्रशस्त परंपरा है इसलिये हमारे परम्परागत विद्वान लेखक सत्य का पूरा ध्यान रख कर ही लिख पाते हैं। परंतु जहां विद्या की ऐसी परम्परा नहीं है वहां लेखन का प्रयोजन सत्य ना होकर अन्य है।
हिन्दू घरों में जन्मे और आधुनिक यूरो-इंडियन मतों वाले भारतीय शासन के द्वारा नियंत्रित शिक्षा में दीक्षित यूरो-ईसाई पादरी प्रोफेसरों के चेले भी सत्य के लिये नहीं लिखते। वे अन्य प्रयोजनों से ही लिखते हैं। उन मतवादी प्रयोजनों को हम सब जानते ही हैं।
इसके साथ ही यह भी सदा समझना चाहिये कि 19वीं शताब्दी ईस्वी तक ये यूरोपीय ईसाई जो कुछ लिख रहे हैं, वह यूरोप की उस ‘ऑडियॅन्स’ (पाठक वर्ग) के लिये लिख रहे हैं, जिसका इन चीजों को पढ़ने से कुतूहल बढ़ता है और मनोरंजन होता है। वे इन विवरणों को किस्सों की तरह पढ़ते हैं जैसे हम लोग बेताल पच्चीसी वगैरह पढ़ें। तो कोई इन्हें ‘क्रास चेक’ करने नहीं आ रहा और कोई यह जांच पड़ताल करने में रूचि भी नहीं रख रहा कि जो लिखा गया है, वह सत्य है या नहीं। उनके लिये तो इतना पर्याप्त है कि यह खासा मनोरजंक है।
इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ये लिखने वाले लोग अपने यूरोपीय समाज के भी मुख्य लोग नहीं हैं। उनमें से कोई सामान्य सा घुमक्कड़ है जो किसी लालसा में आया हुआ है या भाड़े का सैनिक (सिपाही) है या किसी ‘कन्सट्रक्शन कंपनी’ में किसी पद पर है या भाड़े की सेना में किसी निचले पद पर है या किसी व्यापारिक कंपनी का छोटा-मोटा मुलाजिम है। उल्लेखनीय है कि कंपनी के भारत में तैनात मुख्य अधिकारियों ने भी ये विवरण नहीं लिखे हैं। उदाहरण के लिये स्वयं डलहौजी या वारेन हेस्टिंग्स या केनिंग या थॉमस मुनरो या विलियम बेंटिक या एलेनबरो या रिपन आदि ने ये विवरण नहीं लिखे हैं। ये तो बहुत मामूली लोगों ने लिखे हैं। ब्रिटिश शासन तो छोड़िये, इन्हें तो ईस्ट इंडिया कंपनी भी नहीं कह रही है कि तुम भारत का इतिहास लिख कर हमें बताओ। ईस्ट इंडिया कंपनी तो अपने सारे आवश्यक प्रशासनिक कार्य तो भारत के पंडितों से पूछ कर करती रही थी। ब्रिटिश शासन भी प्रारंभ में ऐसा ही करता है। ये अन्य लोग जो लिख रहे हैं, वे कुछ धन या यश पाने की लालसा से स्वयं ही लिख रहे हैं।
19वीं शताब्दी ईस्वी में जिसे वहां ‘यूनिवर्सिटी’ कहा जा रहा है, वह वस्तुतः एक ही प्रकार के 10-20 या 50-100 लोगों का एक समूह है। ‘यूनिवर्स’ का अर्थ वहां है ‘एक ही तरह के लोग’ यानी एक ही बिरादरी। ध्यान रहे कि पढ़ाई की वहां यह स्थिति है कि बड़े-बड़े मुख्य पादरी भी बाईबिल पढ़ नहीं पाते। केवल किसी एक पढ़े लिखे पादरी से सुनकर शेष 100-50 लोग काम चलाते हैं।
मार्टिन लूथर 15वीं शताब्दी ईस्वी के अंत में पहली बार लैटिन की बाईबिल की जगह ग्रामीण जर्मन भाषा में बाईबिल का अनुवाद करते हैं। जिसका पोप प्रचंड विरोध करते हैं। बाद में 16वीं शताब्दी ईस्वी में विलियम टाईन्डेल उसका हेब्रू और यावनी भाषा से अंग्रेजी अनुवाद करते हैं। 16वीं शताब्दी ईस्वी में जब भारत में गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस लिख रहे थे, जो जन-जन में 500 वर्षों से व्याप्त है, तब पहली बार बाईबिल का अंग्रेजी अनुवाद किया गया। जो मुख्य पादरियों के बीच में हस्तलिखित प्रतियों के रूप में बांटे जाने तक का पोप ने विरोध किया। इस प्रकार 16वीं शताब्दी ईस्वी तक भी इंग्लैंड का कोई भी पादरी बाईबिल नहीं पढ़ पाता था। जनसाधारण में तो शिक्षा पूर्णतः वर्जित और प्रतिबंधित ही थी।

इसके बाद 20वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में अफ्रीकी पेस्टर मार्टिन लूथर किंग सीनियर ने पहली बार हर नागरिक को बाईबिल पढ़ने की अनुमति दिये जाने के लिये आंदोलन किया। वह आंदोलन यही तो था कि हमें बाईबिल पढ़ने दी जाये। वे कहते हैं कि हमें अंग्रेजी भाषा में बाईबिल पढ़ने को मिलना चाहिये। ‘लिबर’ का अर्थ है पुस्तक जो उस समय तक एकमात्र पुस्तक बाईबिल के लिये प्रसिद्ध है। वह बाईबिल हम सब को पढ़ने के लिये मिले, इसके लिये पादरी लोग आंदोलन कर रहे हैं। शिक्षा का यह स्तर है। सर्वसाधारण के लिये शिक्षा तो स्वप्न ही है। केवल पादरी लोग और अभिजन लोग ही शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। ऐसे पाठकवर्ग के लिये भारत के ये सब किस्से इतिहास बताकर लिखे जा रहे हैं। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखे बिना और लिखने वाले की पृष्ठभूमि तथा लेखन का प्रयोजन ध्यान में रखे बिना इन लोगों के लेखन को सम्यक रूप से समझा नहीं जा सकता।

अलेक्जेंडर डाउ ने वेदों, शास्त्रांे और उपनिषदों का भी परिचय अपनी बुद्धि से देने की कोशिश की और उसमें गहरा आदरभाव है। पादरियों के डर से उसने सदा ईसाइयत को सर्वश्रेष्ठ बताया परंतु यह बार-बार लिखा कि यहूदियों और इस्लाम से हिन्दुओं का धर्म और ज्ञान बहुत आगे है। उसने यह भी लिखा कि निरूक्त शास्त्र और व्याकरण में हिन्दू बहुत आगे हैं। इनकी पुस्तकें तर्कपूर्ण और विवेकपूर्ण हैं तथा ऐसे उन्नत विद्वानों के द्वारा लिखी गई दिखतीं हैं जो निरन्तर अध्ययनशील थे तथा जिनके ग्रंथों और शास्त्रों में समन्वय है और सहजता तथा सामर्थ्य से युक्त अभिव्यक्ति है। पाणिनी व्याकरण की उसने बहुत प्रशंसा की। उसने लिखा कि ‘हिन्दू वस्तुतः इन्दु का ही एक रूप है और इन्दु का अर्थ चन्द्रमा है। भारत के शासक स्वयं को सूर्यवंशी और इन्दुवंशी या चन्द्रवंशी कहते हैं तथा इन्दुवंशी शासकों के सम्पर्क में आने के समय बाहर के लोग इन्हें इन्दु या हिन्दू कहने लगे। सिंधु का नाम भी वस्तुतः इन्दु नदी और उससे जुड़े सागर का नाम इन्दुसागर है। डाउ ने लिखा कि यूरोप के लोगों ने यह बिल्कुल गलत धारणा बना ली है कि इन्दु या सिंधु नदी के कारण इन लोगों को आसपास के लोगों ने बाद में हिन्दु कहना शुरू किया। सत्य यह है कि इन्दुवंशी शासकों के कारण इस नदी को भी इन्दु कहा गया।’ (खंड 1, भूमिका पृष्ठ 31-32)
डाउ ने लिखा कि अत्यन्त प्राचीन काल से ये हिन्दू लोग चार वर्णों में समाज को वर्गीकृत रखते हैं। जिनमें प्रथम है ब्राह्मण। जो कि यहूदियों के ‘लेविट’ पुजारियों की तरह हैं। वहाँ भी इन्हें सर्वोच्च माना जाता है। उसने यह भी लिखा कि ब्राह्मण लोग युद्ध कर्म, शासन, व्यापार और कृषिकर्म भी करते हैं। केवल निंदित कर्म करने पर इनका प्रतिबंध है। इन्हें ब्रह्म के सिर से उत्पन्न कहा जाता है। उसके बाद क्षत्रिय हैं, जो वस्तुतः योद्धा हैं और शासन के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करते हैं। इन्हें ब्रह्म के हृदय या वक्षस्थल से उत्पन्न कहा गया है (वही पृष्ठ 33)।
तीसरा वर्ण वैश्य है जो बैंकर हैं, साहूकार हैं, सौदागर हैं और व्यापारी हैं। ये ब्रह्म के उदर से उत्पन्न हैं और समाज का भरण पोषण इन पर ही आश्रित है। चतुर्थ वर्ण शूद्र है जो परिचर्या या सेवा के कार्य करता है। ये चारों ही वर्ण सवर्ण हैं और ये हिन्दू समाज के शरीर के अंग माने जाते हैं। इस दृष्टि से इनमें एकता है। परंतु अगर कोई अपने से उच्च वर्ण की स्त्री से विवाह करता है तो उसे वर्ण से बहिष्कृत कर दिया जाता है। तब उसे केवल ऐसे शिल्पों में ही काम करने दिया जाता है जो निचले स्तर के माने जाते हैं। (डाउ ने क्राफ्ट शब्द का उपयोग किया है, वही पृष्ठ 33)। डाउ ने यह भी लिखा है कि चारों वर्णों में ऐसी एकता है कि यदि कोई व्यक्ति इन चारों वर्णों से बाहर निकाल दिया जाता है तो वह अपने को बहुत असहाय और निंदित अनुभव करता है तथा बताये गये प्रायश्चित के लिये सदा तैयार रहता है, क्योंकि समाज से बाहर रहने से अधिक अच्छा उसे मृत्यु का वरण कर लेना लगता है। हिन्दू समाज की ऐसी प्रबल एकता है। (पृष्ठ 33-34)
स्पष्ट है कि डाउ की इन बातों को बाद के यूरोपीय लेखकों ने और उनके हिन्दू चेलों ने बिल्कुल अलग रंग दे दिया। इतना ही नहीं, उसने यह भी लिखा है कि हिन्दू लोग धर्मान्तरण बिल्कुल नहीं करते क्योंकि वे पुनर्जन्म और कर्मफल पर विश्वास करते हैं और यह मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति स्वधर्म पालन के द्वारा ही स्वर्ग जाता है और विशेष साधना के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है। किसी भी अन्य समाज के लोगों को हिन्दू समाज में किसी भी वर्ण में शामिल करने में हिन्दुओं की कोई रूचि नहीं रहती।
डाउ ने बताया है कि ब्राह्मण लोग आकाश और नक्षत्रों का अद्भुत ज्ञान रखते हैं और गणित ज्योतिष में बहुत आगे हैं। डाउ के समय दस वर्ष तक की हिन्दू कन्याओं का विवाह हो जाता था, ऐसा डाउ ने लिखा है और बताया है कि ऐसा विवाह होने पर भी उन्हें यौवन प्राप्त होने पर ही समागम की अनुमति दी जाती थी। उसके पहले कन्या प्रायः मायके में ही रहती है। हिन्दुओं में बहु विवाह की अनुमति है परंतु इसका प्रचलन बहुत ही कम है क्योंकि सामान्यतः हिन्दू एक ही पत्नी से प्रसन्न और संतुष्ट रहते हैं। (पृष्ठ 35)
डाउ ने बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि विधवा स्त्री को चिता में बैठाने का कोई भी धार्मिक विधान हिन्दुओं में नहीं है और सतीप्रथा के नाम से यूरोप में इस विषय में हिन्दुओं की जो बदनामी की जाती है वह पूरी तरह गलत है। यह तो प्रेम के आवेग की प्रबलता से स्त्रियां करती रहीं हैं और ऐसी स्त्रियों को वीर नारी कहा जाता है। परंतु यह बहुत ही विरल घटना होती। यूरोप में इस विषय में बिल्कुल झूठी बातें फैलाईं गईं हैं, यह डाउ ने बल देकर लिखा है (पृष्ठ 35)। परंतु बाद में कंपनी के लोगों ने राममोहन राय जैसे गलत लोगांे को अपना कर्मचारी बनाकर और फिर उनको पहले पंडित और बाद में राजा झूठमूठ में घोषित कर उन्हें लंदन ले जाकर घुमाया और बपतिस्मा भी दिलाया तथा उनसे सतीप्रथा का भयंकर झूठा वर्णन कराया और फिर विलियम बैंटिंक की मनमानी को सही ठहराने का प्रयास किया। भारत में तो ऐसे-ऐसे महामूर्ख लेखक बने हुये हैं कि वे इंग्लैंड की अनेक कंपनियों में से एक साधारण कंपनी – ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय महाप्रबंधक विलियम बैंटिंक को तत्कालीन भारत शासन नामक एक काल्पनिक सत्ता का राष्ट्रीय गवर्नर जनरल ही लिख मारते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि ऐसे निपट अज्ञान को कांग्रेस शासन ने पाठ्यक्रम में पाठ की तरह पढ़वाया और भाजपा शासन भी कांग्र्रेस की इस विषय में चेली बनी हुई है।
डाउ ने वीर राजपूत स्त्रियों की विशेष परिस्थिति में की जाने वाली वीरता की अलग से चर्चा की है और उसे भारत में सामान्य प्रचलित सती प्रथा कहे जाने की जम कर निंदा की है। इसीलिये पादरियों ने और झूठे लोगों ने डाउ की बात को दबा दिया।
डाउ ने भाारतीयों के न्यायशास्त्र और दंड विधान की बहुत प्रशंसा की है। यह भी लिखा है कि जहाँ-जहाँ मुसलमान शासकों का प्रभाव फैला है वहां इस न्यायशास्त्र का पालन नहीं किया जाता अपितु मनमानी की जाती है। उसने सन्यासियों की भी चर्चा की है और यह भी बताया है कि सन्यासियों की दस से बारह हजार तक की संख्या वाले अपनी सेनायें भारत के अनेक क्षेत्रों में हैं। ये तीर्थयात्रा पर जाते हैं और रास्ते में मुसलमानों द्वारा किये गये किसी भी मंदिर विध्वंस का या अन्य अनाचार का वीरतापूर्वक बदला लेते हैं। इनका अनुशासन बहुत कठोर है। विशेषकर नागा साधु बहुत कठोर अनुशासन में अनुशासित योद्धा होते हैं (पृष्ठ 37)। डाउ ने बंगाल के फकीरों की अवश्य तीखी आलोचना की है, परंतु साथ ही उनकी कठोर हठ साधना का भी विवरण दिया है।
डाउ ने यह बारम्बार लिखा है कि यूरोप में हिन्दुओं के विरूद्ध झूठा और गलत प्रचार किया जाता है तथा अनेक यूरोपीय लोग विद्वान ब्राह्मणों से बात करने की जगह किसी निचले वर्ग के और निरक्षर व्यक्ति से बातें करके फिर उसकी बताई बातों को ही हिन्दू धर्म के रूप में यूरोप में प्रस्तुत करते हैं जो उतना ही हास्यास्पद है जितना कि आप लंदन में किसी मुसलमान से ईसाइयत के बारे में पूछकर फिर उसे ही ईसाइयत बताने लगें (पृष्ठ 40)।
डाउ ने हिन्दुओं के अनेक सम्प्रदायों की भी चर्चा की है और उनमें से वेदान्त सहित कुछ सम्प्रदायों का परिचय भी दिया है। उसने वेदांग की अनेक टीकाओं का उल्लेख करते हुये हिन्दू शास्त्रों को वेदांग अर्थात् वेद की ही अंगभूत व्याख्यायें लिखा है (पृष्ठ 41) और व्यास मुनि से लेकर श्रीधर स्वामी तक की टीकाओं की चर्चा की है जो अनेक पृष्ठांे में फैली हुई है। उसने ज्ञान और भक्ति मार्ग की भी चर्चा की है और हिन्दुओं के देवी-देवताओं के विषय में भी लिखा है। उसने यह भी बताया है कि सर्वोच्च सत्ता को हिन्दू लोग हजार नामों से संबोधित करते हैं और उनका कीर्तन करते हैं। इसी प्रकार विष्णु और शिव के हजार नामों की भी उसने चर्चा की है। प्रकृति के रूप में भी सर्वोच्च सत्ता ही व्यक्त है और सत्य, रज और तम इन तीन गुणों के रूप में सक्रिय है।
इसके बाद डाउ ने महाभारत में वर्णित राजवंशों का उल्लेख किया है और उनकी विवेचना की है। डाउ ने महाराज विक्रमादित्य या विक्रमजीत की चर्चा विस्तार से की है और उन्हें भारतीय इतिहास के अत्यन्त प्रसिद्ध सम्राटों में से एक बताया है तथा कहा है कि सभी भारतीय उनके प्रति गहरी श्रद्धा रखते हैं। उन्होंने उज्जयिनी में महाकाल की महान प्रतिमा स्थापित की और भव्य मंदिर बनवाया तथा वे स्वयं उनकी एक अनंत और अदृश्य परम सत्ता के रूप में नित्य पूजा करते थे। हिन्दू लोग अपने इस महान सम्राट का अतिशय सम्मान करते हैं और अनेक क्षेत्रों में काल की गणना विक्रम संवत् से ही की जाती है। ये भी उसने लिखा है (अध्याय 1, पृष्ठ 12)।
(क्रमशः ….)
✍🏻रामेश्वर मिश्रा पंकज

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