ढोंग और पाखण्ड ही है
पराये धन से समाज सेवा
– डॉ. दीपक आचार्य
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अपने यहाँ समाजसेवा वो सबसे बड़ा काम हो गया है जिसमें न कोई मूल्यांकन है, न परिणाम, और न ही किसी भी प्रकार के बंधन। अनन्त क्षेत्र पसरा है समाज की सेवा का, चाहे जिसमें हाथ आजमाते चलो, अपने फन आजमाओ और मस्त रहो।
समाजसेवा के क्षेत्र में जिस तरह असंख्यों लोग जुटे हुए हैं उन्हें देख यही लगता है कि हमारे देश में हर तरफ समाजसेवा का महाकुंभ बना ही रहता है। इसी अनुपात में समाजसेवा के अनन्त क्षेत्र भी हमारे यहां विद्यमान हैं।
इनके साथ ही सामाजिक चिंतक, समाजसेवी, सामाजिक कार्यकर्ता आदि कई सारे नाम भी सुशोभित हैं जो हर क्षेत्र में फबते रहे हैं। कोई इलाका ऎसा नहीं बचा है जिसमें अब इस किस्म के लोग नहीं हों। समाजसेवा के सारे आयामों में दो प्रकार के लोगों का वजूद बना हुआ है। एक वे
कई सारे लोग ऎसे हैं जिनके पास धन नहीं होता मगर तन और मन से सहभागिता निभाते हैं। जबकि ढेरों ऎसे हैं जिनके पास तन-मन और धन तीनों है मगर धन को छोड़कर इनका तन और मन ही समाजसेवा में लगा होता है।
एक किस्म ऎसी भी है जिसके पास कुछ नहीं है मगर औरों के धन का उपयोग करना अच्छी तरह जानते हैंं। जिनके पास धनाभाव है और जो लोग निष्काम भाव से पूरी ईमानदारी के साथ सामाजिक सेवा कार्य करते हैं उनकी बात अलग है मगर खूब सारे लोग ऎसे हैं जो समाज सेवा के नाम पर दिन-रात जाने कितने धंधों और गोरखधंधों में लगे हुए हैं और महान समाजसेवी के रूप में ख्याति प्राप्त करने की दौड़ में पागलों की तरह उतावले होते रहे हैं मगर इन लोगों से अपना एक पैसा कभी छूटता नहीं।
औरों को ये लोग नसीहतें जरूर दे डालते हैं कि अपना पैसा समाजसेवा में लगाएं, गौसेवा में लगाएं और धर्म में खर्च करें, मगर समाजसेवियों की यह किस्म ऎसी है कि अपना एक धेला भी खर्च करने से कतराते हैं।
इस किस्म के लोग पराये पैसों के बूते ही समाजसेवा के जाने कितनी तरह के आडम्बर रचते रहे हैं और अपने क्षेत्र में खूब लोकप्रियता भी बटोर लिया करते हैं। अपने यहां भी ऎसे लोगों की खूब भरमार हैं जो कभी धर्म के नाम पर, कभी समाजसेवा के नाम पर, कभी गौसवा के नाम पर, तो कभी किसी उत्सव,पर्व और त्योहार के नाम पर, औरों से पैसा निकलवाने में सिद्ध हो गए हैं।
इन लोगों के बारे में तलाश की जाए तो यह नंगा सच सामने आ ही जाता है कि ये अपनी ओर से कोई पैसा किसी सामाजिक सेवा कार्य में नहीं लगाते,बल्कि जिंदगी भर धन जमा करने के ही आदी रहते हैं। दूसरों को नसीहतें देने में माहिर इस किस्म के कृपण लोगों के हाथ से एक पैसा तक समाजसेवा के लिए नहीं छूटता। ऎसे में यदि यह कहा जाए कि इनकी समाजसेवा अपने आप में पाखण्ड है तो कोई बुराई नहीं होगी।
समाज सेवा अपने आप में वह विराट अर्थ वाला शब्द है जिसकी बुनियाद त्याग-तपस्या और परोपकार पर टिकी हुई है ऎसे में जो समृद्ध लोग अपनी ओर से समाज सेवा के लिए पैसे निकालने से कतराते हैं, दूसरों की जेब खाली करने की महारथ रखते हैं, वे सच्चे समाजसेवी नहीं हो सकते क्योंकि न वे निष्काम हैं,न त्यागी और तपस्वी।
असली समाजसेवी वही हो सकता है जिसमें संग्रह की भावना समाप्त हो जाए तथा समाज के लिए जीने-करने और सर्वस्व त्याग करने की भावनाएं कूट-कूट कर भरी हों। पराये पैसों से समाजसेवा के आडम्बर करना तो पाखण्ड ही है।
अपने आस-पास ऎसे लोगों को देखें जो समाजसेवा के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, डींगें हाँकते हैं, फोटो और समाचारों के भूखे हैं और अपने आपको समाजसेवी के रूप में पूजवाना चाहते हैं, उन सभी के बारे में तलाश करें कि इनमें से कितने लोेग ऎसे हैं जो किसी भी प्रकार की समाजसेवा के काम में अपनी ओर से कितना पैसा लगाते हैं।
कुछ लोगों का तो धंधा हो गया है और कई सारे लोग ऎसे हैं जो समाजसेवा को धंधा ही बनाये हुए हैं। जो लोग सक्षम होते हुए भी समाजसेवा में अपना पैसा लगाने से कतराते हैं वे सारे के सारे ढोंगी, पाखण्डी और नालायक हैं।
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