समय सापेक्षता का सिद्धांत और भारतीय मनीषी
सापेक्षता का सिद्धांत और भारतीय मनीषि…
हम न्यूटन को जानते हैं, स्वामी ज्येष्ठदेव को नहीं..
👆🏻👆🏻👆🏻👆🏻ये दो लेख एकसाथ संग्रहित कर रहा हूँ, भारतीय मनीषी नामक शीर्षक से..
भारतीय मनीषी
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विश्व भर में कुछ वर्ष पहले अल्बर्ट आइंस्टीन की General Theory of Relativity (GTR) की सौंवी वर्षगांठ मनाई गई. इस सन्दर्भ में 25 नवम्बर को श्रीमान् सुधीन्द्र कुलकर्णी जी ने महाराष्ट्र सरकार को बिज़नेस स्टैण्डर्ड अखबार के हवाले से पत्र लिखा की मुंबई समेत पूरा राज्य आइंस्टीन की GTR के सौ वर्ष पूरे होने पर ‘जश्न’ मनाये और मुंबई की सड़क का नाम आइंस्टीन के नाम पर कर दिया जाए. जगदीश चन्द्र बसु की जन्मतिथि 30 नवंबर को Observer Research Foundation ने टाटा इंस्टिट्यूट के मूर्धन्य भौतिकशास्त्री प्रो० स्पेंटा वाडिया साहब को बुला कर आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ जनरल रिलेटीविटी पर लेक्चर का आयोजन भी किया. लेकिन ये विद्वान् लोग उन्हें भूल गए जिनकी बदौलत इस देश में GTR जैसी जटिल थ्योरी पर शोध होता है और आज भारत सैद्धांतिक भौतिकी (Theoretical Physics) के क्षेत्र में विश्व में अग्रणी है. मुद्दा ये है की आप अपनी पहचान उत्सव के सापेक्ष रखते हैं या उपलब्धियों के; बाकि आइंस्टीन का नाम हर वो व्यक्ति जानता है जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण के निरपेक्ष साम-दाम की कल्पना में जीता है. मैं आपको तीन महान भारतीय वैज्ञानिकों के बारे में बताना चाहता हूँ जिनमें से एक मराठी थे, एक गुजराती और एक बंगाली.
सबसे पहले इस थ्योरी का एक अति संक्षिप्त परिचय.
नवम्बर सन 1915 में आइंस्टीन ने ‘सापेक्षता का सामान्य सिद्धांत’ प्रतिपादित किया था. इससे दस वर्ष पूर्व 1905 में आइंस्टीन ने ‘सापेक्षता का विशिष्ट सिद्धांत’ (Special Theory of Relativity) भी दिया था जिस पर आगे चलकर परमाणु ऊर्जा संयंत्र और अस्त्र दोनों बने. हिंदी में General शब्द का अनुवाद ‘सामान्य’ कर दिया जाता है लेकिन इन दोनों ही सिद्धांतों ने ब्रह्माण्ड और पदार्थ को देखने की दुनिया की सामान्य समझ को पूरी तरह से बदल दिया था. हम जिस ब्रह्माण्ड को अपरिमित समझते थे GTR ने उस सोच को बदल दिया और ऐसे समीकरण निकले जिनसे पता चला ब्रह्माण्ड की भी सीमांए हैं. आइंस्टीन ने गुरुत्व (Gravity) को मात्र खींचने-धकेलने वाला एक ‘बल’ नहीं बल्कि वृहद् ज्यामितीय संरचना के रूप में समझाया और प्रमेयों के माध्यम से सिद्ध किया कि जैसे एक फैले हुए चादर पर भारी गेंद डालने से वो सिकुड़ जाता है वैसे ही पदार्थ अपने द्रव्यमान से दिक्-काल (Space-Time) को विकृत करता है. यही ज्यामिति गुरुत्वाकर्षण के लिए जिम्मेदार है. इसी सिद्धांत की बदौलत हमनें विशाल द्रव्यमान वाले तारों, मंदाकिनियों का अध्ययन भी किया और आज का ‘मॉडर्न कुतुबनुमा’ यानि GPS भी बनाया. हमें ब्लैक होल, क्वेसर, पल्सर जैसी विचित्र वस्तुएं भी ज्ञात हुईं और हम ये भी जान पाए की गुरुत्वाकर्षण बल ‘तरंगों’ के रूप में विद्यमान है जिन्हें Gravity Waves कहा जाता है. कालांतर में ‘ब्रह्मान्डिकी’ या Cosmology एक विषय के रूप में परिणत हुआ जिसमे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एक entity मान कर अध्ययन किया जाता है. ये विषय बहुत विस्तृत और जटिल है. बहुत सारी बातें हैं इस पर चर्चा फिर कभी.
भारतीय वैज्ञानिकों में खगोलशास्त्री प्रो० जयंत विष्णु नार्लीकर (JVN) एक बड़ा नाम हैं. दुःख की बात है की उनके पिताजी प्रो० विष्णु वासुदेव नार्लीकर (VVN) को बहुत कम लोग जानते हैं. जैसे एक बार हरिवंशराय बच्चन को क्षोभ हुआ था जब लोग उन्हें इसलिए जानने लगे थे क्योंकि उनके सुपुत्र अमिताभ स्टार बन गए थे. खैर. प्रो० वी० वी० नार्लीकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे. उनका जन्म कोल्हापुर, महाराष्ट्र में 1908 में हुआ था और उच्च शिक्षा कैंब्रिज में हुई थी. कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उन्होंने Sir Arthur Eddington के सानिध्य में काम किया था. आप जानते हैं Eddington कौन थे? जब आइंस्टीन ने थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी पर पेपर प्रकाशित किया था तो कहा जाता है कि उस समय विश्व में इस थ्योरी को समझने वाले कुल ‘तीन’ लोगों में से एक Eddington थे! काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक महाप्राण महामना मालवीयजी ने Eddington को पत्र लिखा और उनके प्रयासों के फलस्वरूप 1932 में VVN जब केवल 24 वर्ष के थे और पीएचडी पूरी भी नहीं की थी, तब उन्हें गणित विभाग का अध्यक्ष बनाया गया. अब ये जरुरी नहीं है की कोई वैज्ञानिक तभी कहलाये जब वो कोई चमत्कारिक खोज करने में सफल हो या बड़े पुरस्कार से सम्मानित किया जाए. एक विद्वान् की विद्वत्ता या scholarship इस पर निर्भर करती है की उसकी विषय पर कितनी गहरी समझ है. थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी की इतनी गहरी समझ उस समय भारत में भी गिने चुने लोगों को ही थी. प्रो० VVN ने बनारस में इस विषय पर एक ‘मत’ स्थापित किया और शांत स्वभाव वाले इस अध्यापक ने ऐसे छात्रों को पीएचडी कराई जिन्होंने आगे चल कर बड़ा नाम कमाया. दोनों सुपुत्र JVN और उनके भाई अनंत नार्लीकर भी इसके अपवाद नहीं जिन्हें VVN की अकादमिक छत्रछाया मिली हालाँकि इन्होंने पीएचडी देश के बाहर से की थी. प्रो० विष्णु वासुदेव नार्लीकर का देहांत 1 अप्रैल 1991 को हुआ. उन्हें “Grandpa of Relativity in India” कहा जाता है.
दूसरा नाम है गुजरात के प्रो० प्रह्लाद चुन्नीलाल वैद्य. जन्म 23 मार्च 1918. इनके नाम से रिलेटिविटी में एक सूत्र प्रसिद्ध है जिसे कहा जाता है ‘Vaidya Metric’. मुंबई विश्वविद्यालय से MSc करने के बाद श्री वैद्य 1942 में प्रो० VVN के सानिध्य में काम करने के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय चले आये. आप नौकरी के उद्देश्य से या पीएचडी के लिए नहीं आये थे. जेब में कुछ पैसे और एक छः महीने की बिटिया को गोद में ले कर सिर्फ थ्योरी ऑफ़ जनरल रिलेटिविटी पर VVN के साथ काम करने आये थे. ऐसा समर्पण आपने कहीं देखा सुना है क्या? वे बनारस में सिर्फ दस महीने रहे, गंगाजल से बना भोजन किया और इसी अवधि में उन्होंने कुछ ऐसा खोज निकाला जो Vaidya Metric के रूप में अमर हो गया. इस सूत्र का वास्तविक महत्व और प्रत्यक्ष प्रमाण तब सामने आया जब साठ के दशक में अन्तरिक्ष में क्वेसर, पल्सर जैसी विचित्र वस्तुएं पता चलीं. इस सूत्र के महत्व को समझने के लिये एक विशाल तारे की कल्पना करें. एक बड़ा तारा निश्चित ही अपने समीप दिक्-काल की विमाओं को विकृत कर ज्यामिति बदल देगा और यदि उसमे से Radiation या तरंगे भी निकल रही हों तो ऐसी स्थिति में गुरुत्व कैसे काmम करेगा इसका समाधान इस सूत्र में है. बनारस से ‘आज’ नाम का अखबार आज भी निकलता है. इसी अखबार में गाँधी के आन्दोलन की खबर पढ़ते हुए श्री वैद्य के दिमाग में ये आईडिया आया. श्री वैद्य ने मुंबई के टाटा इंस्टिट्यूट में भाभा के साथ भी काम किया. कालांतर में पीएचडी भी की, गुजरात विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी रहे लेकिन तब तक वो प्रसिद्ध हो चुके थे. उन्होंने गुजरात में ‘गुजरात गणित मंडल’ नामक संस्था की स्थापना की और जवाहरलाल के हाथों उद्घाटित एक ऐसे विद्यालय में भी पढ़ाया जिसकी छत तक नहीं थी. एक अध्यापक कैसा होना चाहिये इसके बारे में श्री वैद्य एक डाक्यूमेंट्री में जगदीश चन्द्र बसु के Law of Teacher Education को याद करते हैं और बताते हैं की प्रो० बसु कहते थे की एक अध्यापक से सारी पुस्तकें छीन लो यदि फिर भी वह पढ़ाने लायक है तब वो अध्यापक है. दूसरा ये की एक अध्यापक को छात्र के सामने खुद एक रोल मॉडल बन कर दिखाना चाहिये ताकि वो छात्र अपने अध्यापक की नकल कर सके. अपने गुरु प्रो० विष्णु वासुदेव नार्लीकर को याद करते हुए प्रो० वैद्य ने लिखा है की जब Vaidya Metric पर पेपर छपा तो प्रो० नार्लीकर ने उस पेपर में सिर्फ वैद्य का नाम छपवाया क्योंकि सारी मेहनत वैद्य की थी. वो चाहते तो First author में अपना नाम दे सकते थे लेकिन उन्होंने वैद्य को पूरा श्रेय दिया. प्रो० प्रह्लाद चुन्नीलाल वैद्य और प्रो० नार्लीकर ने भारत में Indian Association for General Relativity and Gravitation (IAGRG) की स्थापना की. प्रो० वैद्य मार्च 2010 में दुनिया से चले गए.
तीसरी विभूति का नाम है प्रो० अमल कुमार रायचौधुरी. उनके सहकर्मी और छात्र उन्हें प्यार से AKR या अमल बाबू बुलाते थे. आपका जन्म 14 सितम्बर 1923 को हुआ था. प्रो० रायचौधुरी के नाम से Raychaudhuri Equation प्रसिद्ध है. इस समीकरण को हिंदी में समझा पाना मेरे लिए संभव नहीं. लेकिन इसका महत्त्व बता सकता हूँ. आप जानते हैं की कैम्ब्रिज के प्रो० स्टीफेन हॉकिंग को आइंस्टीन के बाद दुनिया का सबसे महान वैज्ञानिक माना जाता है. ऑक्सफ़ोर्ड के प्रो० रॉजर पेनरोस और हॉकिंग दोनों ने कुछ प्रमेय सिद्ध किये थे जिनसे हमें ये पता चलता है की ब्रह्माण्ड का जन्म एक ‘व्यष्टि-बीज’ से हुआ था. वह बीज अत्यंत सघन और गर्म था. इन प्रमेयों को Penrose-Hawking Singularity Theorems कहा जाता है. इन प्रमेयों को सिद्ध करने के लिए Raychaudhuri Equation की जरुरत पड़ती है. रायचौधुरी समीकरण के बिना ये प्रमेय सिद्ध नहीं किये जा सकते थे. कुछ विद्वानों का ये भी मानना है की अगर प्रो० रायचौधुरी को इंग्लैंड-अमरीका में उन्नत गणितीय उपकरण सीखने का मौका मिलता तो वो उन प्रमेयों को भी खोज लेते जिनकी बदौलत हॉकिंग को इतनी प्रसिद्धि मिली. लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें ऐसा माहौल नहीं मिला. एम० एस० सी० करने के बाद उन्हें Indian Association for Cultivation of Science कलकत्ता में शोध की नौकरी मिल गई. उनसे कहा गया की प्रायोगिक भौतिकी (Experimental Physics) में शोध की नौकरी बचा के रखने लिए उन्हें सिर्फ दो पेपर प्रकाशित करने होंगे इससे ज्यादा काम नहीं है. लेकिन प्रो० रायचौधुरी को सैद्धांतिक भौतिकी में रूचि थी. उन्होंने अपना पठन-पाठन स्वयं चुपचाप जारी रखा और विपरीत परिस्थितियों में 1954 में रायचौधुरी समीकरण की खोज हुई. रायचौधुरी समीकरण बताता है की ‘व्यष्टि-बीज’ अथवा Singularity अव्यश्यम्भावी है. इसका पता भी तब चला जब अमरीका के प्रो० John Archibald Wheeler ने इसका संज्ञान लिया और 1959 में रायचौधुरी ने डी० एस० सी० डिग्री के लिए थीसिस सबमिट कर दी. सन 2005 में अमल बाबू भी दुनिया से चले गए और अपने पीछे सैकड़ों छात्र छोड़ गए जो उन्हें याद करते हैं.
इतना पढ़ने के बाद आप कमेन्ट में ‘नमन’ ठोंक के चले जायेंगे लेकिन मेरा अनुरोध है की इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आप अपने बच्चों को बताएं क्योंकि आपके बच्चे आइंस्टीन का नाम जरुर सुनेंगे लेकिन रायचौधुरी, नार्लीकर और वैद्य का नाम शायद ही सुनें.
धन्यवाद.
✍🏻यशार्क पाण्डेय
हम न्यूटन को जानते हैं, स्वामी ज्येष्ठदेव को नहीं..
Written by सुरेश चिपलूनकर
क्या आप न्यूटन को जानते हैं?? जरूर जानते होंगे, बचपन से पढ़ते आ रहे हैं… लेकिन क्या आप स्वामी माधवन या ज्येष्ठदेव को जानते हैं?? नहीं जानते होंगे… तो अब जान लीजिए.
अभी तक आपको यही पढ़ाया गया है कि न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिक ही कैलकुलस, खगोल विज्ञान अथवा गुरुत्वाकर्षण के नियमों के जनक हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि इन सभी वैज्ञानिकों से कई वर्षों पूर्व पंद्रहवीं सदी में दक्षिण भारत के स्वामी ज्येष्ठदेव ने ताड़पत्रों पर गणित के ये तमाम सूत्र लिख रखे हैं. इनमें से कुछ सूत्र ऐसे भी हैं, जो उन्होंने अपने गुरुओं से सीखे थे, यानी गणित का यह ज्ञान उनसे भी पहले का है, परन्तु लिखित स्वरूप में नहीं था.
“मैथेमेटिक्स इन इण्डिया” पुस्तक के लेखक किम प्लोफ्कर लिखते हैं कि, “तथ्य यही हैं सन 1660 तक यूरोप में गणित या कैलकुलस कोई नहीं जानता था, जेम्स ग्रेगरी सबसे पहले गणितीय सूत्र लेकर आए थे. जबकि सुदूर दक्षिण भारत के छोटे से गाँव में स्वामी ज्येष्ठदेव ने ताड़पत्रों पर कैलकुलस, त्रिकोणमिति के ऐसे-ऐसे सूत्र और कठिनतम गणितीय व्याख्याएँ तथा संभावित हल लिखकर रखे थे, कि पढ़कर हैरानी होती है. इसी प्रकार चार्ल्स व्हिश नामक गणितज्ञ लिखते हैं कि “मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि शून्य और अनंत की गणितीय श्रृंखला का उदगम स्थल केरल का मालाबार क्षेत्र है”.
स्वामी ज्येष्ठदेव द्वारा लिखे गए इस ग्रन्थ का नाम है “युक्तिभाष्य”, जो जिसके पंद्रह अध्याय और सैकड़ों पृष्ठ हैं. यह पूरा ग्रन्थ वास्तव में चौदहवीं शताब्दी में भारत के गणितीय ज्ञान का एक संकलन है, जिसे संगमग्राम के तत्कालीन प्रसिद्ध गणितज्ञ स्वामी माधवन की टीम ने तैयार किया है. स्वामी माधवन का यह कार्य समय की धूल में दब ही जाता, यदि स्वामी ज्येष्ठदेव जैसे शिष्यों ने उसे ताड़पत्रों पर उस समय की द्रविड़ भाषा (जो अब मलयालम है) में न लिख लिया होता. इसके बाद लगभग 200 वर्षों तक गणित के ये सूत्र “श्रुति-स्मृति” के आधार पर शिष्यों की पीढी से एक-दुसरे को हस्तांतरित होते चले गए. भारत में श्रुति-स्मृति (गुरु के मुंह से सुनकर उसे स्मरण रखना) परंपरा बहुत प्राचीन है, इसलिए सम्पूर्ण लेखन करने (रिकॉर्ड रखने अथवा दस्तावेजीकरण) में प्राचीन लोग विश्वास नहीं रखते थे, जिसका नतीजा हमें आज भुगतना पड़ रहा है, कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में संस्कृत भाषा के छिपे हुए कई रहस्य आज हमें पश्चिम का आविष्कार कह कर परोसे जा रहे हैं.
जॉर्जटाउन विवि के प्रोफ़ेसर होमर व्हाईट लिखते हैं कि संभवतः पंद्रहवीं सदी का गणित का यह ज्ञान धीरे-धीरे इसलिए खो गया, क्योंकि कठिन गणितीय गणनाओं का अधिकाँश उपयोग खगोल विज्ञान एवं नक्षत्रों की गति इत्यादि के लिए होता था, सामान्य जनता के लिए यह अधिक उपयोगी नहीं था. इसके अलावा जब भारत के उन ऋषियों ने दशमलव के बाद ग्यारह अंकों तक की गणना एकदम सटीक निकाल ली थी, तो गणितज्ञों के करने के लिए कुछ बचा नहीं था. ज्येष्ठदेव लिखित इस ज्ञान के “लगभग” लुप्तप्राय होने के सौ वर्षों के बाद पश्चिमी विद्वानों ने इसका अभ्यास 1700 से 1830 के बीच किया. चार्ल्स व्हिश ने “युक्तिभाष्य” से सम्बंधित अपना एक पेपर “रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड” की पत्रिका में छपवाया. चार्ल्स व्हिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के मालाबार क्षेत्र में काम करते थे, जो आगे चलकर जज भी बने. लेकिन साथ ही समय मिलने पर चार्ल्स व्हिश ने भारतीय ग्रंथों का वाचन और मनन जारी रखा. व्हिश ने ही सबसे पहले यूरोप को सबूतों सहित “युक्तिभाष्य” के बारे में बताया था. वरना इससे पहले यूरोप के विद्वान भारत की किसी भी उपलब्धि अथवा ज्ञान को नकारते रहते थे और भारत को साँपों, उल्लुओं और घने जंगलों वाला खतरनाक देश मानते थे. ईस्ट इण्डिया कंपनी के एक और वरिष्ठ कर्मचारी जॉन वारेन ने एक जगह लिखा है कि “हिन्दुओं का ज्यामितीय और खगोलीय ज्ञान अदभुत था, यहाँ तक कि ठेठ ग्रामीण इलाकों के अनपढ़ व्यक्ति को मैंने कई कठिन गणनाएँ मुँहज़बानी करते देखा है”.
स्वाभाविक है कि यह पढ़कर आपको झटका तो लगा होगा, परन्तु आपका दिल सरलता से इस सत्य को स्वीकार करेगा नहीं, क्योंकि हमारी आदत हो गई है कि जो पुस्तकों में लिखा है, जो इतिहास में लिखा है अथवा जो पिछले सौ-दो सौ वर्ष में पढ़ाया-सुनाया गया है, केवल उसी पर विश्वास किया जाए. हमने कभी भी यह सवाल नहीं पूछा कि पिछले दो सौ या तीन सौ वर्षों में भारत पर किसका शासन था? किताबें किसने लिखीं? झूठा इतिहास किसने सुनाया? किसने हमसे हमारी संस्कृति छीन ली? किसने हमारे प्राचीन ज्ञान को हमसे छिपाकर रखा? लेकिन एक बात ध्यान में रखें कि पश्चिमी देशों द्वारा अंगरेजी में लिखा हुआ भारत का इतिहास, संस्कृति हमेशा सच ही हो, यह जरूरी नहीं. आज भी ब्रिटिशों के पाले हुए पिठ्ठू, भारत के कई विश्वविद्यालयों में अपनी “गुलामी की सेवाएँ” अनवरत दे रहे हैं.