भयंकर झंझावातों के मध्य भी हमारी जीवन्तता बनी रही
जब तुर्कों के सामने राजपूतों की पराजय के कारणों का उल्लेख किया जाता है, तो सामान्यतया भारतीयों की जातिगत सामाजिक व्यवस्था को भी हर इतिहासकार दोषी मानता है। डा. ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं :-
”इन दोनों जातियों का संघर्ष दो भिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं का संघर्ष था। एक पुरानी व्यवस्था (हिन्दुत्व) पतनोन्मुख थी, और दूसरी यौवनपूर्ण तथा साहस से परिपूर्ण थी।”
इसी बात को प्रो. के.एस. निजामी ने इस प्रकार उल्लेखित किया है-”भारतीयों की पराजय का वास्तविक कारण उनकी सामाजिक व्यवस्था तथा द्वेष उत्पन्न करने वाली जाति प्रथा में विद्यमान थी, जिसने संपूर्ण सैनिक संगठन को दुर्बल तथा अरक्षित बना दिया। जाति तथा भेदभाव ने सामाजिक अथवा राजनैतिक एकता की भावना को विनष्ट कर दिया।”
भारतीयों के विषय में इस प्रकार की मान्यता ने इस धारणा को बलवती किया कि भारतीयों में जातिगत विद्वेष होने के कारण वह कभी एक नही रह पाये और पराजित हो गये। जबकि इस्लाम में जाति व्यवस्था न होने के कारण वह एक रहे, और इसीलिए विजयी हो गये।
इस्लाम में जातीय व्यवस्था
भारत में जाति व्यवस्था रही है, यह तो ठीक है, परंतु इस्लाम का यह कहना ठीक नही है कि उसके यहां जाति व्यवस्था नही है। पंडित सत्यदेव काशी की पुस्तक ‘इस्लाम के तीन सौ तेरह फिरके’ (पृष्ठ 8 से 10) में इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इस्लाम में भी सैकड़ों जातियां हैं। शिया सुन्नियों के खूनी संघर्ष आज भी होते रहते हैं। यदि इस्लाम में भी सैकड़ों जातियां हैं और उनके भी परस्पर खूनी संघर्ष होते रहते हैं, तो भारत की जाति व्यवस्था को इस्लाम की फिरकों की व्यवस्था के अनुकूल ही माना जाना चाहिए। यह स्मरण रखना चाहिए कि इस्लाम फिरकों को लेकर पैदा हुआ और भारत की वैदिक संस्कृति में ‘जाति-व्यवस्था’ एक विकार के रूप में धीरे धीरे जड़ें जमाने में सफल रही।
वास्तव में डा. ईश्वरी प्रसाद के उक्त कथन का प्रथम अंश कि ‘यह दो सामाजिक व्यवस्थाओं का संघर्ष था’ को सही संदर्भ में लेंगे तो यह सच है कि भारत में इस्लाम से टकराने के लिए पतनोन्मुख भारतीय समाज भी एकमत था, क्योंकि वह इस सामाजिक व्यवस्था को अपने धर्म के विरूद्घ मानता था, और भारतीयों का मत धर्म सर्वांशत: मानवतावादी था और इस्लाम उसके सर्वथा विपरीत था। यह साम्प्रदायिक था, जो भारतीयों को प्रथम दिन से ही प्रिय नही था।
राजपूतों की पराजय के सामाजिक कारण
राजपूतों की पराजय के सामाजिक कारणों पर दृष्टिपात करते हुए हमें प्रचलित इतिहास में निम्नलिखित कारण पढ़ाये या समझाये जाते हैं:-
-हिन्दुओं की सामाजिक विश्रंखलता।
-हिन्दुओं का अनामिषयुक्त होना।
-मुसलमानों की एकता।
-क्षत्रियों का नैतिक पतन।
-राजपूतों का आत्माभिमान।
-हिन्दुओं की विलासिता और उनका नैतिक पतन।
-हिन्दुओं की सांस्कृतिक जटिलता।
-हिन्दुओं के परस्पर युद्घों में लिप्त रहने से हुआ रिक्त कोष।
-मुसलमानों में मद्यपान का निषेध।
-क्षत्रियों के पारस्परिक संघर्ष तथा कलह।
इन कारणों की समीक्षा
यदि तुर्कों के सामने भारतीयों की पराजय के सामाजिक कारणों की गहराई से समीक्षा करनी हो तो हमें उस समय के सामाजिक परिदृश्य पर दृष्टिपात अवश्य करना चाहिए। इसके लिए हमें यह देखना चाहिए कि राज्य और समाज के परस्पर संबंध भारत की प्राचीन राजनीतिक व्यवस्था में कैसे रहे हैं?
इसके लिए वेद का यह मंत्र दृष्टव्य है :-
भद्रंमिच्छन्त: ऋषय: स्वर्विदस्तपा दीक्षां उपनिषेदुरग्रे।
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवो उपसंनमन्तु ।।
(अथर्व. 19-41-1)
अर्थात समाज के कल्याण की कामना करते हुए क्रांतिदर्शी अपने ज्ञान और तप से राष्ट्रबल और राष्ट्र ओज को उत्पन्न करते हैं। उस राष्ट्र की सेवा में सब उपस्थित रहें।
भारत में राज्य की उत्पत्ति का उद्देश्य समग्र समाज का कल्याण किया जाना माना गया है। ऐसे कल्याणकारी राज्य के लिए अपेक्षा की गयी है कि समाज के लोग भी राज्य के कार्यों में अपने कत्र्तव्यों का निर्वाह करते हुए अपनी सहभागिता सुनिश्चित करेंगे।
भारत में राज्य और समाज के ऐसे संबंध युग-युगों तक स्थापित रहे। राज्य समाज की सुरक्षा का दायित्व संभालता था और समाज को किसी भी प्रकार से कोई कष्ट क्लेश न हो ऐसी व्यवस्था करता था। बदले में समाज राज्य को ऐसी व्यवस्था बनाने में सहयोग करता था। अत: राज्य और समाज के हितों में कहीं विरोधाभास नही था और ना ही हितों में टकराव की कोई स्थिति ही कभी उत्पन्न होती थी। इसीलिए लोगों की मान्यता था कि ‘कोऊ नृप होई हमें का हानि’-अर्थात राजा चाहे कोई भी बने प्रजा को कोई हानि नही हो सकती, क्योंकि राजा का राज धर्म प्रजा के हितों के विपरीत नही होता था।
अब जब तुर्कों के आक्रमण देश पर हो रहे थे तो उस समय भी भारत के समाज में अपने राज्य के प्रति विद्रोह का कोई भाव नही था। इसके पीछे कारण ये था कि राजा का राजधर्म तब भी इतना उत्कृष्ट था कि वह जनसाधारण के हितों को कोई कष्ट नही पहुंचाता था। इसलिए देश की जनता अपने राजा के प्रति स्वाभाविक रूप से राजभक्त बनी रही। विदेशियों ने इस बात को भारत के संदर्भ में बड़ी ही उत्सुकता से देखा है कि यहां की जनता इतनी राजभक्त क्यों होती है? इसका कारण उन्होंने हमारी अशिक्षा और अज्ञान को माना है। जबकि सच इसके विपरीत रहा है, और वो यही कि भारत में राज्यधर्म और प्रजा हित दोनों एक ही सिक्के के दो पक्ष रहे हैं। इसलिए जनता ने चाहे कितने ही कष्ट उठाये पर वह अपने राजा के विरूद्घ कभी भी विद्रोही नही हुई। यही स्थिति राजाओं की भी थी, संभवत: उस समय भी कोई ऐसा राजा नही था, जिसने अपनी प्रजा पर अत्याचार करने में केाई कीर्तिमान स्थापित किया हो। ऐसी परिस्थितियों में देश में राजनैतिक क्षितिज पर तो कुछ निराशाजनक घटित हो रहा था, पर उसका प्रभाव देश की जनता पर भी पड़ रहा हो और जनता ने देश के किसी शासक के विरूद्घ युद्घ किया हो-ऐसा कोई उदाहरण नही मिलता।
एक क्रांतिकारी परिवर्तन
इस समय हमारे समाज के भीतर एक बड़ा ही क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहा था। उस परिवर्तन की ओर हमारे लोगों ने विशेषत: इतिहासकारों ने ध्यान नही दिया है। यह परिवर्तन था लोगों का राजा से अधिक गुरूभक्त हो जाने का। गुरूभक्ति भारत की प्राचीन परंपरा है। परंतु अब इसने गुरूडमवाद का रूप ले लिया था देश के आचार्यों के गुरूकुल या आश्रम बड़ी शीघ्रता से मंदिर बनते जा रहे थे और लोग इन मंदिरों में बड़ी शीघ्रता से सोना चांदी आदि चढ़ाया करते थे। जिससे राजाओं के राजकोषों में धन जाने के स्थान पर इन मंदिरों में जा रहा था। जब हमारे इन मंदिरों की समृद्घि का रहस्य विदेशी आक्रांताओं ने सुना तो उनके मुंह में पानी भर आया, और यह सच है कि इन विदेशी आक्रांताअेां में से अधिकांश लुटेरे भारत के मंदिरों की अकूत संपदा को लूटने के लिए चले थे। विभिन्न जातियों, उपजातियों और वर्गों में विभाजित भारत के समाज के लोगों ने या तो अपने राजा के साथ मिलकर या मंदिर के महंत के साथ विदेशी आक्रांता का प्रतिरोध किया। सोमनाथ के मंदिर की लूट के समय वहां पचास हजार लोगों की अपनी निजी सेना थी। वह जैसे भी लड़े, वैसे ही बड़ी वीरता से लड़ेे। उन्होंने कहीं भी यह नही दिखाया कि हम विभिन्न जातियों वर्गों में विभाजित है, इसलिए हमें एक नही होना चाहिए।
भारत की देशभक्त जनता
किसी भी विदेशी इतिहासकार ने कहीं ये नही लिखा कि अमुक युद्घ में स्थानीय राजा को उसकी अमुक जाति के लोगों ने अपना सहयोग या समर्थन देने से इनकार कर दिया था या वह जाति किसी विदेशी आक्रांता से जाकर मिल गयी। ऐसा कोई भी उल्लेख ना होने का अर्थ है कि प्रजा में देशभक्ति की भावना थी, वह अपनी देशभक्ति को किसी भी मूल्य पर कलंकित नही होने देना चाहती थी। जब भारत के सैकड़ों या हजारों नही बल्कि लाखों लोगों को विदेशी आक्रांता गिरफ्तार कर यातनायें देते थे, उनको दास बनाकर जीवन भर उनसे अमानवीय व्यवहार करते थे और अपना मल उनसे उठवाते थे, तब भी उनकी जाति केवल भारतीय होती थी। इसलिए वह भारत के लिए ही जीते थे और भारत के लिए ही मरते थे।
राजपूतों का धर्म
हमारे लिए दुख और दुर्भाग्य की बात ये थी कि हमारे राजपूत शासक अपनी ऊंची जाति के होने के अहम में सड़े मरते थे, वह किसी एक शासक की अधीनता को स्वीकार उसे संपूर्ण भारतवर्ष का सम्राट बनाने के लिए उद्यत नही थे।
भारत की जनता राजद्रोही तो नही थी और राष्ट्रद्रोही भी नही थी, पर वह स्वद्रोही अवश्य हो रही थी। विभिन्न देवताओं के होने से हमारी स्थिति परस्पर द्रोह की हो गयी थी। इकबाल ने सही ही तो कहा था :-
सच कह दूं ऐ! बिरहमन,
गर तू बुरा न माने।
अपनों से बैर रखना
तूने बुतों से सीखा।।
इस तथ्य की पुष्टि के लिए 951 ई. के लगभग अलइस्ताखरी के लेखों से हमें ज्ञात होता है-
‘एक मंदिर है जिसकी हिंदू लोग अत्यंत श्रद्घा करते हैं और हर वर्ष देश के दूर-दूर स्थानों से लोग यहां की तीर्थयात्रा पर आते हैं, जब भारत के लोग उनसे लड़ते हैं और उनकी मूर्तियां पकड़ लेना चाहते हैं तो स्थानीय निवासी उन्हें बाहर ले जाते हैं, यह बहाना करते हुए कि वे उन्हें तोड़ डालेंगे और जला देंगे। इस पर भारत के लोग पीछे हट जाते हैं, अन्यथा वे मुल्तान को ही नष्ट कर देते।”
मुसलमानों की बर्बरता को जिन लोगों ने वीरता के रूप में महिमामंडित किया है, उन्हें लताड़ते हुए प्रो. हबीब लिखते हैं-”लुटे हुए लोग कभी भी इस्लाम धर्म को ठीक नजर से नही देखेंगे……जबकि इसने अपने पीछे लुटे मंदिर, बर्बाद शहर और कुचली लाशों की सदा जीवित रहने वाली कहानी को ही छोड़ा है। इससे धर्म के रूप में इस्लाम का नैतिक पतन ही हुआ है।”
सचमुच इस्लाम के इस नैतिक पतन के कारण ही वो लोग भारत में अपने पैर जमाने में सफल हुए थे। इस्लाम की इस बर्बरता को गांधीजी जैसे अहिंसा के पुजारी ने भी जब समझा तो उन्हें भी 30 सितंबर 1927 को यंग इंडिया में लिखना पड़ा था-”इस्लाम का जन्म जिस वातावरण में हुआ था वहां तलवार ही सर्वोच्च कानून था और है….मुसलमानों में तलवार आज भी बहुतायत से दृष्टिगोचर होती है, यदि इस्लाम का अर्थ सचमुच में ही शांति स्थापित करना है तो तलवार को म्यान में बंद करना होगा।”
‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’
मध्यकालीन भारत के विषय में यह सत्य है कि उस समय भारतीयों की ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ के आदर्श के आधार पर हिंसा हिंसा नही थी वह जो कुछ भी कर रहे थे, वह अपने देश के प्रति अपना कत्र्तव्य मानकर कर रहे थे, जबकि विदेशी आक्रांता एक जाति पर, एक देश पर अपना अवैध शासन थोपने या उस देश के नागरिकों का बलात् धर्मांतरण कराने या उसके धनादि को लूटने के लिए जो कुछ भी कर रहा था वह नितांत अमानवीय था। इस अवैध आचरण को चाहे किसी किताब के आदेशों के आधार पर उचित ठहराया जाये या उस समय की परिस्थितियों के आधार पर उचित ठहराया जाये पर सच ये है कि ये उचित नही थे। इतिहास को जिस दिन इन्हें अनुचित कहने की स्वीकृति मिल जाएगी उसी दिन भारत की वीर जनता के वीरता पूर्ण कृत्यों के लिए चारों दिशाओं में समूह गान का मधुर गीत गूंज उठेगा। भारत के वीरों की आत्माओं को उस समूह गान की उत्कट अभिलाषा है।
भारत के पूर्व प्रतिरक्षा राज्यमंत्री रहे प्रो. शेरसिंह ने लिखा है-”भारत प्राचीन देश है। विजेता जाति के होने से पाश्चात्य लेखक यहां के इतिहास और राजदर्शन का प्राचीनतर होना अंकित करके अपनी पराजय क्यों कर स्वीकार करते?”
नये धर्मों के प्रति हिंदुत्व की नीति
मुस्लिमों और ईसाईयों के मत को नया मानकर कुछ लोगों ने ऐसा कुतर्क गढ़ा है कि ये दोनों मत बहुत ही खुले विचारों के थे और इनके यहां मनुष्य मनुष्य के मध्य जातीय भेदभाव न होकर स्वाभाविक समानता थी, इसलिए पुराना धर्म हिंदू धर्म जो कि जातिवाद की जटिलताओं में जकड़ा पड़ा था मुस्लिमों और ईसाइयों की इस खुलेपन की नीति को हृदय से अंगीकार नही कर पाया। उसने इनके लिए वैसी ही उदारता नही दिखायी जैसी कि शक, हूण, कुषाण आदि को अपने में आत्मसात करते समय दिखायी थी। अब हिंदूधर्म इन नये धर्मों से कुछ लेने या सीखने को तैयार नही था। ऐसे लेखकों की दृष्टि में भारत के वैदिक हिंदू समाज का इतना पतन हो चुका था कि वह अब इस्लाम को कुछ देने को या उससे कुछ लेने को तैयार नही था। हमारा मानना है कि यह आरोप भी निराधार है। भारत के वैज्ञानिक वैदिक हिंदू धर्म से विदेशियों ने प्राचीनकाल से ही बहुत कुछ सीखा है इस्लाम और ईसाईयत भी इससे अछूते नही रहे हैं।
विदेशी विद्वान क्या कहते हैं
अपनी पुस्तक में कोलब्रुक ने जो कुछ कहा है वह हमारे इसी मत की पुष्टि करता है, वह लिखता है :-‘ईसाई चिंतन में ऐसा कोई भी तो विचार नही है, जिसका मूल स्रोत एक न एक हिंदू तत्वदर्शन न कहा जा सके। चाहे पायथागोरस और प्लेटो की हिंदू प्रभावित हीलिनिज्म हो चाहे गुरटोक का मज्दा दर्शन हो चाहे कविलिस्ट का यहूदी दर्शन हो, चाहे मूरों का हिंदुत्व से भरा इस्लामी चिंतन और चाहे इंग्लैंड का हिंदुत्व पूर्ण सोसानियन चिंतन या आत्मनिष्ठता सबके सब आदि के हिंदू चिंतन से प्रभावित हैं।”
कोलब्रुक जैसे अनेकों विद्वानों के मत हैं, जिनसे सिद्घ होता है कि भारत के हिंदुत्व को किसी से सीखने की आवश्यकता नही थी, क्योंकि उसकी विशेषता ही ये है कि उसने दूसरों को सिखाया है, उनसे सीखा नही है। इस्लाम ने दूसरों से कुछ सीखा भी है और कुछ उनका छीना भी है।
अब्बे डूबस नामक विदेशी विद्वान ने भी स्वीकार किया है कि-”भारत विश्व का झूला है। यह आदि माता है, जो कि अपने पुत्रों की सभी देशों में भेजती रही है, चाहे वे पश्चिम की अनंत सीमा पर ही स्थित हो। इसी बात से अविकल सिद्घ है कि हमारा पश्चिम वालों का निकास कहां से है, भारत के चिंतन से ही हिब्रू ग्रीक और रोमन विधि और अर्थतंत्र का विकास हुआ है।”
भारत विश्व का झूला है, उसकी माता है, और सारे विश्व को उसी ने संस्कृति और सभ्यता का क, ख, ग पढ़ाया व सिखाया है, इसे जब विदेशी विद्वान भी मानते या कहते हैं तो ये कैसे माना जा सकता है कि इस बात को भारत का तत्कालीन समाज नही जानता होगा? निश्चित रूप से जानता था, और कदाचित यही कारण था जिसने उस भारतीय समाज के इस्लाम और ईसाईयत के हीनतर नैतिक मूल्यों के साथ सामंजस्य स्थापित करने से रोका और अंत तक वह ना तो झुका और ना ही बुझा। बस, यही उसकी विजय थी। इस विजय के लिए उसने कितना बड़ा बलिदान दिया यह विचारणीय नही है, अपितु विचारणीय ये है कि बलिदानों के लिए उसने कितनी देर तक संघर्ष किया?
ब्लूमफील्ड जैसे विद्वानों का मानना रहा है कि भारतीय मेधाशक्ति अध्यात्म के चिंतन में अधिक देर तक सुख पाती रही है। मानविकी विशेषकर राजनीति के क्षेत्र में उनकी कोई देन नही है।
ऐसे लेखकों ने अपने आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर भारत के विषय में ऐसी भ्रांतियां फेेलायी हैं। जबकि भारत के विषय में ऐसा कहना निरर्थक ही है। भारत के सामाजिक परिवेश में कुछ दोष अवश्य आ चुके थे परंतु उन दोषों के रहते हुए भी भारतीय स्वयं को विदेशियों से उच्चतर ही मानते थे। इसीलिए उनके सामने झुकने को तैयार नही थे। बस, किसी भी जीवन्त जाति के इतिहास लेखन के लिए यही तत्व देखना चाहिए कि विभिन्न झंझावातों के मध्य वह कैसे अपनी जीवन्तता को स्थापित किये रखने में सफल रही? जहां तक भारत और भारतीयों का प्रश्न है तो उनके बारे में बड़े गर्व के साथ यह कहा जा सकता है कि उन्होंने भयंकर झंझावातों के मध्य भी अपनी जीवंतता को सदा प्रबल बनाये रखा। इसलिए भारतीयों की पराजय के सामाजिक कारणों की भी निष्पक्ष समीक्षा आवश्यक है। यह देखा जाना आवश्यक है कि आततायी अपने आतंक से उन्हें पराजित करना चाहता था पर वह अपनी चेतना की ज्योति को बुझने नही दे रहे थे। उस चेतना को बार-बार नमन करना हर भारतीय का पुनीत कत्र्तव्य है।
मुख्य संपादक, उगता भारत