प्रेम के कारण हरि सुनै,भक्तों की अरदास
प्रेम ही श्रद्घा प्रेम समर्पण,
पे्रम बसै विश्वास।
प्रेम के कारण हरि सुनै,
भक्तों की अरदास ।। 603।।
रिश्ते प्रेम से ठहरते,
बिना प्रेम कुम्हलाय।
प्रेम नीर की बूंद तै,
पुनि-पुनि ये मुस्काय ।। 604।।
प्रेम जीवन का प्राण है,
प्रेम में है आनंद।
प्रेम तत्व से ही मिलै,
पूरण परमानंद ।। 605।।
प्रेम तत्व के सूत्र में,
बंधा हुआ संसार।
जीवन रस तो प्रेम है,
बिना प्रेम के भार ।। 606।।
घृणा क्रोध अशांति,
मैं का नही स्वभाव।
प्रेम प्रसन्नता शांति,
मैं का मूल स्वभाव ।। 607।।
प्रेम-शिखा में संग थे,
मैं और मेरा यार।
शिखा-यार दोनों गये,
जब आया अहंकार ।। 608।।
मित्र की दृष्टिï से देख तू,
यह सारा संसार।
वैसा ही तुम पाओगे,
जैसा किया व्यवहार ।। 609।।
इसीलिए वेद कहता है :-
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।
यश धन भक्ति से मिलें,
और दिव्य गुणों की खान।
भक्ति से ज्ञान और बल मिलें,
दर्शन दें भगवान ।। 610।।
मुझे नही कुछ चाहिए,
प्रभु तू रहना प्रसन्न।
तेरे चरणों में रमे,
मेरा चंचल मन ।। 611।।
परमपिता परमात्मा सर्वदा तीन बातों से प्रसन्न रहते हैं-सत् चर्चा सतचिंतन और सत्कर्म। सूक्ष्म भाव यह है कि जिनका जीवन उपरोक्त तीन बातों से ओत-प्रोत होता है, परमपिता परमात्मा ऐसे सदाचारी व्यक्ति से स्वत: ही प्रसन्न रहते हैं। इसलिए कवि ने विशेष बल देते हुए और परम पिता परमात्मा की प्रसन्नता को दृष्टिïगत रखते हुए कहा है कि हे प्रभु! मैं संसार का धन वैभव अथवा ऐश्वर्य का याचक नही हूं। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मेरी सामथ्र्य और सोच को ऐसी दिशा और गति दीजिए जिससे आपकी प्रसन्नता का पात्र हमेशा रहूं, कोप का भाजन कभी न बनूं। क्रमश: