असम सरकार ने देश के पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक स्वरूप को बचाए रखने के लिए फिर एक ऐतिहासिक निर्णय लिया है ।अभी तक की कांग्रेसी और सेकुलर सोच रखने वाली राजनीतिक पार्टियों की परंपरा से हटकर असम सरकार ने निर्णय लिया है कि असम में सरकारी मदरसों को बंद किया जाएगा । बात साफ है कि ये सरकारी मदरसे देश के लोकतांत्रिक पंथनिरपेक्ष स्वरूप को भी नष्ट करने का कार्य कर रहे थे। क्योंकि उनसे सांप्रदायिक शिक्षा को प्रोत्साहित किया जा रहा था । जिससे एक वर्ग का अनावश्यक तुष्टिकरण हो रहा था और वह अन्य संप्रदायों को मसलने में सफल होता जा रहा था ।
इसी कार्य के लिए असम सरकार ने विधानसभा का तीन दिवसीय सत्र आहूत किया है। जिसमें सरकारी मदरसों को मिलने वाली सहायता को निरस्त करने का विधेयक प्रस्तुत किया गया है। इसके लिए आसाम के शिक्षा मंत्री हिमांत विश्व शर्मा निश्चय ही बधाई और अभिनंदन के पात्र हैं । क्योंकि उन जैसी इच्छा शक्ति रखने वाले राजनीतिज्ञ इस समय देश में कम हैं, अधिकतर मुस्लिम तुष्टिकरण की बात करने वाले राजनीतिक लोग हैं । जिन्हें देश के भविष्य से कुछ लेना देना नहीं है । बहुत कम लोग ऐसे हैं जो श्री शर्मा जैसी सोच रखते हैं और वे देश के भविष्य को देखकर निर्णय लेते हैं।
इस संबंध में आसाम के शिक्षा मंत्री श्री शर्मा ने ट्वीट करते हुए कहा स्पष्ट किया था कि “मैं आज मदरसे के प्रांतीयकरण को निरस्त करने के लिए विधेयक पेश करुँगा। एक बार विधेयक पारित होने के बाद असम सरकार द्वारा मदरसा चलाने की प्रथा खत्म हो जाएगी। इस प्रथा की शुरुआत स्वतंत्रता-पूर्व असम में मुस्लिम लीग सरकार द्वारा की गई थी।”
ज्ञात रहे कि यदि यह कानून लागू होता है तो सरकार के इस फैसले से राज्य के सभी सरकारी मदरसों और अरबी कॉलेजों को मिलने वाली सरकारी सहायता तुरंत प्रभाव से बंद कर दी जाएगी। इस प्रकार के निर्णय से देश में चल रहा मुस्लिम तुष्टिकरण का दौर भी कम होने की संभावना है । निश्चय ही मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीतिज्ञों की प्रवृत्ति ने देश को बहुत अधिक क्षति पहुंचाई है। जिसे लेकर लंबे समय से देश के राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों की ओर से चिंता प्रकट की जा रही थी। अब इस चिंता को मिटाने की दिशा में यदि असम सरकार आगे आ रही है तो निश्चय ही असम सरकार के इस ऐतिहासिक निर्णय का देश के राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों की ओर से स्वागत किया जाना अपेक्षित है। देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों और राजनीतिज्ञों की मुस्लिम तुष्टीकरण की इस प्रकार की नीति से देश के संविधान का पंथनिरपेक्ष स्वरूप भी प्रभावित हुआ।
असम सरकार के इस नए कानून से अगले शैक्षणिक सत्र से राज्य मदरसा बोर्ड को भंग कर दिया जाएगा और उसकी सभी शैक्षणिक गतिविधियों को माध्यमिक शिक्षा निदेशालय को हस्तांतरित कर दिया जाएगा। अब आसाम सरकार को अपने इस कानून के माध्यम से हिंदुओं की इस शिकायत को भी दूर करने का अवसर मिलेगा कि देश की सरकारें मंदिरों के चढ़ावे आदि पर तो ध्यान रखती हैं जबकि दरगाहों और मस्जिदों को इस प्रकार के चढ़ावे आदि से छूट दी जाती है । आसाम की सरकार से हमारा कहना है कि वह राज्य की सभी मस्जिदों और दरगाहों पर आने वाले चढ़ावे आदि पर ध्यान रखे और उस पैसे को जनहित के कार्यों पर वैसे ही खर्च करे जैसे हिंदुओं के मंदिरों से आने वाले चढ़ावे को खर्च किया जाता है ।
मदरसों में मजहबी पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले शिक्षकों को सामान्य विषयों को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। इसे लेकर राज्य के शिक्षा मंत्री शर्मा ने कहा था, “यह राज्य की शिक्षा प्रणाली को धर्मनिरपेक्ष बनाएगा। हम स्वतंत्रता पूर्व भारत के दिनों से इस्लामी धार्मिक अध्ययनों के लिए सरकारी धन का उपयोग करने की प्रथा को समाप्त कर रहे हैं। मदरसों को सामान्य स्कूलों में परिवर्तित कर दिया जाएगा।”
प्रदेश के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल निश्चय ही एक साहसिक नेतृत्व देने वाले मुख्यमंत्री सिद्ध हुए हैं। जिन्होंने इस महत्वपूर्ण राज्य में कई ऐतिहासिक काम कर अपने राष्ट्रवादी और मजबूत नेतृत्व का परिचय दिया है।
इस संदर्भ में हमें आसाम के शिक्षामंत्री श्री हिमांशु विश्व शर्मा द्वारा अक्टूबर में दिए गए उस बयान पर भी ध्यान देना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि असम में कुल 614 सरकारी और 900 निजी मदरसे हैं। सरकार इन संस्थानों पर प्रति वर्ष 260 करोड़ रुपए खर्च करती है। राज्य में लगभग 100 सरकारी संस्कृत टोल्स (संस्कृत विद्यालय) और 500 से अधिक निजी टोल्स हैं। सरकार प्रतिवर्ष मदरसों पर लगभग 3 से 4 करोड़ रुपए खर्च करती है और लगभग 1 करोड़ रुपए संस्कृत टोल्स पर खर्च करती है। आसाम के शिक्षा मंत्री ने बिना किसी लाग लपेट के स्पष्ट शब्दों में कहा कि राज्य सरकार ने स्थिति का मूल्यांकन करते हुए फैसला किया है कि राज्य को सार्वजनिक धन के उपयोग से कुरान को पढ़ाना या उसका प्रचार नहीं करना चाहिए। आज के संदर्भ में किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए ऐसा निर्णय लेना साहसिक माना जाएगा। क्योंकि मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के चलते राजनीतिक लोगों के दिलोदिमाग पर तुष्टीकरण का पक्षाघात हुआ पड़ा है। जिसके कारण वह कुछ बोल नहीं पाते हैं। उन्होंने कहा कि राज्य द्वारा संचालित मदरसों के कारण कुछ संगठनों द्वारा भगवद गीता और बाइबल को भी स्कूलों में पढ़ाने की माँग की गई थी, लेकिन सभी धार्मिक शास्त्रों के अनुसार स्कूलों को चलाना संभव नहीं है। एआईडीयूएफ जैसी पार्टियों के विरोध के बावजूद शर्मा ने कहा था कि राज्य सरकार द्वारा लिए गए निर्णय को नहीं बदला जाएगा।
माना कि सभी धर्म ग्रंथों के आधार पर किसी भी राज्य सरकार का संचालन किया जाना संभव नहीं है परंतु इतना तो संभव है कि जो शिक्षाएं पंथनिरपेक्ष भारत के निर्माण में सहायक हों उन्हें वेद और अन्य वैदिक ग्रंथों से लेकर पाठ्यक्रम को सुरुचिपूर्ण और देशहितकारी बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
वेद की सारी शिक्षाएं पंथनिरपेक्ष शिक्षाएं हैं। वह किसी भी संप्रदाय को या किसी भी प्रकार की सांप्रदायिक सोच को प्रोत्साहित नहीं करतीं। इसलिए हमारे महान पूर्वजों के विचारों को और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को स्पष्ट करने वाले साहित्य को विद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना निश्चय ही देश के संविधान की मूल आत्मा के अनुरूप होगा। क्या ही अच्छा हो कि आसाम सरकार इस ओर भी साहसिक पहल करते हुए अन्य राज्य सरकारों के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत