किसी भी प्रकार की राजनीतिक सांप्रदायिकता के नहीं, राष्ट्र के समर्थक बनो
हमारे देश में ऐसे बहुत लोग हैं जो इस बात में विश्वास रखते हैं कि ”मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” – इस प्रकार के ये लोग ‘तोता रटन्त’ की भांति इस पंक्ति को रट चुके हैं । लेकिन जब धर्म और राजनीति को एक साथ चलाने की बात की जाती है तो यही लोग उछलकर सामने आते हैं और कहते हैं कि राजनीति और धर्म का अर्थात मजहब का कोई मेल नहीं है । अब इनसे कौन पूछे कि यदि मजहब आपस में बैर रखना नहीं सिखाता या प्रेम प्रीत सिखाता है तो क्या राजनीति आपस में बैर रखना सिखाती है ? जो दोनों एक साथ नहीं बैठ सकते । और यदि दोनों आपस में बैर ना रखने की सीख देते हैं या ऐसा परिवेश सृजित करने में विश्वास रखते हैं जिसमें मानवतावाद विकसित हो तो दोनों को एक साथ काम करने क्यों नहीं दिया जाता ?
वास्तव में राजनीतिक पूर्वाग्रह और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों के कारण देश कॉंग्रेस व सपा सहित कई तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल ऐसे हैं जो केवल अपनी पूर्वाग्रहग्रस्त मान्यताओं पर अड़े रहते हैं । ये दल इस्लाम की उन मान्यताओं पर प्रहार करने को भी किसी व्यक्ति का पूर्वाग्रह घोषित कर देते हैं जिनसे मानवतावाद को संकट उत्पन्न हो सकता है या जिनके कारण अतीत में देश को अतीव पीड़ा का सामना करना पड़ा है या जिनके कारण आज भी सामाजिक परिवेश शांतिपूर्ण नहीं बन पाता है।
अब खबर आ रही है कि पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह प्रांत के करक ज़िले में हिंदू संत श्री परम हंस जी महाराज की ऐतिहासिक समाधि को स्थानीय लोगों की एक क्रुद्ध भीड़ ने ढहा दिया है। इस घटना को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के समर्थक इस दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करेंगे कि यह तो कुछ पागल लोगों का तात्कालिक विरोध मात्र था, इसका किसी मजहब की किसी प्रकार की मान्यताओं से कोई लेना देना नहीं है । ऐसी सोच के साथ यह इस घटना को भुला देने का प्रयास करते दिखाई देंगे और इस बात पर कभी सहमत नहीं होंगे कि ”मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना।” इसके विपरीत यही कहते रहेंगे कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। यदि आपस में बैर रखना मजहब नहीं सिखाता तो यह ‘लव जिहाद’ यह इस्लाम के नाम पर दर्जनों आतंकी संगठन और गैर मुस्लिमों की महिलाओं, बेटियां, बहनों के साथ हो रहे अमानवीय अपराध सब क्यों चल रहे हैं ? क्यों आतंकवादी ऐसा कहते पाए जाते हैं कि यदि एक हिंदू औरत को गर्भवती किया जाए तो उससे जन्नत का सुख मिलता है?
वास्तव में यह सब कुछ आज से नहीं बल्कि इस्लाम के जन्म काल से होता आ रहा है और हिंदू है कि सब कुछ जानकर भी खतरा की ओर से उसी प्रकार आंखें बंद किए हुए हैं जैसे कबूतर आती हुई बिल्ली को देखकर आंखें बंद करके बैठ जाता है। 712 ई0 में जब मोहम्मद बिन कासिम यहां आया था तो उस समय से हिंदुस्तान अर्थात भारतीय उपमहाद्वीप आग लगाने की ऐसी घटनाओं को देखता आ रहा है जेसी अभी पाकिस्तान के उपरोक्त जिले में हुई है। 712 ई0 से लेकर अब 2021 आ चुका है और हम देख रहे हैं कि यह घटनाएं जैसी 712 ई0 या उससे पहले हो रही थीं वैसे ही आज भी यथावत चल रही हैं । पाकिस्तान के करोड़ों हिंदू समाप्त कर दिए गए, बांग्लादेश में भी निरंतर समाप्त किए जा रहे हैं । कश्मीर से हिंदुओं को भगा दिया गया, आसाम में हिंदुओं को उजाड़ कर इस्लाम का प्रचार प्रसार किया जा रहा है । बांग्लादेश को विस्तार देकर बंगाल ,उड़ीसा, बिहार को लेकर वृहत बंगाल बनाने की योजना पर काम किया जा रहा है, पूरे उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा ,राजस्थान के कुछ भाग और दिल्ली सहित भारत के इस बड़े भाग को लेकर मुगलिस्तान बनाए जाने की तैयारी हो रही है। हरियाणा के मेवात से 100 से अधिक गांवों को हिंदूविहीन कर दिया गया है, केरल में एक सुनियोजित षड्यंत्र के अंतर्गत इस्लाम का प्रचार प्रसार किया जा रहा है ।
और भी ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहां से हिंदुओं को भगाने की योजना पर बड़े सुनियोजित ढंग से कार्य किया जा रहा है, लेकिन सपा व कांग्रेस जैसे धर्मनिरपेक्ष दल इस ओर देखना पसंद नहीं करते हैं । ये गाए जा रहे हैं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। अब चाहे ये सारे अपराध, ये सारी राष्ट्र विरोधी गतिविधियां और देशद्रोही कार्य मजहब के नाम पर ही क्यों न हो रहे हों , पर इन मूर्खों को यह दिखाई नहीं देता। अंग्रेजी ने भारत के संस्कृत साहित्य को धीरे-धीरे नकारा बना दिया। अरबी ,फारसी और उर्दू ने अपनी मान्यताओं को लादकर हिंदी का सत्यानाश कर दिया । इसके उपरांत भी यदि आसाम सरकार मदरसों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करती है तो वह धर्मनिरपेक्ष दलों को बहुत ही गलत और असंवैधानिक दिखाई देती है। संस्कृत पर और संस्कृति पर हमला होना इन्हें अच्छा लगता है। संस्कृत को ये लोग एक सांप्रदायिक भाषा मानते हैं जबकि उर्दू को तहजीब की, तमीज की और देश को जोड़ने वाली भाषा मानते हैं। संस्कृत को एक मृत भाषा घोषित कर दिया गया है। जबकि हिंदी को तोड़ने वाली भाषा बताकर उसके नाम पर सांप्रदायिक दंगे करवाए जाते हैं और यह सपाई व कांग्रेसी वामपंथियों के सुर में सुर मिलाकर राग अलापते रहते हैं कि जो कुछ हो रहा है वह ठीक हो रहा है। इनकी बुद्धि पर पर्दा पड़ गया है ।अंग्रेजी और उर्दू एक भाषा के रूप में हमें स्वीकार्य हो सकती हैं, पर जब उनके माध्यम से हमारी संस्कृति को उजाड़कर पर संस्कृति को हम पर लादने का प्रयास किया जाता है तो तब उनकी मान्यताओं को हम संप्रदायिक मानकर उनका विरोध करते हैं और ऐसा किसी भी देश को करने का पूरा अधिकार है। आप सभी भाषाओं का सम्मान करें परंतु देश की संस्कृति को मारने की प्रत्येक चेष्टा का या प्रत्येक षड्यंत्र का विरोध होना ही चाहिए।
संस्कृत अपने आप में पूर्णतया पंथनिरपेक्ष भाषा है। क्योंकि यह सृष्टि के प्रारंभ में उस समय ईश्वरीय व्यवस्था के अंतर्गत हमको प्राप्त हुई जिस समय संप्रदाय नाम की कोई चीज धरती पर नहीं होती थी। शेष सारी भाषाएं किसी संप्रदाय के साथ जुड़ी हुई हैं और वही बोलती हैं जो उसके संबंधित संप्रदाय की इच्छा होती है।
इन सांप्रदायिक इच्छाओं ने संसार के इतिहास को पिछले 2000 वर्ष से खून के आंसू रुलाने में कोई किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। 300 वर्ष तक संप्रदायों के नाम पर धर्म युद्ध संसार में होते रहे , जिनमें लाखों-करोड़ों लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े। मध्यकाल में जितने भी शासक हुए वे सब सांप्रदायिक आधार पर एक दूसरे के देशों पर अधिकार करने की चेष्टा करते रहे और एक दूसरे की जनता का नरसंहार करते रहे । आज भी संसार सांप्रदायिक आधार पर इस्लाम और ईसाइयत नाम के दो धड़ों में बंटा हुआ है । इसके उपरांत भी कुछ मूर्ख हैं जो आंखें खोलने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। उन्हें मजहब आग लगाता हुआ नहीं दिखता बल्कि मनुष्य के भीतर कोई शैतानी प्रवृत्ति आग लगाती हुई दिखती है। जबकि सच यह है कि यह शैतानी प्रवृत्ति मजहब के नाम पर, मजहब के द्वारा मजहब के लिए ही जन्म लेती है। इस सच को आज समझने की आवश्यकता है।
पाकिस्तान में जहां उपरोक्त घटना हुई है ।वहां करक जिला के जिला पुलिस अधिकारी इरफानुल्लाह ने बीबीसी के स्थानीय प्रतिनिधि सिराजुद्दीन को बताया की पुलिस को लोगों के विरोध प्रदर्शन जानकारी दी गई थी और वहां पर सुरक्षा प्रबंध भी बहुत मजबूत किए गए थे । हमें विरोध प्रदर्शन की जानकारी थी लेकिन हमें बताया गया था कि यह विरोध शांतिपूर्ण रहेगा । यद्यपि एक मौलवी ने हालात को भड़काऊ भाषण देकर बिगाड़ दिया । भीड़ इतनी बड़ी थी कि हालात नियंत्रण से बाहर हो गए ।यद्यपि इस घटना में किसी प्रकार की कोई हानि नहीं हुई है। वास्तव में मजहब के नाम पर काम करने वाले लोगों ने इस हिंदू संत की समाधि पर यह हमला पहली बार नहीं किया है 1997 में भी इस समाधि पर स्थानीय लोगों ने इसी प्रकार हमला किया था । यद्यपि बाद में पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद खैबर पख्तूनख्वाह की प्रांतीय सरकार ने इसका पुनः निर्माण करा दिया था।
वास्तव में केवल देश के लिए सोचना और देश के लिए बोलना ही मानवतावाद के लिए बोलना होता है। मानवतावाद ही भारतीय राष्ट्रवाद की रीढ़ है । इसे किसी भी प्रकार के सांप्रदायिक पूर्वाग्रह में बाँटकर नहीं देखा जाना चाहिए। यदि पाकिस्तान की उपरोक्त घटना हमको आंदोलित ,व्यथित और मथित कर सकती है तो भारत वर्ष के भीतर भी यदि किसी मुस्लिम समाज पर इस प्रकार के अत्याचार होते हैं तो निंदा उनकी भी होनी चाहिए। ऐसी घटनाओं को किसी पार्टी के दृष्टिकोण से नहीं देखना चाहिए। किसी भी राजनीतिक दल का समर्थक व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो सकता है, लेकिन राष्ट्र का समर्थक, मानवतावाद का ध्वजवाहक और नैतिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाला कोई भी पुरोधा किसी भी ऐसी बात को स्वीकार नहीं करेगा जो किसी भी दृष्टिकोण से अनुचित हो।
सपा का समर्थक घटनाओं का सपा के दृष्टिकोण से अवलोकन करेगा, भाजपा का समर्थक घटनाओं को भाजपा के दृष्टिकोण से देखेगा और कांग्रेस का समर्थक कांग्रेस के दृष्टिकोण से घटनाओं को देखेगा। लेकिन जब यह सब अपने नाम के सामने से समर्थक शब्द को हटा देंगे तो उनकी दृष्टि में केवल राष्ट्र रह जाएगा और जब राष्ट्र के दृष्टिकोण से घटनाओं को देखा जाएगा तो समझ में आएगा कि मजहब का जो भूत हमें पिछले हजार बारह सौ वर्ष से दुखी करता आ रहा है उसको वश में करने के लिए कठोर नीतियों का पालन किया जाना समय की आवश्यकता है । जिस भाषा ने हम को तोड़ा है, उसे भारतीय शब्द 4 भारतीय मनीषा में सोचने की शक्ति देनी पड़ेगी , उसकी लिपि चाहे कोई भी हो परंतु वह भारतीयता के गीत गाए , मां भारती के गीत गाए और उन योद्धाओं के गीत गाए जिनके कारण यह देश आजाद हुआ और दीर्घकाल तक अपना स्वाधीनता संग्राम लड़कर देश, धर्म, संस्कृति और इतिहास की रक्षा करने में सफल हुआ।
