उम्र के अनुरूप हो कामकाज
बदलती रहे काम की प्रकृति भी
– डॉ. दीपक आचार्य
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हर काम की अपनी उम्र होती है और हर प्रकार के काम के लिए भी उम्र विशेष होती है। हमारे रोजमर्रा के घरेलू काम-काज हों, सरकारी या गैर सरकारी नौकरी हो या फिर समाज और देश का कोई सा काम। प्रत्येक कर्म और व्यक्ति की सफलता के लिए जरूरी है कि उम्र का खयाल रखा जाए।
उम्र और कामकाज का बेमेल रिश्ता होने पर न इंसान सही रह सकता है, न कोई सा काम गुणवत्ता और उपादेयता दर्शा सकता है, और न ही व्यक्ति या कर्म की उपादेयता ही रह पाती है। कर्मयोग के मामले में उम्र बहुत बड़ा कारक होती है जो कामों की गति, अवधि और सफलताओं के साथ गुणवत्ता का हर पैमाना भी तय करती है।
कर्मयोग से जुड़ने से लेकर निवृत्ति तक की आवधिक गतिविधियों का मूल्यांकन किया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हर कर्म को
काम और आयु का सीधा संबंध है जो जीवन की हरेक गतिविधि को हर दृष्टि से प्रभावित करता है। कर्म कोई अच्छा-बुरा, सहज या कठिन नहीं होता बल्कि इसका संपादन पूरी तरह कत्र्ता की मनःस्थिति और शारीरिक अवस्था पर निर्भर होता है। कत्र्ता में जितना अधिक उत्साह, मनःशांति, गांभीर्य और मानसिक तथा शारीरिक सामथ्र्य होगा, उतना ही काम अच्छा होगा। चाहे फिर पर घर का काम हो या नौकरी-धंधों से जुड़ा कोई सा काम।
आयु की आरंभिक अवस्था में आदमी में जो मानसिक और शारीरिक ऊर्जा तथा उत्साह होता है वह उत्तरोत्तर मंद होता जाता है। कुछ मामलों में तो मानसिक तनाव, शारीरिक बीमारियां होने लगती हैं, कुछ मामलों मेंं घर-दुकान या ऑफिस में अनुकूल माहौल नहीं मिल पाता, कई बार हमारे साथ ऎसे कमीन, नालायक, विघ्नसंतोषी, बेईमान और भ्रष्ट लोग जुड़े जाते हैं जो न खुद काम करते हैं, न औरों को करने देते हैं।
कई बार हम कितना ही अच्छा काम करते रहें, प्रोत्साहन का अभाव होता है, कई मर्तबा ऎसा होता है कि हम अपने काम में कितने ही तल्लीन और दक्ष हों, मगर ऊपर वाले या हमारे कामों को देखने वाले, सामने वाले दुष्ट और आसुरी लोग हमें बर्दाश्त नहीं कर पाते, उल्टे हमें नुकसान पहुंचान के लिए दिन-रात साजिशें रचते रहते हैं और शर्मनाक दुर्भाग्य यह कि ऎसे लोगों को इनसे भी अधिक बेईमान और नाकारा लोगों का आत्मीय साथ, अक्षय प्रश्रय और संरक्षण मिल जाया करता है।
इन सभी स्थितियों में बेईमान और भ्रष्ट, स्वाभिमानहीन और नालायक लोग तो दुम हिलाऊ कल्चर को अपनाकर इन्हीं लोगों की पूँछ पकड़ कर वैतरणी पार कर लिया करते हैं और खुद भी सामने वालों के रंग में रंग जाया करते हैं। समस्या तो उन लोगों की होती है जो अपने सिद्धान्तों और आदर्शों की बलि चढ़ाने से हमेशा दूर रहते हैं और ऎसा किसी भी कीमत पर नहीं कर पाते।
हर व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक दस वर्ष की अवधि में काम का प्रकार परिवर्तित होना जरूरी है और ऎसा होने पर ही इंसान को जीवन जीने का सुकून प्राप्त हो सकता है। इसके बगैर एक ही प्रकार के कामों में जुटे रहने वाले लोगों में नीरसता और जड़ता आ जाती है तथा उत्साहहीनता का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इसी स्थिति को बोरियत और जड़ता भरी कहा जा सकता है।
ज्ञान और अनुभवों का भण्डार ज्यों-ज्यों बढ़ता चला जाता है, इंसान को उसके अनुरूप ही उच्चतर कार्यों का मिलना जरूरी होना चाहिए, ऎसा होने पर ही समय-समय पर परिवर्तित व नवीन कार्यों से ताजगी और उत्साह का संचरण होता रहता है और इंसान में जीवन जीने आनंद बहुगुणित होता रहता है।
कई लोगों को एक ही पद, एक ही भवन, एक ही सीट और एक ही प्रकार के काम करते-करते कभी आधी और कभी पूरी जिंदगी निकल जाती है। इन लोगों में आत्महीनता, निरूत्साह और जड़ता का आ जाना स्वाभाविक है। ऎसे ही लोगों में मानसिक एवं शारीरिक बीमारियां भी देखी जा सकती हैं और इनका सीधा असर उनके रोजमर्रा के कामों पर पड़ता है।
इन लोगों के कामों और स्थानों का परिवर्तन आयु के हिसाब से हो जाने पर इनकी जीवनीशक्ति और उत्साह को और अधिक बढ़ाया जा सकता है, जिसका लाभ संस्थान, व्यवसाय और समाज को ही प्राप्त होता है। सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों और कंपनियों, व्यवसायों, प्रतिष्ठानों आदि में इसीलिए समय-समय पर पदोन्नति और कार्यक्षेत्र परिवर्तन को अपनाया जाता है।
निरन्तर परिवर्तनीय और प्रोन्नति भरी व्यवस्था का लाभ संबंधित व्यक्तियों को तो मिलता ही है, संस्थाओं, कार्यालयों, विभागों, कंपनियों और व्यवसायाें को भी इसका पूरा-पूरा फायदा मिलता है और इसका अपरोक्ष फायदा समाज और देश को भी प्राप्त होता है।
इसलिए पद, स्थान और कार्य आदि सभी का समय-समय पर बदलना जरूरी है ताकि हर इंसान नवीन अवसरों का पूरे उत्साह के साथ उपयोग कर सके और उसकी जिन्दगी सुकूनदायी बन सके। इसमें सबसे बड़ा ध्यान इस बात का रखा जाना चाहिए कि हर इंसान को उसकी आयु के अनुरूप काम दिया जाए ताकि उसके ज्ञान और अनुभवों का भरपूर लाभ सभी को प्राप्त हो सके।
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