दिव्य कुमार सोती
पिछले दिनों कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जिन्होंने देश में विदेशी पैसे से हो रहे धर्मांतरण और ईसाई मिशनरी संगठनों द्वारा किए जा रहे भारत विरोधी दुष्प्रचार और हमारे अंदरूनी मामलों में दखल जैसे मुद्दों की ओर ध्यान खींचा है। 17 दिसंबर को वाशिंगटन स्थित मिशनरी संगठन इंटरनेशनल क्रिश्चियन कंसर्न ने ट्वीट कर भाजपा की विधानसभा चुनावों में हार पर खुशी जताई।
एक अन्य ट्वीट में भारत के कुछ पादरियों के हवाले से जारी बयानों को आधार बनाते हुए बताया गया कि भारत में किस तरह ईसाई भयभीत हैं और आने वाला क्रिसमस खुल कर नहीं मना पाएंगे। दूसरी ओर झारखंड में विदेशी फंड के दुरुपयोग के एक मामले में 88 एनजीओ के विरुद्ध चल रही जांच में राज्य सीआइडी ने दस लोगों को प्रारंभिक रूप से दोषी पाते हुए उनके खिलाफ सीबीआइ जांच की सिफारिश की। ये एनजीओ चर्च से संबंधित हैं। इन पर करोड़ों के फर्जी एकाउंट बनाने, घोषित उद्देश्य से अलग विदेशी चंदे का उपयोग करने और सरकार को झूठी जानकारी देने के आरोप हैं। चूंकि इनके तार विदेशों में जुड़े हैं इसलिए सीबीआइ जांच की सिफारिश की गई।
यह तो सबको स्मरण ही होगा कि गत 17 नवंबर को अंडमान निकोबार द्वीप समूह के सेंटीनल द्वीप पर एक अमेरिकी नागरिक जॉन एलन चाऊ को वहां रहने वाले आदिवासियों ने तीरों से मार डाला था। चाऊ की चिट्ठियों से पता चला कि वह इस द्वीप पर रहने वाले आदिवासियों को ईसाई बनाने आया था। चाऊ की मानें तो वह इन आदिवासियों को जीसस के साम्राज्य का अंग बनाना चाहता था। इस क्षेत्र में भारतीय नौसेना की अंडमान कमान भी है। ऐसे में एक विदेशी नागरिक का इस क्षेत्र के आदिवासियों का धर्मांतरण करने की कोशिश एक गंभीर विषय है। यह उस मिशनरी सनक की पराकष्ठा है जिसका जिक्र महात्मा गांधी ने अपने संस्मरणों में भी किया है।
महात्मा गांधी ने लिखा था कि किस तरह राजकोट में उनके स्कूल के बाहर नुक्कड़ पर ईसाई मिशनरी खड़े रहते थे और हिंदू देवी-देवताओं को लेकर अभद्र बातें करते थे। दरअसल ज्यादातर ईसाई मिशनरियों का तथाकथित मिशन दूसरे धर्मों को पूरी तरह झूठ समझने की सोच से उपजा है। इसके चलते उन्होंने और धर्मों को मानने वाले लोगों को उनकी कथित अज्ञानता से निकालने की जिम्मेदारी अपने सिर ओढ़ रखी है। तमाम एहितयात के बाद भी भारत में ईसाई संगठन धर्मांतरण में लिप्त हैं। सेवा की आड़ में वे गरीब लोगों और खासकर दलितों एवं आदिवासियों को बरगलाकर अथवा लालच देकर ईसाई बनाने में लगे हुए हैं।
धर्मांतरण में लिप्त ईसाई संगठन देश के सभी आदिवासी बहुल इलाकों में सक्रिय हैं। उनका प्रभाव कितना बढ़ गया है, इसका ताजा प्रमाण यह है कि हाल में मिजोरम में हुए चुनावों में यदि कोई सबसे अधिक प्रभावी था तो वह था चर्च। इस प्रभाव की झलक तब मिली जब मिजोरम के मुख्यमंत्री ने ईसाई प्रार्थनाओं के बीच अपने पद की शपथ ली।
एक लंबे अर्से से चल रहा धर्मातरण का धंधा न सिर्फ अरबों रुपये का व्यापार है, बल्कि सत्ता के अंतरराष्ट्रीय खेल का एक औजार भी है। इसका इस्तेमाल पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियां अन्य देशों में पैठ बनाने, जानकारियां हासिल करने केलिए करती हैं। माना जाता है कि इसी इरादे से वेटिकन ने 1944 में अमेरिकी खुफिया बिरादरी के पितामह माने जाने वाले विलियम डोनोवान को नाईट की उपाधि दे डाली थी। भारत में आम धारणा के विपरीत पश्चिमी देशों में सत्ता और चर्च पर्दे के पीछे एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं। चूंकि दुनिया भर में फैले कैथलिक मिशनरी वेटिकन को अपने आस-पास के इलाके की विस्तृत सूचनाएं भेजते थे इसलिए सीआइए ने वेटिकन से घनिष्ठ संबंध बनाने में लाभ समझा। इसके लिए डोनोवान ने कैथलिक मिशनरियों द्वारा संचालित खुफिया एजेंसी प्रो डिओ को वित्तीय संसाधन मुहैया कराने शुरू किए। इसके बदले में प्रो डिओ से जुड़े मिशनरियों ने अमेरिका के लिए जापानियों के विरुद्ध जासूसी की। यहां तक कि अमेरिकी वायु सेना के लिए कुछ खास ठिकानों का चिन्हीकरण भी किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सार्वर्न मिलिट्री ऑर्डर ऑफ माल्टा नामक एक पुरातन धार्मिक संस्था का उपयोग किया गया। कहने को तो यह मूलत: कुछ-कुछ हिंदू अखाड़ों जैसी संस्था थी, परंतु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसने एक ईसाई अभिजात्य गैर सरकारी संस्था का रूप ले लिया। अमेरिका और यूरोप के सत्ता तंत्र में बैठी कई कैथलिक शख्सियतें जैसे खुफिया अधिकारी, राजनयिक, उद्योगपति इसके सदस्य बन गए। इसके रूतबे का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि इस संस्था को संयुक्त राष्ट्र में पर्यवेक्षक का दर्जा हासिल है। इसे एक राष्ट्र की तरह पासपोर्ट तक जारी करने का अधिकार है। क्या आप सोच सकते हैं कि किसी हिंदू या सिख अखाड़े को संयुक्त राष्ट्र में ऐसा दर्जा प्राप्त हो सकता है? आजकल पश्चिमी देशों में सत्ता और चर्च का यही नाता है। इसी कारण 2015 में अपने भारत दौरे के दौरान बराक ओबामा ने यहां चर्चो पर हो रहे फर्जी हमलों के बहाने भारत में बढ़ती असहिष्णुता के हल्ले का समर्थन करने वाला बयान दिया।
एक अर्से से पश्चिमी खुफिया एजेंसियां चीन की कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ भी मिशनरियों का इस्तेमाल कर रही हैं। धर्मांतरण के कारण अब चीन में ईसाइयों की संख्या कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों जितनी हो चुकी है। कई शहरों में चीनी मंत्रियों के दौरे के दौरान अक्सर चर्च के नेताओं को नजरबंद करना पड़ता है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय सेवानिवृत्त होने के बाद मिशनरी बने अमेरिकी सैनिकों का इस्तेमाल पूर्वी म्यांमार में केंद्रीय सरकार के खिलाफ लड़ रहे आदिवासी उग्रवादियों से सूचनाएं जुटाने में करता है। इन मिशनरियों ने पूर्वी म्यांमार की ज्यादातर जनजातियों को ईसाई बना डाला है।
कमोबेश यही स्थिति भारत के पूवरेत्तर राज्यों और मध्य भारत के प्रदेशों में उत्पन्न हो रही है। इन इलाकों में विदेशी चंदा पा रहे मिशनरियों ने इतना धर्मांतरण कर डाला है कि पूरी की पूरी जनजातियां ईसाई हो गई हैं और उनकी सांस्कृतिक पहचान ही समाप्त हो गई है। इसका आकलन मध्य प्रदेश सरकार द्वारा गठित जस्टिस नियोगी आयोग ने किया था। इसने भारत में विदेश से चंदा प्राप्त कर रहे ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों पर लगाम लगाने की सिफारिश की थी जो वोट बैंक की राजनीति के चलते कभी लागू नहीं की गई। मोदी सरकार ने जरूर बिना स्रोत उजागर किए आ रहे विदेशी चंदे पर रोक लगाने की कोशिश की है, पर झारखंड का मामला दिखाता है कि कैसे मिशनरी संगठन भारतीय कानून से अब भी खिलवाड़ कर रहे हैं।
हाल में चीनी सरकार ने वेटिकन को इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया कि वेटिकन उसके यहां पादरी और बिशप उसकी रजामंदी से ही नियुक्त कर सकेगा। यह चिंताजनक है कि जब ईसाई मिशनरियां छल-छद्म से भारत की जन जनसांख्यिकी प्रकृति के साथ सामाजिक ताने-बाने को बदलने में लगी हुई हैं तब हमारे ज्यादातर नेता राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े इस गंभीर मुद्दे पर धर्मनिरपेक्षता का घिसा-पिटा राग अलापने तक सीमित हैं।
(लेखक काउंसिल फॉर स्ट्रेटेजिक अफेयर्ससे संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)
( दैनिक जागरण से साभार )