अंतिम विजय के लिए सतत संघर्ष का प्रवाह ‘पराजय’ में भी बना रहा
राजपूतों की पराजय के राजनीतिक कारणों पर विचार करते हुए हमें प्रचलित इतिहास में जो कारण पढ़ाए जाते हैं, उनमें प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं :-
-भारत में राजनीतिक एकता का अभाव होना।
-मुसलमानों में एकता की प्रबलता का पाया जाना।
-तुर्कों की हिंदुओं से अच्छी शासन व्यवस्था का होना।
-राजपूतों की लोक कल्याण की ओर से उदासीनता की भावना।
-राजपूतों का चक्रवर्ती राजा बनने के आदर्श होना।
-राजपूतों में कूटिनीतिज्ञता का अभाव पाया जाना।
-सीमांत प्रदेशों की सुरक्षा की उपेक्षा का भाव।
-हिंदुओं में राष्ट्रीयता का अभाव।
राजनीतिक एकता के अभाव का अर्थ
भारत में जब राजनीतिक एकता के अभाव की बात की जाती है तो उसका अर्थ यह लगाया जाता है कि यहां पर कोई ऐसी सार्वभौम सत्ता नही थी जो संपूर्ण देश को एकता के सूत्र में पिरोकर रख सकती। डा. ईश्वरी प्रसाद ने तो यहां तक लिख दिया कि ”16वीं शताब्दी में जर्मनी की भांति भारत राज्यों का संग्रह बन गया था, जो वस्तुत: एक दूसरे से स्वतंत्र थे।’’
भारत के विषय में यह कहना तो सच है कि यहां कोई सार्वभौम सत्ता नही थी जो इस देश पर एकच्छत्र शासन कर पाती, परंतु यह कहना पूर्णत: सच नही है कि ये देश उस समय विभिन्न राज्य-राष्ट्रों (रियासतों) का संग्रह बन गया था। इन राज्य-राष्ट्रों को ही कालांतर में हमें रियासतों के रूप में बताया गया। वास्तव में जैसा कि हम पूर्व में ही उल्लेख कर चुके हैं कि देश में उस समय के हिंदू शासकों में सार्वभौम सत्ता स्थापित कर चक्रवर्ती सम्राट बनने की होड़ लगी थी और नि:संदेह इस होड़ में कई बार हमारे हिंदू शासकों के परस्पर घातक युद्घ भी हुए, जिनमें देश की सैनिक क्षमता और सामथ्र्य का हृास भी हुआ। शक्ति के इस प्रकार हृास से देश में पारस्परिक ईष्र्या और घृणा का वातावरण बना और हम पतन के गर्त में गिरते चले गये।
‘शांतम् पापम्’ कब कहा जाता है…….
इस सबके उपरांत भी एक आश्चर्य जनक तथ्य ये है कि हमारी राष्ट्रीय भावना बनी रही। जिसके कारण किसी भी देशी शासक ने स्वतंत्र और पृथक राष्ट्र की घोषणा नही की। कहीं पर भी किसी भी देशी राजा ने देश के विरूद्घ विद्रोह का झण्डा नही उठाया। सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं को तथा ऐतिहासिक परंपराओं को सबने सामूहिक रूप से अपने लिए चेतना प्राप्त करने का स्रोत स्वीकार किया और कदाचित इसीलिए हम एक बने रहे।
भानुप्रताप शुक्ल लिखते हैं-”जब तर्क का उत्तर तर्क से नही नृशंस बल से दिया जाने लगता है, जब शास्त्र का निर्णय शस्त्र से किया जाने लगता है, जब सज्जनों को दुर्जन सताने लगते हैं, जब शील को अश्लीलता निगलने लग जाती है, तो टकराव होता ही है, होगा ही। स्मरण रहे शांति पाठ अशांति के अंत के बाद का मंत्र है। पाप की समाप्ति के बाद ही ‘शांतम् पापम्’ कहा जाता है। टकराव या संघर्ष सज्जनों के कारण नही, दुर्जनों के कारण होता है।’’ वास्तव में हिंदुत्व का प्राणतत्व है ये श्री शुक्ल जी का कथन। इसी प्राण तत्व के चारों ओर हमारा इतिहास परिक्रमा करता है।
प्रतिकार करना हमारी भूल नही वीरता थी
तुर्कों या विदेशी आक्रांताओं से हमारी टक्कर के कारणों की कभी ईमानदारी से खोज नही की गयी। इसमें हमें बराबर का भागीदार माना गया है और ऐसी अपेक्षा हमसे की गयी है कि विदेशी आक्रांता जो कि यहां भाईचारे और शांति का संदेश लेकर आ रहे थे, उनका प्रतिकार करके हमने भयंकर भूल की। मानो जैसे वो एक वैद्य थे और हम रोगी थे। वह हमारा उपचार करना चाहते थे और हम उनका उपचार लेना नही चाह रहे थे। अत: हमारे लिए उचित यही होता कि हम उस उपचार को सहज भाव से ग्रहण कर लेते।
टकराव दुर्जनों के कारण होता है
परंतु टकराव सज्जनों के कारण नही दुर्जनों के कारण होता है, यह बात अत्यंत ध्यान रखने की है। हर एक युद्घ हमारी भूमि पर हुआ, इसी से वह आक्रांता ही नही अपितु दुर्जन भी सिद्घ होते हैं। उनके पास नृशंस बल था, शास्त्र के स्थान पर शस्त्र था, शील हरण के लिए अश्लीलता की पूरी सेना थी। अत: टकराव अवश्यम्भावी था। यह टकराव हुआ और सदियों तक चलता रहा। इसमें हारने की बात तो तब आती कि जब संपूर्ण राष्ट्र काश्मीर से कन्याकुमारी तक इस्लाम के शस्त्रबल और अश्लीलता को स्वीकार कर लेता। परंतु ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि पूरे देश ने ही समझ लिया था कि ये टकराव अपनी संस्कृति की रक्षार्थ आवश्यक है।
राजनीतिक एकता का अभाव थी एक विश्वव्यापी समस्या
जहां तक भारतीयों में राजनीतिक एकता के अभाव की बात है तो पिछले अध्यायों में हमने स्पष्ट किया है कि एक बार नही अपितु कितनी ही बार भारतीय राजाओं ने राष्ट्रीय सेना बना बनाकर विदेशी शत्रुओं का प्रतिकार किया और उन्हें पराजित भी किया। जबकि विदेशी आक्रांताओं का एक भी उदाहरण ऐसा नही है कि जब उन्होंने विभिन्न विदेशी शासकों की राष्ट्रीय सेना को लेकर भारत पर आक्रमण किया हो। यहां तक कि भारत में मुस्लिम राज्य स्थापित होने पर भी कभी ऐसा नही हुआ कि जब विभिन्न मुस्लिम शक्तियां एक होकर लड़ीं और विजयी हुईं, और जिसने देश की केन्द्रीय सत्ता पर अधिकार स्थापित किया। इसके विपरीत मुस्लिम शासकों के पैर उखाडऩे के लिए कई बार तो दूसरे मुस्लिम शासक भी सक्रिय रहे। हां, इन देशी मुस्लिम शासकों ने कभी देशी हिंदू शासकों को मुस्लिम शासकों के विरूद्घ सहयोग नही किया। इससे स्पष्ट होता है कि सत्ता संघर्ष में या एक शासक से बड़ा शासक स्वयं को सिद्घ करने की होड़ तो मुस्लिम शासकों में भी थी। इसीलिए वह भारत में ही नही अपितु भारत के बाहर भी मुस्लिम शासकों को भी नीचा दिखाने का काम भी कर रहे थे। यह रोग उस समय विश्वव्यापी था। अत: ये कहना कि भारत के शासक वर्ग में चक्रवर्ती सम्राट बनने की होड़ लगी थी और इसलिए वह निर्बल हो रहे थे, केवल भारतीयों के लिए ही कहना उचित नही है। यह रोग तो मुस्लिमों में भी था। अत: यह मानना कि मुस्लिमों में एकता का भाव था, उचित नही है।
राजनैतिक वैमनस्यता हर समुदाय में होती है
राजनीतिक वैमनस्यता और सामाजिक ऊंच नीच हर समुदाय में स्वाभाविक रूप से मिलती है। क्योंकि समुदायों का निर्माण ही एक दूसरे से अच्छा होने की भावना पर आधारित होता है। जहां सबसे अच्छा होने का या स्वयं को दिखाने का भाव हो, वहां ऊंच-नीच उत्पन्न हो ही जाती है। वास्तव में उस समय सारे मध्य एशिया की स्थिति ही ऐसी थी कि उसमें राजनैतिक एकता का अभाव था और सार्वभौम सत्ता की प्राप्ति के लिए सर्वत्र संघर्ष हो रहा था। भारत की ओर इस्लाम के बढऩे का एक कारण सार्वभौम सत्ता की स्थापना करना ही था, जिसे भारतीयों ने इसलिए स्वीकार नही किया कि वह स्वयं सार्वभौम सत्ता की स्थापना करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। पृथ्वीराज चौहान जैसे कई भारतीय शासक इसके उदाहरण हैं। अत: युद्घ महत्वाकांक्षा का भी था। यदि वह महत्वाकांक्षी थे तो हमारे शासक भी कम नही थे।
अत: डा. ईश्वरी प्रसाद इतिहास जैसे लेखकों का यह कथन मिथ्या है कि-”राजपूत राजाओं के आपसी झगड़ों ने उनके (मुसलमानों के) कार्य को सरल बना दिया था और यद्यपि हिंदू अपने आक्रमणकारियों की तुलना में संख्या में अधिक थे परंतु चूंकि वे संगठित होकर शत्रु का सामना न कर सके, इसलिए उनके सभी प्रयास व्यर्थ सिद्घ हुए और वे शत्रु को रोक न सके। उनमें राष्ट्र प्रेम की भावना न थी। प्रत्येक राजकुमार को अपनी सुरक्षा के लिए लडऩा पड़ता था और यदि कोई संगठित मोर्चा बनाया भी जाता तो उसके सदस्य परस्पर ही लडऩे लगते, और अनुशासन के नियमों को भंग कर देते। परिणाम यह हुआ कि प्राय: उन्हें अकेले लडऩा पड़ा और वे प्रबल शत्रुओं के सामने ठहर न सके और उनकी अदभुत वीरता तथा उनके अदम्य उत्साह निष्फल हुए।’’
चुनौतियां बनीं रहीं
डा. ईश्वरी प्रसाद जी का यह कथन हमारे तत्कालीन महान स्वतंत्रता सैनानियों और बलिदानियों के स्मारकों पर कालिख पोतने के समान है। डा. प्रसाद जैसे इतिहास लेखकों को यह स्मरण रखना चाहिए कि 1206 ई. में भारत में यदि तुर्क सल्तनत की स्थापना गुलाम वंश के रूप में हुई थी तो वह कुतुबुद्दीन का शासन भारत के कितने भाग पर था? सचमुच उस समय के भारत के लगभग दस पंद्रह प्रतिशत भाग पर भी नही। इसलिए पृथ्वीराज चौहान की पराजय भी अंतिम पराजय नही थी और कुतुबुद्दीन द्वारा स्थापित किया गया राज्य निष्कंटक नही था। चुनौतियां अभी भी थीं। क्योंकि संघर्ष और स्वतंत्रता का लावा तो अब भी धधक रहा थ। हमें अपने पतन के उस काल के इतिहास वर्णन में भी यही बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि एक स्थान पर कहीं पराजय मिली तो संघर्ष और स्वतंत्रता के नाम पर विद्रोह की अग्नि कहीं और भड़क उठी। क्योंकि इस संघर्ष और स्वतंत्रता की लड़ी का स्रोत एक ही था और वह था भारत की आत्मा के प्रति सभी का समर्पण भाव। दिल्ली निश्चित रूप से हमारे देश की लंबे काल तक केन्द्रीय सत्ता रही है, पर जब दिल्ली या कोई भी अन्य केन्द्रीय सत्ता ढीली पड़ी तब तब ही दूसरे स्थान पर केन्द्रीय सत्ता का उद्भव हुआ। भारत का इतिहास इस तथ्य की साक्षी देता है। अत: यह केन्द्रीय सत्ता कभी अयोध्या में तो कभी हस्तिनापुर व इंद्रप्रस्थ में तो कभी पाटलिपुत्र या उज्जैन सहित देश के विभिन्न भागों में स्थानांतरित होती रही। हमने दुर्बलताओं को मिटा कर या दुर्बलता के प्रतीकों को समाप्त कर नये कीर्ति स्तंभ स्थापित किये हैं, इसलिए भारत के इतिहास के कीर्ति स्तंभ किसी एक नगर या देश के किसी एक आंचल में नही मिलते अपितु ये कीर्ति स्तंभ देश के विभिन्न नगरों और आंचलों में बिखरे पड़े हैं। संपूर्ण भारत वर्ष का न्यायपरक इतिहास लिखने के लिए इन सभी कीर्ति स्तंभों के मोतियों को एक साथ एक सूत्र में पिरोकर देखने की आवश्यकता है। अत: यदि दिल्ली परास्त हुई तो यह नही मानना चाहिए कि हम परास्त हो गये, अपितु यह खोजना चाहिए कि जब दिल्ली परास्त हुई तो उसके पश्चात संघर्ष और स्वतंत्रता कहां स्थानांतरित हो गये थे? जब इतिहास को इस न्यायपरक दृष्टिकोण से लिखा और समझा जाएगा तो सारा ‘सच’ सामने आता चला जाएगा।
तुर्कों की अच्छी शासन व्यवस्था
तुर्कों की अच्छी शासन व्यवस्था को हिंदूओं की पराजय का कारण मानते हुए डा. अवध बिहारी पाण्डेय लिखते हैं-”इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेने के उपरांत कम से कम सिद्घांत की दृष्टि से उसका शासक निर्वाचन द्वारा नियुक्त किया जाता था। अत: इस व्यवस्था में अयोग्य व्यक्ति का राजा बनना संभव नही था चाहे वह राजवंश का ही क्यों न हो। साथ ही योग्य व्यक्ति के लिए राजपद प्राप्त करना सदैव सुलभ रहता था। चाहे उसका संबंध राजवंश से न भी हो। अत: तुर्क शासन व्यवस्था में वही लोग राजपद पर आरूढ़ रह सकते थे जो वास्तव में बड़े योग्य हों अथवा जिन्हें योग्य व्यक्तियों की स्वामी भक्ति प्राप्त हो।’’
पाण्डेय जी ने ऐसा लिखकर स्पष्ट कर दिया कि भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशी आक्रांता अपने आप में योग्य और निष्पाप थे। अत: उन्होंने जो किया वह ठीक ही किया। पर पाण्डेय जैसे लोग ये भूल जाते हैं कि भारत में राज्योत्पत्ति का दैवीय सिद्घांत पूर्णत: लोकतांत्रिक व्यवस्था का समर्थक है, और उस सिद्घांत के अनुसार राजा का कत्र्तव्य है कि वह अपनी प्रजा का पालन ईश्वरीय, प्राकृतिक न्याय व्यवस्था के अनुसार पूर्णत: न्यायसंगत और निष्पक्ष बने रहकर करे। इसलिए भारत में युद्घ तब अनिवार्य माना गया है जब किसी वर्ग या समुदाय विशेष या प्रजा के अधिकारों का हनन हो रहा हो। प्रकृति भी दमनकारी को ही दण्डित करती है, और यही ईश्वरीय व्यवस्था है। इसलिए राजकीय व्यवस्था भी यही है कि वह दमनकारी का हनन करे, स्वयं कभी भी दमनकारी ना हो। लोकतंत्र का सगबसे सुंदर और उत्तम गुण भी यही है। यहां अधिकारों के हनन के लिए नही अपितु अधिकारों के संरक्षण के लिए युद्घ हुए हैं। इसी को हमारे यहां ‘धर्मयुद्घ’ कहा जाता रहा है। जबकि विदेशी मुस्लिम आक्रांताअेां ने भारत में ही नही अपितु मध्य एशिया के अन्य देशों में भी वहां के लोगों के अधिकारों के हनन के लिए आक्रमण किये और उन्हें निर्ममता से कुचला। अत: उनकी शासन पद्घति केा उत्तम कहना अतार्किक है।
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था
हमारे यहां तो प्राचीनकाल से ही राजा के चयन की प्रक्रिया स्थापित रही है। डा. उदयशंकर पाण्डे अपनी पुस्तक ”प्राचीन भारत की राज्यव्यवस्था’’ में लिखते हैं-समिति द्वारा भी राजा का चुनाव किया जाता था। प्रजा श्रेष्ठ एवं सर्वसम्मति से निर्वाचित व्यक्ति को राजा के रूप में वरण करती थी। ऋग्वेद, अथर्ववेद (3/4/2) यजुर्वेद (1/6/6) एवं ब्राह्मण ग्रंथों में भी प्रजा द्वारा राजा के चयन की प्रणाली का उल्लेख मिलता है।
क्रूरता बनाम वीरता
इसलिए यह मानना कि विदेशी शासकों की शासन प्रणाली का उत्तम होना भी हमारी पराजय का एक कारण था-नितांत भ्रामक है। हां, वह प्रणाली अत्यंत क्रूर थी और क्रूरता से वह भारत की वीरता को परास्त करना चाहती थी। फलस्वरूप युद्घ क्रूरता और वीरता के मध्य था, नैतिकता और अनैतिकता में मध्य था।
जिसका सामना करने के लिए भारत की अंतश्चेतना सदा जागरूक रही। यदि विदेशियों की शासन पद्घति उत्तम एवं न्यायपरक होती तो भारत उसे अपना लेता। क्योंकि भारत की प्रवृत्ति और प्रकृति सीखने की और उत्तम गुणों को अपनाने की रही है।
लोककल्याण के प्रति शासकों की उदासीनता
हमारे राजपूत या हिंदू शासकों का लोककल्याण के कार्यों के प्रति उदासीनता के भाव को जहां तक उनकी पराजय का कारण मानने की बात है, तो इसके लिए हमें यह देखना चाहिए कि कभी भी किसी देशी शासक के विरूद्घ उसकी जनता ने विदेशियों का साथ नही दिया। शासकों में बहुपत्नीकता का दोष था, शासक कहीं उदासीनता को भी प्रदर्शित कर रहे होंगे, परंतु देश की जनता फिर भी उनके साथ थी। ऐसा कभी नही हुआ कि राजा युद्घ करता रहा और उसकी प्रजा ने धर्मपरिवर्तन कर उसे धोखा दे दिया हो। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण हंै कि जब राजा पराजित हो गया तो प्रजा ने कमान संभाल ली और विदेशियों को पावन भूमि भारत से बाहर खदेडऩे के लिए कृतसंकल्प हो उठे। अत: राजाओं के लोककल्याण के चारित्रिक पतन का शिकार हो जाने के उपरांत भी जनता का सहयोग उन्हें मिला। इस तथ्य को इतिहास में इसी प्रकार निरूपित करना चाहिए। हां, ये माना जा सकता है कि हमारे राजा जिन दोषों से ग्रस्त होते जा रहे थे उससे उनका पौरूष समाप्त हो रहा था और वे निरंतर पतनोन्मुख होते जा रहे थे। जैसे अहिंसा को भारतीय राष्ट्रधर्म ने प्रमुखता देना।
कूटनीति का वास्तविक अर्थ
विदेशी लेखकों ने कू टनीति को चालाकी और छल-कपट के अर्थों में प्रयुक्त किया है। उनके अनुसार भारत में आये विदेशी आक्रांता कूटनीतिज्ञ थे और भारतीयों में इनका अभाव था। वास्तव में भारत ने कूटनीति का अर्थ कभी इस अर्थ में लिया ही नही।
जिस देश में चाणक्य जैसे कूटिनीतिज्ञ अनेकों हो गये हों और जहां ‘विदुरनीति’ जैसी कितनी ही नीतियों के लिखने वाले हो गये हों वहां कूटनीति को ना समझने की बात कहना तो सर्वथा अनौचित्यपूर्ण ही है। हां, इतना अवश्य है कि हमारे शासक ‘सद्गुण विकृति’ का शिकार हुए और शत्रु के प्रति आवश्यकता से अधिक उदार बनने का प्रदर्शन करते रहे। वो भूल गये कि षठ की षठता का समूल उच्छेदन आवश्यक है, और युद्घ में शत्रु को समाप्त करना ही युद्घनीति का अंतिम उद्देश्य होता है। भारत की युद्घनीति के इस नियम पर सदगुण विकृति की जंग लग गयी और यह जंग लगी बौद्घ धर्म की अहिंसा वादी नीति की गलत व्याख्या के परिणाम स्वरूप। हमारे मंदिरों से राजभवन शासित होने लगे और वहां से कितनी ही बार राजाओं को धर्म भीरू बनने के उपदेश दिये जाने लगे। जिससे शास्त्र पूजा तो देश में बढ़ी पर शस्त्रपूजा कहीं बहत पीछे छूट गयी। इसी भाव के कारण सीमांत प्रदेशों की सुरक्षा के प्रति भी कई बार प्रमाद का प्रदर्शन किया गया।
अत: हम इस बात से तो सहमत हैं कि भारत के तत्कालीन हिंदू शासकों में अपने पूर्वजों की सी उच्चतम स्तर की बौद्घिक और यौद्घिक संपदा का अभाव था और उन्होंने उस बौद्घिक और यौद्घिक संपदा के उचित संरक्षण के लिए शास्त्र और शस्त्र का उचित समन्वय स्थापित करने में भी शिथिलता दिखायी, परंतु इस बात से असहमत हैं कि हमारे राजाओं और यहां की प्रजा में राष्ट्रीयता का अभाव था या परस्पर फूट थी। एकता और राष्ट्रीयता तो थी पर बार-बार के आक्रमण और हर वर्ष के आक्रमणों से देश के एक भाग पर अधिकार स्थापित करने में विदेशी आक्रांता सफल हो गया। बस इस कुछ भाग पर अधिकार कर लेने की घटना को ही ‘अश्वत्थामा मारा गया’ के शोर में सारे देश की स्वतंत्रता को विलुप्त करने का प्रयास किया गया है। पृथ्वीराज मर गया पर वह किसी दूसरे रूप में जीवित होकर फिर एक चुनौती बन गया। इसे पराजय कहेंगे या अंतिम विजय के लिए सतत संघर्ष का प्रवाह?