सारी भाषाओं को आप एक तराजू में नहीं तोल सकते, मजहब और धर्म को एक दूसरे का पूरक या दोनों को ‘एक’ नहीं मान सकते। धर्म नैसर्गिक है तो मजहब किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा बनाया गया है।अपने इसी मौलिक अंतर के कारण जहां धर्म हमारे आंतरिक जगत की पवित्रता का प्रतीक है , वहीं मजहब बाहरी और दोनों प्रकार के जगतों में आग लगाने वाला है। यह दुनिया जिस दिन इन दोनों के इस मौलिक अंतर को समझ जाएगी उस दिन यह भी समझ जाएगी कि मजहब ही है जो आपस में बैर रखना सिखाता है। मजहब ही है जो मदरसों के माध्यम से समाज में आग लगाता है और धर्म ही है जो ग्रुप वालों के माध्यम से सारे संसार को व्यवस्थित करके चलाने की शिक्षा देता है लेकिन इन दोनों के इस गंभीर और मौलिक अंतर को समझने के लिए बहुत कुछ समझने की आवश्यकता है क्योंकि ऐसे अज्ञानी जनों की बहुत बड़ी भीड़ इस देश में घूम रही है जो मजहब और धर्म गुरुकुल और मच मदरसे मैं अंतर करना नहीं जानते सचमुच ऐसे अज्ञानी जनों से हटी और दुराग्रह इन लोगों से देश को इस समय बहुत गंभीर खतरा है। हमारे युवाओं में यह बीमारी बहुत गहराई से बैठ चुकी है, क्योंकि वामपंथी 5 मुस्लिम शिक्षा मंत्रियों ने देश की शिक्षा व्यवस्था को कुछ इसी प्रकार का बना कर रख दिया है। पिछले 70 – 75 वर्ष की उनकी इस मेहनत का ही परिणाम है कि लोग घटनाओं को और परिस्थितियों को सही दृष्टिकोण से समझने का प्रयास नहीं करते हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देश में जितने भी राजनीतिक दल हैं ये स्वयं भी अपने आपमें एक राजनीतिक संप्रदाय हैं। जैसे संसार में अनेकों मत, पंथ और संप्रदाय ईश्वर प्राप्ति और मानवतावाद के प्रचार प्रसार के नाम पर जन्मे हैं , वैसे ही देश में राजनीतिक दल भी राष्ट्रीय एकता और शांति व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर जन्मे हैं, परंतु जैसे मत, पंथ ,संप्रदाय अर्थात मजहब ईश्वर प्राप्ति नहीं करवा पाए और ना ही मानवतावाद का विकास कर पाए वैसे ही देश में राजनीतिक दल भी राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने के अपने वास्तविक उद्देश्य में असफल सिद्ध हुए हैं। इन्होंने अपने अपने समर्थक पैदा करके देश में विखंडन को जन्म दिया है। यही कारण है कि छोटे से छोटा कार्यकर्ता और बड़े से बड़ा नेता अपनी पार्टी की विचारधारा को पकड़े बैठा रहता है । जहां आपको किसी के भीतर इस प्रकार के राजनीतिक अंकुर दिखायी दें तो उसके बारे में समझ लो कि यह भी एक वैसा ही ‘गिद्ध’ है जैसा आपको टी0वी0 चैनलों पर पार्टी प्रवक्ता के नाम पर लड़ता हुआ दिखाई देता है। जैसे एक सांप्रदायिक व्यक्ति अपनी हठ पर अड़ा हुआ बैठा रहता है, वैसे ही किसी राजनीतिक दल का कोई भी व्यक्ति अपनी पार्टी की विचारधारा से बंधा हुआ घर बैठा रहता है। वह देश के बारे में नहीं सोचता बल्कि दल के बारे में सोचता है।
सचमुच समय अब व्यवस्था को समझने और उसे सुव्यवस्थित कर देने का है । इसके लिए यदि कोई राज्य सरकार या केंद्र सरकार राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कोई भी विधेयक या कानून लाए तो प्रत्येक राष्ट्रवादी व्यक्ति को उसका समर्थन करना चाहिए । किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता के नहीं बल्कि राष्ट्र के समर्थक बनो ….. तो कोई बात बने।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत