आर्यसमाज राजपुर देहरादून का वार्षिकोत्सव संपन्न : ऋषि दयानंद ने संसार को अमृत पिलाया और स्वयं विष पी लिया : अन्नपूर्णा
ओ३म्
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आर्यसमाज, राजपुर-देहरादून का वार्षिकोत्सव रविवार दिनांक 27-12-2020 को सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इस समाज की स्थापना 1 जनवरी, 2016 को डा. वेद प्रकाश गुप्ता जी ने आर्यसमाज के निष्ठावान सेवक श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी के साथ मिलकर की थी। आज समाज का उत्सव प्रातः आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी, द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल के ब्रह्मत्व में दो कुण्डी यज्ञ से हुआ। उन्हीं के गुरुकुल की कन्याओं ने यज्ञ में मन्त्र पाठ किया। यज्ञ प्रार्थना आर्य भजनोपदेशक श्री धर्मसिंह एवं ढोलक वादक श्री नाथी राम जी गाकर कराई। उनके गुरुकुल की अधिकांश कन्यायें यज्ञ में उपस्थित थीं। यज्ञ के बाद ध्वजारोहण किया गया और ओ३म् ध्वज गीत गाया गया। इसके बाद प्रातःराश व अल्पाहार हुआ जिसके बाद भजन एवं व्याख्यानों का कार्यक्रम आरम्भ हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता 97 वर्ष के वयोवृद्ध ऋषिभक्त श्री सुखबीर सिंह वर्मा जी ने की। संचालन आर्यसमाज राजपुर के यशस्वी प्रधान श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी ने किया। कार्यक्रम में आर्य विदुषी डा. अन्नपूर्णा जी, आर्य विद्वान डा. विनोद कुमार शर्मा, पं. वेदवसु शास्त्री, डा. नवदीप कुमार के व्याख्यान हुए। भजनों की प्रस्तुति श्री धर्मसिंह जी सहित प्रख्यात गायिक श्रीमती मीनाक्षी पंवार एवं कन्या गुरुकुल की छात्राओं के द्वारा की गई।
कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री सुखबीर सिंह वर्मा जी ने आहार के शरीर पर होने वाले प्रभाव की चर्चा की। 97 वर्षीय श्री वर्मा ने कहा कि वह पूर्णतः स्वस्थ हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने बचपन से गाय का दूध पीया है तथा अपने परिवार के सदस्यों को भी पिलाया है। इसी कारण से वह इस लम्बी आयु, स्वस्थ जीवन व शरीर को प्राप्त करने में सफल हुए हैं। उन्होंने कहा कि वह अपने सभी काम स्वयं करते हैं। उन्होंने बताया कि उनका पुत्र अशोक उनकी निष्ठापूर्वक सेवा करता है। मेरी सेवा करने के उद्देश्य से उसने नौकरी के अच्छे प्रस्तावों को ठुकरा दिया। वर्मा जी ने श्रोताओं को कहा कि वह बाजार की बनी हुई कोई वस्तु नहीं खाते। उन्होंने सभी ऋषिभक्तों को दूध तथा सब्जी आदि का सेवन करने की प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि हमें आर्य जीवन शैली को आगे बढ़ाना चाहिये। वर्मा जी ने अपने अनुभव के आधार पर कहा कि धनवान लोग अपनी सन्तानों के आचार, विचार व व्यवहार से परेशान हैं। वर्मा जी ने श्रोताओं को यज्ञ द्वारा प्रतिदिन वायु शुद्ध करने की भी प्रेरणा की। उन्होंने सभी वक्ताओं, अतिथियों एवं श्रोताओं को कार्यक्रम में पधारने के लिये धन्यवाद दिया। वर्मा जी ने कहा कि सभी बन्धुओं को आर्यसमाज के सत्संगों व कार्यक्रमों में सम्मिलित होना चाहिये।
आज के वार्षिकोत्सव के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री चन्द्रगुप्त विक्रम जी थे। श्री चन्द्रगुप्त विक्रम ऋषिभक्त श्री के.बी. लाल जी के पुत्र हैं। आपने अपने सम्बोधन में कहा कि हमने अपने जीवन में जो सीखा है उसको आगे ले जाने का काम हमारी युवापीढ़ी को करना है। उन्होंने आगे कहा कि ऋग्वेद में मनुष्य के 215 गुण बतायें गये हैं। गीता में मनुष्य के गुणों को संक्षिप्त कर 15 किया गया है। उन्होंने कहा कि हमें अहंकार व असत्य व्यवहार नहीं करना है। मुख्य अतिथि महोदय ने आर्यसमाज के छठे नियम की चर्चा की। उन्होंने कहा कि हम अपनों व दूसरों से जो अपेक्षायें करते हैं वह सब गुण हमारे अपने भीतर भी होने चाहिये। विद्वान वक्ता ने कहा कि स्वामी दयानन्द जी की अपनी निजी आवश्यकतायें बहुत कम थीं। हमें इस विषय में स्वामी दयानन्द जी से सीखना चाहिये। हमें क्रोध एवं ईष्र्या पर नियन्त्रण करने के साथ अपने व्यवहार में समत्व लाना चाहिये। श्री चन्द्रगुप्त विक्रम जी ने स्थानीय आर्यसमाज लक्ष्मणचैक के सत्संग में सुने एक वैदिक विद्वान के प्रवचन की चर्चा की जिसमें उन्होंने द से आरम्भ होने वाले दान, दक्षिणा, दीक्षा आदि गुणों की चर्चा कर कहा था कि इन सबको अपने जीवन में उतारना चाहिये। श्री चन्द्रगुप्त विक्रम ने भारत विकास परिषद के कार्यों एवं उनके द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं की चर्चा कर बताया कि उत्तराखण्ड में उनकी 21 शाखायें हैं। उन्होंने श्रोताओं को बताया कि द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल की कन्यायें परिषद द्वारा आयोजित प्रतियोगी परीक्षाओं में पूरे उत्तराखण्ड मे प्रथम स्थान पर आयीं हैं। श्री विक्रम में कहा कि आज के बच्चों को देश व समाज से जुड़ी ज्ञान विषयक बातों का विस्तृत ज्ञान है जो हमें आश्चर्य में डाल देता है। सबका धन्यवाद करने के साथ श्री विक्रम ने अपने वक्तव्य को विराम दिया।
वार्षिक उत्सव में आचार्या अन्नपूर्णा जी ने अपने सम्बोधन में कृण्वन्तो विश्वमार्यम् की चर्चा की। उन्होंने कहा कि पहले हम आर्य बनें और उसके बाद विश्व को आर्य बनाने का प्रयत्न करें। उन्होंने कहा कि आर्यों की कथनी व करनी एक होनी चाहिये। विदुषी आचार्या जी ने कहा कि जिस मनुष्य के जीवन में सत्य का व्यवहार होने सहित परोपकारमय जीवन होता है, वह आर्य होता है। उन्होंने कहा कि हम आर्य बनें, यह वेद का सन्देश है। डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि मनुष्य समाज की उन्नति के लिये ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना की थी। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने संसार को अमृत पिलाया और स्वयं विष पी लिया। आचार्या जी ने मुंशीराम जी की बरेली में स्वामी दयानंद जी से भेंट की चर्चा भी की। इस सत्संग में मुंशीराम जी ने स्वामी जी द्वारा की गई ओ३म् की व्याख्या सुनी थी। उन्होंने कहा कि परमेश्वर की विद्यमानता का विश्वास सुनने व पढ़ने से नहीं होता अपितु ईश्वर की कृपा होने पर होता है। उन्होंने कहा कि आज हम स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान दिवस भी मना रहे हैं।
आचार्या अन्नपूर्णा जी ने बताया कि मुंशीराम जी में अनेक अवगुण थे। ऋषि दयानन्द की संगति तथा सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के अध्ययन से मुंशीराम जी महात्मा तथा स्वामी श्रद्धानन्द बने थे। विदुषी आचार्या ने कहा कि जीवन से पाप दूर होने पर ही हमारे जीवन में कल्याण करने वाले गुण आते हैं। उन्होंने कहा कि जीवन में बुराईयों को छोड़ने का संकल्प करना स्वामी श्रद्धानन्द जी के बलिदान दिवस को मनाते हुए उन्हें दी जाने वाली सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है। डा. अन्नपूर्णा जी ने बताया कि सच्चा आर्य अपने सुख के लिये नहीं जीता। सच्चे आर्य दूसरों के दुःखों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। उन्होंने कहा कि जो दूसरों पर उपकार करता है और बदले में उनसे कुछ नहीं चाहता, ऐसा व्यक्ति ही आर्य होता है। बहिन जी ने श्रोताओं से पूछा कि क्या वैदिकधर्म की जय बोलने से वेदों की रक्षा होगी? क्या मेरा भारत महान कहने मात्र से भारत महान बनेगा? उन्होंने कहा कि वेदों की रक्षा के लिये वेदों को पढ़ना व उनका प्रचार व प्रसार करना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये स्वामी श्रद्धानन्द जी ने हरिद्वार के कांगड़ी ग्राम में गुरुकुल खोला था। उन्होंने कहा कि स्वामी श्रद्धानन्द जी ने वैदिक राष्ट्र बनाने के लिये गुरुकुल की स्थापना की थी। आचार्या जी ने गुरुकुल विषयक अनेक घटनाओं को सुनाया। उन्होंने कहा कि महर्षि दयानन्द ने अकेले ही देश का अकथनीय उपकार किया है। डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिये ऋषि दयानन्द एवं स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान हुआ। आचार्या जी ने श्रोताओं को वेदों का महत्व बताया। उन्होंने कहा कि वेद हमें जीवन जीने की कला सिखाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वेदों के प्रचार से संसार महान बन सकता है। आचार्या जी ने कहा वेदों की बातों को न मानने से संसार पर विपत्ति पड़ी है। वेद की बातों को मानने से कल्याण होता है। आचार्या जी ने कहा कि हमें संसार को आर्य बनाना है। हम दूसरों को देना सीखें। दूसरों के अधिकारों व वस्तुओं को छीने नहीं। अपनी वस्तुयें दूसरों को देने वालों का परमात्मा भला करता है। इसी के साथ आचार्या अन्नपूर्णा जी ने अपने वक्तव्य को विराम दिया।
डीएवी महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डा. नवदीप कुमार जी ने अपने सम्बोधन में ऋषि दयानन्द और स्वामी श्रद्धानन्द जी के बीच हुए संवाद की चर्चा की। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने नास्तिकता से संबंधित मुंशीराम जी के प्रश्नों का समाधान करते हुए उन्हें कहा था कि मनुष्य पर जब ईश्वर की कृपा होती है तब मनुष्य आस्तिक बनता है और उसका ईश्वर में विश्वास होता है। डा. नवदीप कुमार ने कहा कि स्वामी श्रद्धानन्द सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के प्रशंसक थे परन्तु वह सत्यार्थप्रकाश पढ़कर एकदम वैदिक धर्म में विश्वास करने वाले नहीं बने थे। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज के सभी अनुयायियों को स्वामी श्रद्धानन्द जी की आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ पढ़नी चाहिये। प्रोफेसर नवदीप कुमार जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी की पुत्री वेदकुमारी की मिशन स्कूल में पढ़ाई की चर्चा की। उन्होंने उस कविता को दोहराया जिसे वेदकुमारी जी ने अपने पिता स्वामी श्रद्धानन्द जी को सुनाया था। कविता थी कि ‘तू एक बार ईसा ईसा बोल तेरा क्या लगेगा मोल, ईसा मेरा राम रमैया ईसा मेरा कृष्ण कन्हैया।’ डा. नवदीप जी ने कहा कि पं. श्रद्धाराम फिल्लौरी ने पौराणिकों की आरती ‘ओ३म् जय जगदीश हरे’ सन् 1870 में लिखी थी। पं. श्रद्धाराम पौराणिक कथावाचक विद्वान था। उसने बाइबिल का भी अनुवाद किया। इसी पं. श्रद्धाराम द्वारा लिखी कविता थी ‘तू ईसा ईसा बोल तेरा क्या लगेगा मोल’। डा. नवदीप कुमार ने कहा कि कविता की इन पंक्तियों ने मुंशीराम जी वा स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन बदल दिया। उन्होंने इस कविता के वैदिक धर्म पर होने वाले दुष्प्रभाव को दूर करने के लिये जालन्धर में एक कन्या विद्यालय की स्थापना की थी जिससे हिन्दू आर्य बेटियां अंग्रेजी शिक्षा के दुष्प्रभाव से बच सकें। विद्वान वक्ता नवदीप कुमार जी ने आर्यसमाज में गुरुकुल व डीएवी स्कूल से जुड़ी घास पार्टी तथा मांस पार्टी की भी चर्चा की।
ऋषिभक्त डा. नवदीप कुमार ने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की पृष्ठभूमि तथा उसके लिये स्वामी श्रद्धानन्द जी के धन संग्रह व त्याग विषयक अन्य प्रयत्नों व पुरुषार्थ की चर्चा कर प्रकाश डाला। उन्होंने स्वामी जी के गुणों सत्यवादिता, पुरुषार्थ तथा कर्मठता पर भी प्रकाश डाला। चौधरी अमन सिंह जी से महात्मा मुंशीराम जी को गुरुकुल की स्थापना के लिए दान में 1200 बीघा भूमि के दो गांवों के प्राप्त होने का वर्णन भी उन्होंने किया। नवदीप जी ने बताया कि मुंशी राम जी ने इस भूमि को आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के नाम पर प्राप्त किया। मुंशीराम जी ने अपने जीवन के 15 वर्ष गुरुकुल कांगड़ी को समर्पित किये। उन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति कोठी, प्रेस आदि भी गुरुकुल को अर्पित कर दिये। डा. नवदीप जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी पर विचार टीवी द्वारा बनाये गये चलचित्र की भी चर्चा की।
विद्वान वक्ता नवदीप जी ने कहा कि दिनांक 21-3-1929 को रालेट एक्ट पारित किया गया था। इसका विरोध करने का निश्चय किया गया था। स्वामी श्रद्धानन्द गांधी जी के सम्पर्क में काफी पहले आ चुके थे। उन्होंने गांधी जी द्वारा अफ्रीका में किए गए आन्दोलन की सहायतार्थ भेजी गई धनराशि की भी चर्चा की जो गुरुकुल के आचार्यों व ब्रह्मचारियों ने मजदूरी करके एकत्र की थी। दिल्ली व अन्य तीन स्थानों पर दिनांक 30-3-1919 को रालेट एक्ट के विरोघ में पूर्ण हड़ताल करने का निश्चय किया गया था। नवदीप जी ने बताया कि हड़ताल गुजराती भाषा का शब्द है जिसका प्रयोग गांधी जी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में किया। दिल्ली में हड़ताल का नेतृत्व करने का भार स्वामी श्रद्धानन्द जी को दिया गया था। उन्होंने बताया कि 30 मार्च की हड़ताल को बदलकर 6 अप्रैल कर दिया गया था। इसका तार न मिलने के कारण दिल्ली में पूर्व निश्चित तिथि को ही हड़ताल हुई। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने दिल्ली में रालेट एक्ट के विरोध में एक बड़े जुलुस का नेतृत्व किया। डा. नवदीप जी ने इस जुलुस में अंग्रेजों के गुरखा सैनिकों द्वारा स्वामी जी पर संगीने ताने जाने और स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा उन संगीनों के आगे अपनी छाती लगा देने की घटना को वीर रस के शब्दों में ढालकर प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी की वीरता को ऋषि दयानन्द के बरेली में अंग्रेजों के विरुद्ध कहे गये शब्दों से जोड़ा और बताया कि ऋषि दयानन्द के ओजपूर्ण शब्दों को स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने कर्णों से सुना था और इनसे प्रेरणा प्राप्त की थी। इसका प्रभाव स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन पर पड़ा था। इस घटना के कारण गुरखा सैनिकों को अपनी संगीनें नीची करनी पड़ी थी। इस साहसपूर्ण घटना से दिल्ली के सभी लोग अत्यन्त प्रभावित हुए थे। इसके बाद स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा जामा मस्जिद के मिम्बर से दिये मुस्लिम बन्धुओं को सम्बोधन का विस्तार से उल्लेख भी नवदीप कुमार जी ने किया। उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी को नमन किया और उन्हें श्रद्धांजलि देकर अपने वक्तव्य को विराम दिया।
वार्षिकोत्सव में आर्य विद्वान श्री वेदवसु शास्त्री, प्राकृतिक रोग चिकित्सक डा. विनोद कुमार शर्मा का प्रभावपूर्ण सम्बोधन होने सहित आर्य भजनोपदेशक धर्मसिंह जी, श्रीमती मीनाक्षी पंवार जी, श्री उम्मेद सिंह विशारद जी तथा श्री यशवीर आर्य जी के भजन व गीत भी हुए। इनका वर्णन हम एक अन्य लेख द्वारा प्रस्तुत करेंगे। आर्यसमाज के मंत्री श्री ओम प्रकाश महेन्द्रु जी ने अपने कार्यकाल की रिर्पोट भी प्रस्तुत की। कार्यक्रम के अन्त में शान्ति पाठ हुआ तथा समाप्ति पर सभी विद्वानों व श्रोताओं ने मिलकर भोजन किया। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य