लेखक:- डॉ. मुरली मनोहर जोशी
(लेखक पूर्व केद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री हैं)
कालगणना की युगपद्धति अथवा कल्पपद्धति हमारे देश के व्यावहारिक जगत् में बहुप्रचलित एवं सर्वमान्य थी। तब प्रश्न यह उठता है कि मानव के पृथ्वी पर प्रादुर्भाव के इतने पूर्व की कालगणना का आधार क्या था? कल्पारंभ से गणना करना अथवा उसका हिसाब रखना संभव न हो सकने के कारण युगपद्धति की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं, परन्तु हमारे देश के गणितज्ञ एवं ज्योतिषी इस पद्धति का उल्लेख दीर्घकाल से करते चले आ रहे हैं।
भारतीय पौराणिक साहित्य में श्रीमद्भागवत का महत्व सर्वाविदित है। इस ग्रंथ में कुछ दार्शनिक एवं वैज्ञानिक सिद्धांतो को अन्य कथाओं के साथ-साथ इस सुघड़ता से पिरोया गया है कि व्यास जी के कौशल के समक्ष नतमस्तक होना पड़ता है। एक ऐसा ही महत्वपूर्ण अवबोध है काल। श्रीमद्भागवत पुराण में अनेक स्थलों पर इसके संबंध में दार्शनिक एवं वैज्ञानिक मीमांसा विस्तृत रूप से प्रस्तुत की गयी है। महत्वपूर्ण यह है कि काल जैसे जटिल तत्व के विषय को भी इतने सरल ढंग से लिख दिया है कि सामान्य पाठक अथवा श्रोता कथापट के ताने-बाने में गुंथे उसके अद्भुत सौंदर्य को उसी सहज रूप में ग्रहण करता चलता है मानो वह श्रीकृष्ण की लीला का ही अमृतपान कर रहा हो। यद्यपि काल एवं उसके स्वरूप की दार्शनिक चर्चाओं के उल्लेख श्रीमद्भभागवत में अनेक स्थलों पर किये गये हैं, तथापि दो प्रसंग ऐसे हैं जिनके द्वारा काल एवं पदार्थ के सूक्ष्म एवं महान रूप से संबंधित गंभीर जिज्ञासाएं की गयी हैं। इस प्रसंगों के अवलोकन से यह भी विदित होता है कि पौराणिक ग्रन्थों में इस दोनों तत्वों की वैज्ञानिक अवधारणाएं कितने उच्च धरातल को स्पर्श करती हैं।
श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध के आठवें अध्याय में राजा परीक्षित ने शुकदेव मुनि से विविध प्रश्न किये हैं। इस अध्याय के बारहवें एवं तेरहवें श्लोक में वे पूछते हैं कि महाकल्प एवं उनके अवांतर कल्प कितने होते हैं? भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल का अनुमान कैसे किया जाता है? तथा काल की अण्वी (सूक्ष्म) एवं बृहत (महान) गतियां किस प्रकार जानी जा सकती हैं? इसी प्रकार तृतीय स्कंध के दसवें अध्याय के दसवें श्लोक में विदुर जी मैत्रेय जी से कहते हैं, आपने श्रीहरि की जिस काल नामक शक्ति का उल्लेख किया था, उसका विस्तार से वर्णन कीजिए। मैत्रेय ऋषि ने अगले दो श्लोकों में तो इतना ही उत्तर दिया है कि त्रिगुणात्मक पदार्थ का रूपांतर करना ही काल का आकार है, स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि एवं अनंत है। अव्यक्तमूर्ति काल को ही उपादान बनाकर सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। परन्तु इसी स्कंध के ग्यारहवें अध्याय में मन्वंतरादि काल विभाग का वर्णन करते हुए जिस विस्तार से उन्होंने परमाणु, ब्रह्मांड राशियों, सूक्ष्म एवं परम महान काल को व्याख्यायित किया है, उसे चमत्कारिक ही कहा जायेगा।
इस अध्याय में मैत्रेय जी विदुर जी को बताते हैं कि जो काल पदार्थ की परमाणु जैसी सूक्ष्म अवस्था में व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म (परमाणु काल) है और जो सृष्टि से प्रलय पर्यत उसकी सब अवस्थाओं का भोग करता है, वह परम महान है। वे आगे कहते हैं, उसे परमाणु कहते हैं। यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, उस पदार्थ की समग्रता का नाम परम महान है। पदार्थ के इस सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरूप के सादृश्य से परमाणु आदि अवस्थाओं में व्याप्त होकर पदार्थों को भोगनेवाले सृष्टि करने में समर्थ काल की भी सूक्ष्मता और स्थूलता (महानता) का अनुमान किया जा सकता है।
इसके पश्चात् यह बतलाया गया है कि दो परमाणु मिलकर एक अणु बनाते हैं तथा तीन अणु मिलकर एक त्रसरेणु का निर्माण करते हैं। त्रसरेणु के आकार की कल्पना देते हुए मैत्रेय जी कहते हैं, त्रसरेणु किसी द्वार की झिर्री में से आयी हुई सूर्य की किरणों के प्रकाश में उड़ता देखा जा सकता है। ऐसे तीन त्रसरेणुओं को भोग करने में जितना समय लगता है, उसे त्रुटि कहते हैं। इससे सौ गुना काल वेध कहलाता है और तीन वेध का एक लव होता है। तीन लव को एक निमेष एवं तीन निमेष को एक क्षण कहते हैं। पांच क्षण की एक काष्ठा और पंद्रह काष्ठा का एक लघु होता है। पंद्रह लघु की एक नाडि़का होती है तथा एक मुहूर्त में दो नाडि़काएं होती है। मैत्रेय जी यह भी कहते हैं कि दिन के घटने-बढऩे के अनुसार छ: या सात नाडि़का का एक प्रहर होता है, जो मनुष्य के दिन या रात का चौथा भाग होता है तथा जिसे याम भी कहते हैं। चार-चार प्रहर के दिन और रात होते हैं और पंद्रह दिन-रात का एक पक्ष। पक्ष दो होते हैं – शुल्क एवं कृष्ण। दो पक्षों का एक मास होता है, जो पितरों का एक दिन-रात है। दो मास की एक ऋतु तथा छ: मास का एक अयन होता है, जिसके उत्तरायन एवं दक्षिणायन दो भेद हैं। दोनों अयन मिलाकर मनुष्यों का एक वर्ष किंतु देवताओं का एक दिन-रात होता है। ऐसे सौ वर्ष की मनुष्य की परमायु बतायी गयी है तथा मैत्रेय जी यह भी कहते हैं कि हे विदुर जी, देवताओं के बारह सहस्र वर्ष से एक चतुर्युगी होती है, जिनमें सत्युग में चार, त्रेता में तीन, द्वापर में दो तथा कलियुग में एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं। जिस युग में जितने सहस्र दिव्य वर्ष, उससे दोगुने सौ वर्ष उनकी संध्या एवं संध्यांशों में होते हैं। इस प्रकार कलियुग में बारह सौ दिव्य वर्ष या चार लाख बत्तीस हजार मानव वर्ष हुआ करते हैं।
ब्रह्मा जी के दिन और रात की चर्चा करते हुए मैत्रेय जी ने कहा है प्यारे विदुर जी, त्रिलोकी से बाहर महर्लोक से ब्रह्मलोक पर्यत भूलोक की एक सहस्र चतुर्युगी के बराबर एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात होती है। ब्रह्मा जी का एक दिन एक कल्प कहलाता है। ब्रह्मा जी की परमायु ब्रह्मलोक के सौ वर्षो के तुल्य होती है जिसका आधा भाग परार्ध कहलाता है। अब तक पहला परार्ध व्यतीत हो चुका है। यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनादि विश्वात्मा का एक निमेष माना जाता है। सामान्य रुप से त्रुटि से लेकर द्विपरार्ध पर्यंत फैला हुआ काल सर्व समर्थ होने पर भी सर्वात्मा पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता।
मैत्रेय जी इतने पर भी संतुष्ट नही हुए। वे सृष्टि की विशालता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि प्रकृति महत्तत्व आदि से निर्मित यह ब्रह्मांड-कोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस गुने सात आवरण हैं। उन सबके सहित यह जिसमें परमाणु के समान पड़ा हुआ दिखता है और जिसमें ऐसी करोड़ों ब्रह्मांड राशियां हैं, वही परमात्मा का श्रेष्ठ रूप है। इस प्रकार,भागवतकार के शब्दों में परमाणु से लेकर अपरिमित विस्तारवाली सृष्टि का व्याप तथा त्रुटि से लेकर दो परार्ध जिसका निमेष है, ऐसे परमकाल का रूवरूप पदार्थ एवं काल के संदर्भ में सूक्ष्म एवं परम महान की परिकल्पनाओं का दिग्दर्शन कराता है।
उपरोक्त वर्णन में जहां परमाणु, अणु, त्रसरेणु, ब्रह्मांड राशियां सूक्ष्म काल, महत्वकाल, काल के लोक सापेक्ष या विभिन्न लोकों का समय भिन्न होने जैसे वैज्ञानिक अवबोधों का विवेचन है, कालगणना की युग पद्धति का उल्लेख है, वहां कुछ राशियों के माप भी दिये गये हैं। भागवतकार द्वारा त्रुटि काल का सूक्ष्मतम माप बताया गया है और यदि दिन-रात का काम चौबीस घंटे मानकर गणना की जायें, तब त्रुटि का कोटिमान 10-4 या 10-3 सेकंड के तुल्य उपलब्ध होगा। आधुनिक अत्यंत सुग्राही तकनीकवाले कुछ कैमरों के शटर की गति इसी कोटि की होती है। काल का परार्धमान, जो महतकाल का प्रारंभिक छोर कहा जा सकता है (क्योंकि संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त काल के संदर्भ में परार्ध को एक निमिष मात्र कहा गया है), उस रचना की परम आयु बतायी गयी है, जिसके हम अंग हैं। श्रीमद्भागवत में बताये गये कालमान के अनुसार परार्ध का कोटिमान 10-22 सेकंड के सन्निकट होता है। द्रष्टव्य है कि सृष्टि-संबंधी एक आधुनिक सिद्धांत के आधार पर किये गये वैज्ञानिक आकलन से सूर्य का अपेक्षित जीवनकाल 10-18 सेकंड के आस-पास अनुमानित है। हम जानते हैं कि सूर्य से ही पृथ्वी पर जीवन है और सूर्य के विनाश के पश्चात् पृथ्वी या हमारे अस्तित्व की कल्पना असंभव है। सृष्टि-वैज्ञानिकों के एक दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार तारामंडलों की ऐसी टक्कर, जिसमें हमारे सौरमंडल के सदस्य ग्रह टूटकर बिखर जाये 1015 या 1022 वर्ष में होती है। इस सिद्धांत के अनुसार भी हमारे सौरमंडल का जीवन काल 1015 वर्ष या परार्ध के लगभग है। अत: परार्ध हमारे सौरमंडल के आयुष्य की सीमा का द्योतक है।
इसी प्रकार यदि एक योजन को आठ मील के बराबर मानकर गणना करें, तब ब्रह्मांड कोश का परिणाम लगभग सत्तर करोड़ किलोमीटर के सन्निकट होगा। यह भागवतकार के मत में नेत्रगोचर जगत का आहार है। आधुनिक खगोलशास्त्री हमें बताते हैं कि एंड्रोमीडा नामक निहारिका, जिसकी मंद संदीप्त बस कठिनाई के कोरी आंखों द्वारा देखी जा सकती है, हमसे लगभग 1018 किलोमीटर दूर है। इसके अतिरिक्त अन्य किसी मंदाकिनी के नेत्रों से दर्शन संभव नहीं हुए हैं। यह कितना सुखद आश्चर्य है कि दृश्य जगत् के जिस विस्तार का वर्णन श्रीमद्भागवत में किया गया है, वह अधुनातन प्राप्त तथ्यों से काफी मेल खाता है।
श्रीमद्भागवत में पदार्थ के सूक्ष्मतम अंश परमाणु का आकार नहीं बताया गया है। क्योंकि इसे सूक्ष्मतम अंश कहा गया है, अत: इसका और आगे विभाजन संभव नहीं है। सूक्ष्मतम होने के कारण वह इंद्रियातीत या अगोचर है, अत: वह मेय (मापने योग्य) नहीं है। यही कारण है कि परमाणु में व्याप्त काल का मापन संभव नहीं होगा। अत: सूक्ष्मकाल की मेय सीमा पदार्थ के सूक्ष्मतम नेत्रगोचर आकार में व्याप्त काल की मात्रा होगी। व्यासजी ने इस कण को त्रसरेणु के रूप में परिभाषित किया है, पर इसका परिमाप ज्ञात करने का कोई युक्तिसंगत सूत्र पुस्तक में उपलब्ध नहीं होता है। लेकिन यह समझना तो कठिन नहीं है कि भले ही भागवतकार को त्रसरेणु के यथार्थ परिमाप का ज्ञान न हो, पर नेत्रों से देखे जा सकने वाले सूक्ष्मतम कण के रूप में उसने त्रसरेणु की परिकल्पना अवश्य प्रस्तुत की थी और उसने यह भी बताया कि त्रसरेणु विभिन्न अणुओं के संयोग से बनता है। पदार्थ की आण्विक सरंचना (मॉलिक्यूलर स्ट्रक्चर) का यह वैज्ञानिक अवबोध अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा भागवतकार की पदार्थ सरंचना संबंधी वैज्ञानिक दृष्टि का उन्मीलन करता है।
अब हम कालगणना की युगपद्धति अथवा कल्पपद्धति पर भी थोड़ा विचार करें। इस पद्धति का प्रचलन आज भी भारत में है। पूजा, अनुष्ठान या धार्मिक आयोजनों में संकल्प धारण करते समय इसी पद्धति का अनुसरण किया जाता है। मनुस्मृति एवं महाभारत में तो इसका उल्लेख है ही, तैत्तिरीय संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्माण में भी चारों युगों के नाम पाये जाते हैं। एतरेय ब्राह्मण की हरिश्चन्द्र एवं रोहिताश्व की वह कथा तो सर्वविदित ही है, जिसमें कहा गया है कि सोनेवाला कलि, बैठनेवाला द्वापर एवं उठनेवाला त्रेता होता है। चलनेवाला होने के कारण कृत संपन्न होता है। अत: हे रोहित, चलते रहो, चलते रहो। ऋग्वेद में भी युगों का उल्लेख अनेक स्थलों पर किया गया है, यद्यपि यह कहना कठिन है कि उसमें वर्णित युग में इतने ही वर्ष होते थे जितने कि स्मृति ग्रंथों के अनुसार या श्रीमद्भागवत में वर्णित विभिन्न युगों में हैं। अत: यह तो निर्विवाद है कि कालगणना की युगपद्धति अथवा कल्पपद्धति हमारे देश के व्यावहारिक जगत में बहुप्रचलित एवं सर्वमान्य थी। तब प्रश्न यह उठता है कि मानव के पृथ्वी पर प्रादुर्भाव के इतने पूर्व की कालगणना का आधार क्या था? कल्पारंभ के समय से ही गणना करना और उसका अभिलेख रखना तो संभव नहीं लगता। सृष्टि के प्रथम दिन का साक्षी कौन है? शायद प्रजापति ही हों तो हों, मत्र्य तो कोई हो ही नहीं सकता। कल्पारंभ से गणना करना अथवा उसका हिसाब रखना संभव न हो सकने के कारण युगपद्धति की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं, परन्तु हमारे देश के गणितज्ञ एवं ज्योतिषी इस पद्धति का उल्लेख दीर्घकाल से करते चले आ रहे हैं।
भारतीय ज्योतिर्विदों में आर्यभट की ऐतिहासिकता तो निर्विवाद है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ आर्यभटीय में उन्होंने अपनी जन्मतिथि का उल्लेख करते हुए कहा है कि साठ वर्षों की साठ अवधियां तथा युगों के तीन पाद व्यतीत होने पर जन्म के तेईस वर्ष पूरे हो चुके थे। इसके अनुसार कलियुग के 3600 वर्ष पूरे हो चुकने पर आर्यभट तेईस वर्ष पूरे हो चुके थे। अत: कम से कम आर्यभट के समय तक 499 ई. कलियुग के प्रारंभ से कालगणना करने का प्रचलन था। आर्यभट ने यह भी कहा है युग, वर्ष, मास, दिवस सभी का प्रारंभ एक ही समय से हुआ है। काल अनंत एवं अनादि है, ग्रहों के आकाश में गमन करने से उसका अनुमान किया जा सकता है। प्राचीन भारतीय ज्योतिष ग्रंथों एवं पंचांगों में कलियुग के प्रारंभ के समय की ग्रहस्थिति का उल्लेख किया जाता है। उन लोगों को यह मान कैसे प्राप्त हुए? या तो उन्होंने प्रत्यक्ष निरीक्षण वेध द्वारा इन स्थितियों को देखा या गणित की सहायता से प्राप्त किया। यह भी जानना रोचक होगा कि ये मान किस सीमा तक शुद्ध हैं? आधुनिक खगोलशास्त्र तो इतना विकसित हो चुका है कि इन तथ्यों की जांच सरलता से की जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि इस प्रश्न पर आधुनिक खगोलशास्त्रियों का ध्यान नहीं गया। इस संबंध में जॉन प्लेफेयर एफ.आर.एस. के एडिनबरो रॉयल सोसायटी के ट्रांजेक्शंस सन् 1790 की द्वितीय पुस्तक, खंड एक, पृष्ठ 135 से 192 में प्रकाशित शोध लेख रिमाक्र्स ऑन द ऐस्ट्रोनोमी ऑफ ब्राह्मिंस द्रष्टव्य है। इस लेख में भारतीय ब्राह्मणों द्वारा प्राप्त कुछ खगोल सारणियों या पंचांगों की विस्तृत समीक्षा की गयी है। जॉन प्लेफेयर महोदय ने अपने लेख में एक फ्रेंच विद्वान द्वारा स्याम (थाइलैंड) से 1687 में लायी गयी एक पांडुलिपि एवं ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत से प्रेषित तीन खगोल सारणियों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। ये पंचांग नरसापुर एवं कर्नाटक के कृष्णपुरम से 1750 ई. में तथा कोरोमंडल तट पर स्थित तिरुवलूर नामक स्थान से 1772 में भेजे गए थे। विद्वान प्रोफेसर का कथन है कि भारतीय खगोलशास्त्र में इतनी परिशुद्धता विद्यमान है, जो इसके उद्गम एवं प्राचीनता संबंधी समस्त शंकाओं का निवारण करने में सक्षम है और इस शास्त्र को किसी भी दृष्टि से (अन्य देशों के) उस प्राचीन ज्ञान की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जो मात्र अटकलबाजी या पौराणिक गाथाओं से अधिक कुछ नहीं कहे जा सकते ।
इस पांडित्यपूर्ण लेख में विभिन्न खगोलशास्त्रियों के अभिमतों की विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए विद्वान लेखक ने कहा है कि भारतीय ज्योतिष के बारे में विवेचित तर्को एवं साक्ष्य के आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि उन प्रेक्षणों के मान, विशेषकर तिरुवलूर पंचांग में वर्णित कलियुगारंभ की सूर्य एवं चंद्र की स्थिति, जिन पर भारतीय खगोलशास्त्र आधारित है, ईस्वी संवत् से प्रारंभ होने के तीन हजार वर्ष से भी कहीं पहले वास्तविक निरीक्षण (वैध) द्वारा निर्धारित किये गये थे। प्लेफेयर ने यह भी कहा है कि प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्र में वर्णित दो तत्वों, प्रथम – सूर्य की मध्यम स्थिति साधन करने का संस्कार जिसे आधुनिक खगोलशास्त्र में सूर्य के केन्द्र का समीकरण कहते हैं तथा द्वितीय – क्रांतिवृत्त की तिर्यकता की तुलना, जब आधुनिक काल के इन दोनों तत्वों से की जाती है, तब वे भारतीय ज्योतिषशास्त्र के और अधिक प्राचीन होने का संकेत करते हैं। और तब यह स्वीकार करना पड़ता है कि भारत में इस शास्त्र का उद्गम ईसा से कम से कम 4300 वर्ष पुराना है, क्योंकि कलियुग के प्रारंभ की ग्रहस्थिति का इतना शुद्ध निर्धारण करने योग्य वेधकौशल विकसित होने में 1000 या 1200 वर्ष से कम तो क्या लगेंगे।
यह एक महत्वपूर्ण अभिलेख है, जो भारतीय खगोलशास्त्र की प्राचीनता, वैज्ञानिकता आदि सिद्ध करते हुए कलियुग के प्रारंभ को ज्योतिषशास्त्र के बलवान साक्ष्य के आधार पर निर्धारित करता है। इस प्रकार कलियुगारंभ से कालगणना की वैज्ञानिक संभावनाओं के संकेत तो मिलते हैं, पर कल्पारंभ अथवा परार्ध के प्रारंभ से जिस कालगणना का उल्लेख भागवत में किया गया है, उसकी वैज्ञानिकता के विषय में अभी कुछ कह पाना कठिन है। परन्तु अधिक अनुशीलता एवं अनुसंधान की आवश्यकता को नकारा नहीं जाना चाहिए। इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हुए प्रसिद्ध प्राच्यविद् डॉ. गोविंदचंद्र पांडे ने श्री के.डी. सेठना की पुस्तक प्रागैतिहासिक भारत में कपास की समीक्षा करते हुए लिखा है कि प्राचीन भारतीय साहित्य की रचना का कालनिर्णय करते समय उन ग्रंथों में उपलब्ध ज्योतिषीय साक्ष्य की अकारण ही उपेक्षा कर दी जाती है।
विचारणीय है कि श्रीमद्भागवत का मुख्य विषय गणित, विज्ञान किंवा खगोलशास्त्र नहीं है, उसकी रचना का उद्देश्य तो सर्वमान्य में कर्म,ज्ञान,भक्ति मर्यादामार्ग, अनुग्रहणमार्ग, द्वैत, अद्वैत, अद्वैताद्वैत आदि के लिए समन्वयमूलक दृष्टि विकसित करना प्रतीत होता है। ऐसे ग्रंथों में उच्चस्तरीय वैज्ञानिक अवधारणाओं का समावेश एक नयी जिज्ञासा उत्पन्न कर देता है। द्रष्टव्य है कि श्रीमद्भागवत का श्रवण किसी वर्ण अथवा लिंग के आधार पर प्रतिबंधित नहीं था। पद्मपुराण में भागवत सप्ताह में आमंत्रित श्रोताओं के बैठने की जो व्यवस्था बतायी है, उसमें सभी वर्णो के लिए बैठने के उचित स्थान का प्रबंध करने का निर्देश दिया गया है। क्या इससे तत्कालीन भारतीय समाज के बौद्धिक स्तर का अनुमान नहीं लगता? सामान्यत: कोई भी ग्रंथकार सर्वसाधारण के लिए लिखी पुस्तक में ऐसी बातें नहीं लिखेगा, जिन्हें पाठकों अथवा श्रोताओं का बहुसंख्यक वर्ग बिल्कुल ही न समझ पाये। जो भी हो, धर्म एवं विज्ञान का ऐसा समन्वय भारत के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है।
प्राचीन भारतीय वाड्मय का इस दृष्टि से भी अनुशीलन आवश्यक है कि उनमें समाविष्ट वैज्ञानिक अवबोधों के आधार पर तत्कालीन समाज की स्थिति का आकलन किया जा सके। इस तथ्य की भी खोज की जानी चाहिए कि कहीं विभिन्न मत-मतांतरों के समन्वय के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टि का विकास करना भी भागवत के रचनाकार का उद्देश्य तो नहीं था? कुल मिलाकर भागवतकार ने सृष्टि-वैचित्रय को सरल, सुस्पष्ट एवं सुलझी दृष्टि से देखते हुए उसके जटिल रहस्यों का उन्मीलन करते हुए सर्वजन सुलभ, सरस एवं प्रवाहमान भाषा में काव्यात्मक कौशल के साथ दर्शन, विज्ञान, भक्ति, कर्म एवं ज्ञान के पंचतत्वों से एक अद्भुत कथावस्तु का सृजन कर दिखाया है।
✍🏻साभार- भारतीय धरोहर पत्रिका