जवाब दे गए हैं हमारे कँधे

भरोसे मत रहना

– डॉ. दीपक आचार्य

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वो दिन हवा गए हैं जब हम औरों के कँधों पर गर्व किया करते थे और जिन पर भरोसा था कि वे हमारे कँधे बनकर सहयोग करेंगे, या कि कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलेंगे अथवा कंधा देंगे। औरों की बंदूकों को कंधा दे देकर हमने अपने कंधों को इतना नाकारा कर डाला है कि ये कंधे किसी काम के न रहे। न हमारे अपने काम के रहे हैं और न ही औरों के काम आने लायक।

हम सभी को अपने कंधों पर जो गर्व और गौरव का अहसास था वह कभी का खत्म हो चुका है। अपने कंधे न उपकार करने लायक रहे न परोपकार या सेवा। पुरानी पीढ़ियां जिन कंधों का नाम ले लेकर आगे बढ़ा करती थी, जिन कंधों से उन्हें ताजिन्दगी आस लगी रहती थी, वे कंधे अब कंधे न रहे।

जब से हमने सिर्फ अपने ही अपने बारे में सोचने और करने को जिंदगी मान लिया है तभी से हमारे अंग-प्रत्यंग भी स्वार्थी और नाकारा हो गए हैं, उन्हें भी पसरकर औरों को थामने की आदत नहीं रही, वे बार-बार हमारी अपनी ही तरफ मुड़ने के आदी हो गए हैं, हों भी क्यों न , हमने जो सिखाया है उसी के मुताबिक ये ढल गए हैें।

इनका ढलना अब हम पर असर दिखा रहा है और हम भी भरी जवानी में ऎसे ही लगने लगे हैं जैसे ढल गए हैं। जाने किसने हमारी सारी शक्तियों को ढुलना सिखा दिया है और हम ढुलते ही जा रहे हैं। अभी पुराने घी में तो उतना ही दम-खम है, पर वे लोग कब तक रहेंगे हमारे अपनों के बीच।

आज हमारी पुरानी पीढ़ी को हमसे और कोई आशाएं भले ही नहीं बची हों, मगर वे लोग हमसे इतनी तो आशा करते ही हैं कि जब उनका समय आए तब हमारे कंधे उन्हें उठाकर मुकाम तक ले जाएं और गति-मुक्ति में भागीदार बनें।

पर हम नाकारा और निर्वीर्य लोग किस मुँह से उन्हें यह साफ-साफ कह डालें कि यह जमाना ही ऎसा आ चला है कि उनकी आशाओं पर तुषारापात ही होगा। बेदम और बेड़ौल जिस्म को ढोते हुए, हम सारे के सारे लोग अपने कंधों की ताकत खो चुके हैं।

अपने निशानों को साधने के लिए औरों के कंधे तलाशते-तलाशते आज हम इस मुकाम पर आ पहुंचे हैं कि हमारे कंधे ही अपने नहीं रहे। फिर औरों को कंधा देने की तो बात ही बेमानी है। कुछ साल पहले की ही बात है जब हमारे सशक्त कंधों पर सवार होकर हमारी पुरानी पीढ़ी के मोक्षधाम पहुंचकर पंचतत्व में विलीन होने की परंपरा बरकरार थी।

आज हमारे पास समय ही नहीं है इसलिए न हम उपलब्ध हैं, न हमारे कंधे। इसीलिए अब हमें मोक्षवाहनों का सहारा लेना पड़ रहा है। हमारे कंधों में इतना दम ही नहीं रहा कि हम शवों का वजन उठा सकें। हमें जिंदा लोगों का भार उठाने तक में भी मौत आती है, और शवों को कंधा दे पाने की स्थिति में भी नहीं हैं।

एक जमाना था जब शवों को कंधा देना जीवन का सबसे बड़ा पुण्य समझा जाता था और सभी इसमें दिल से भागीदारी निभाते थे। इससे सामाजिक सहभागिता और मानवीय मूल्यों का बोध भी होता था और शवयात्राओं का सफर आसान भी होता था।

आज हम किसी की भी शवयात्रा में जाते हैं तो अधिकांश लोग चुपचाप ऎसे चलते हैं जैसे मौन जुलूस हो। मृत्यु शाश्वत सत्य है और इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। ऎसे ही हर प्राणी की शवयात्रा और अंतिम संस्कार भी हैं जिनमें भागीदार बनना हमारा सामाजिक कत्र्तव्य है। पर हम कहाँ निभा पा रहे हैं। हमें तो राम नाम सत्य है … यह बोलने तक में शरम आती है, कंधा देने की बात तो दूर है।

क्यों न हम सार्वजनीन तौर पर अपने आपके बारे में बिना किसी हिचक या शर्म के यह घोषणा कर दें कि कोई हमारे कंधों पर भरोसा न रखें, हमारे कंधे अब किसी काम के नहीं रहे, सिवाय औरों के लिए बंदूक रखने के।

हमारी पुरानी और समझदार पीढ़ी तो सब समझ चुकी है कि इन तिलों में तेल नहीं रहा, इन कंधों में जोर नहीं रहा। कितने लोग है जो इस सत्य को स्वीकार कर पाने का साहस करते हैं कि हम सब नाकारा और टाईमपास हो चुके हैं और कोई हमारे कंधों पर भरोसा न रखें।

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