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विशेष संपादकीय वैदिक संपत्ति

मनुष्य का आदिम ज्ञान और भाषा-17

Lethal-4613गतांक से आगे…..
‘उदय अगस्त पंथजल सोखा’ यह तुलसीदास ने भी लिखा है। संभव है नहुष आकाशस्थ पदार्थों में से बादल ही हो। क्योंकि ऋग्वेद 10/49/8 में वह सप्ताहा-सात किरणों का मारने वाला कहा गया है। जो बादल के सिवा और कुछ नही हो सकता। महाभारत की कथा के अनुसार नहुष ने इंद्र का पद पाया अर्थात बादलों ने सूर्य को घेर लिया। परंतु अगस्ति ऋषि के तेज से वह जमीन पर गिर गया अर्थात अगस्ति तारा के उदय होते ही वर्षा ऋतु चली गयी। इससे स्पष्ट हो गया कि नहुष बादल है।
राजा ययाति
पुराणों में नहुष का लड़का ययाति लिखा हुआ है। इसका वर्णन भी आकाश से संबंध रखता है। इसकी एक रानी शुक्र की लड़की थी। ग्रहू वही शुक्र है जो आकाश में ग्रह है। दूसरी रानी वृषपर्वा की लड़की थी। यह वृषपार्वा बादलों के सिवा और कुछ नही है। ऋग्वेद में आया है कि-
अग्ने अंगिकरस्वत अंकिर ययातिवत (ऋग्वेद 1/31/17)
यहां कहा कि हे अग्ने! तुम अंगिरस की तरह हो और अंगिरस ययाति ही तरह है। ऐतरेय ब्राह्मण 3/34 में लिखा है कि ये अंगारा आसन से अंगिरसोअभवन अर्थात अंकार गी अंगिरस है। (ऋग्वेद 10/65/5)में भी है कि अंगिरस सूनवस्ते अग्ने अर्थात अंगिरस अग्नि के लड़के अंगार ही हैं।
ऊपर ययाति को अंगार की तरह बतलाया है और शुक्रग्रह की लड़की के साथ उसका विवाह बतलाया गया है। इससे स्पष्ट हो गया है कि ययाति भी कोई तारा है अथवा आकाश का कोई चमकीला पदार्थ। हमारी समझ में नही आता है कि इस आग्नेय आकाशस्थ पदार्थ को मनुष्य अथवा राजा कैसे बना दिया गया?
यदु, तुर्वशु, पुरू, द्रुहु और अनु
ये पांचों लड़के ययाति के हैं। ऊपर जो ययाति की दो रानियां बतलाई गयी हैं,उनमें एक से दो लड़के और दूसरी से तीन लड़के हुए, यह पुराणों में लिखा है। पर वेदों में इस बात का कहीं वर्णन नही है कि अमुक-अमुक का पुत्र था या पिता। वहां तो केवल ये शब्द आते हैं और उन शब्दों के जो वाच्य हैं उनका वर्णन आता है। हम यहां भी कुछ ऐसे मंत्र लिखना चाहते हैं, जिनमें उपरोक्त शब्द आते हैं और उन शब्द वाच्यों का वर्णन आता है।
यन्नासत्या परावति यदा स्थो अधि तुर्वशे।
1. अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभि:। (ऋ 1/47/7)
2. अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेव हवामहे (ऋ 1/36/18)
3. समुद्रं अति शूर पर्वि पारया तुर्वशं यदुं। (ऋ 1/174/9)
4. अंतरिक्षे पतथ: पुरूभुजा। (ऋ 8/10/6)
5. यदुषो यासि भानुना सं सूर्येण रोचसे। (ऋ 8/9/18)
6. हव्यवां पुरूप्रियम् (ऋ 1/12/2)
7. अनु प्रत्नस्यौकस: (ऋ 8/69/18)
8. पुरू रेतो दषिरे सूर्यश्वित: (ऋ 10/94/5)
9. इंद्रो मायाभि: पुरूरूप ईयते। (ऋ 6/47/18)
10. उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपति। इंद्रो विद्वां अपारयत्। (ऋ 10/30/17)
11. यदिन्द्राग्नी यदुषु तुर्वशेषु यद दद्रहुष्वनुषु पूरूषु स्थ:। (ऋ 1/108/8)
12. प्रातरग्नि पुरूप्रियो। (ऋ 5/18/1)
इन बारह मंत्रों में उक्त यदु, तुर्वश आदि पांचों के नाम और काम आ गये हैं। यहां मंत्रों का भाष्य नही करना, प्रत्युत उक्त शब्दों का भाव मात्र खोलना है। अत: क्रमश: संक्षेप से उनका भाव लिखते हैं-
1. जो विद्युत तुर्वश में है वह सूर्य की रश्मियों से आ गयी।
2. अग्नि से तुर्वश यदु को दूर करते हैं।
3. प्रकाश से तुर्वश यदु को पार करो।
4.अंतरिक्ष का रास्ता पुरू है।
5. यदु सूर्य के द्वारा आते हैं।
6. हुत पदार्थों को ले जाने वाले पुरू।
7. अनु का घर द्युलोक है।
8. पुरू सूर्य के आश्रित हंै।
9. इंद्र माया करके पुरू बन जाता है।
10. तुर्वश यदु को शचीपति इंद्र पार कर देना।
11. जो इंद्र और अग्नि, यदु तुर्वश, द्रहुयु, अनु और पुर में है।
12. प्रात:काल का हवन पुरू को प्रिय है।
क्या ऊपर के भावार्थ से यह समझ पड़ता है कि ये वर्णन मनुष्यों के हैं? यदि ऐसा हो तो समझना चाहिए कि हमारी बुद्घि हमको ही धोखा दे रही है। जिन पदार्थों का संबंध विद्युत सूर्य, रश्मि, अग्नि, आकाश, अंतरिक्ष, द्यौ, इंद्र, शची और अनेक आकाशस्थ पदार्थों से है, जो सूर्य की रश्मियों के द्वारा आते और हव्य ले जाते हैं, तथा जिन में विद्युत रहती है। क्या ऐसे पदार्थ मनुष्य हो सकते हैं? हमारी समझ में तो ये मनुष्य नही है। ज्योतिष के ग्रंथों में लिखा है कि ‘पौरो गुरू रविजा नित्यं शीता शुरा कंदा’ अर्थात बुध, गुरू और शनि ये सदा पौर हैं। पुरू से ही पौर होता है। इससे ज्ञात होता है कि ये कई नक्षत्र मिलकर यदु तुर्वश आदि कहलाते हैं। वेदों में इनका जो युद्घ वर्णित है वह युद्घ भी आकाशी है। सूर्यसिद्घांत अध्याय 7 में यह ग्रहयुद्घ वर्णित है। वहां लिखा है कि ‘ताराग्रहाणामन्योन्यं स्यातं युद्घसमागमौ’ अर्थात तारा और ग्रहों के परस्पर योग का नाम युद्घ है।
पुराणों ने इस नक्षत्र वंश के वर्णन को घसीट कर राजाओं के वर्णन के साथ मिला दिया है। परंतु प्रो. मैक डोनल ने अपनी  History of Sanskrit Literature में लिखा है कि ऋग्वेद में बार-बार कहे गये पुरू आदि पांचों वर्गों का ब्राह्मण ग्रंथों में नाम तक नही हैं। यदि ये इतने सरल अर्थ वाले ऐतिहासिक व्यक्ति होते तो ब्राह्मण ग्रंथों में इनका कुछ भी तो वर्णन होता, पर वहां जिक्र तक नही है। क्रमश:

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